पुष्पा गुप्ता
उत्तर पुस्तिका मूल्यांकन के संदर्भ में जब विभाग का पत्र अमित को मिला तो उसने एक ठंडी सांस ली और उसके भीतर एक सिहरन सी पैदा हुई।
क्या बात है भाई, वर्मा जी लेटर की खुशी नहीं हुई क्या?
अजी, वर्मा जी तो खुशी और गमी से ऊपर उठे हुए इंसान हैं।
अरे समझो, 5000 का चेक है यह, राधा कृष्ण चाय की घूंट भरता हुआ बोला।
मीना जी, आप भी क्यों नहीं करती इस बार यह मूल्यांकन कार्य?
ओह नो, यह कार्य बड़ा बोरिंग है, सारा दिन आंखें गड़ाए पढ़ते रहो बच्चों के पेपर।
पेपर नहीं चेहरे होते हैं यह बच्चों के, उषा जी बोली। अगर विद्यालय में ना पढ़े जाएं तो वहां पढ़ लो।
उषा जी, यह बच्चों के नहीं बल्कि हमारे आईने होते हैं जिनमें अपने चेहरे निहार कर आत्म मंथन हो सकता है कि क्या है हमारा मूल्यांकन इनकी आंखों में?
वाह, अमित जी, क्या बात कही है आपने, आई लाइक इट, मीना जी बोली।
वह हमेशा वर्मा जी को नाम से पुकारती थी लेकिन राधा कृष्ण को यह बात नागवार गुजरती थी। वह हमेशा उसकी बात को काटने के प्रयास में रहता था मगर हर बार उसे मुंह की खानी पड़ती थी।
अजी यह सब आदर्शवादी बातें हैं, प्रैक्टिकल तो यह है कि 15 दिन का आराम और दाम के दाम, सरकारी नौकरी का यही तो सुख है, अपना तो वैसे भी फार्मूला है दोस्तो, मौज लो, हर रोज लो और ना मिले तो खोज लो। इस बात पर जानदार ठहाका लगा पूरे स्टाफ रूम में।
मान गए आप को, आप पूरी तरह सरकारीकरण के रंग में रंगे हुए हैं, शर्मा बोला। उधर अमित सोच रहा था कि राधा कृष्ण जैसे लोगों का जीना भी कैसा जीना है मगर उधर से ध्यान हटाकर फिर उसका ध्यान मूल्यांकन कार्य पर केंद्रित हो गया।
2 बरस पहले की एक घटना उसके मन मस्तिष्क पर दस्तक देने लगी। कुछ बातें, कुछ घटनाएं, कुछ परिस्थितियां, कुछ लोग किस तरह जेहन में बैठ जाते हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद भी निकलते ही नहीं। लोग यह कहते हैं कि गम या खुशी थोड़े दिन की मेहमान होते हैं वह तो मानस पटल पर चिपक जाते हैं।
हां, शायद ऐसा ही था यह अनुत्तरित प्रश्न जो एक उत्तर पुस्तिका में दर्ज था। वह पीछे चला गया। 2 साल पीछे जब जिले के एक निजी विद्यालय में उत्तर पुस्तिका मूल्यांकन कार्य करने वह भी सहयोगी प्राध्यापकों के साथ गया था। पहला दिन हल्का-फुल्का था। कुछ पुराने साथी मिले, गपशप हुई, हालचाल पूछे गए, विभाग की रणनीति पर चर्चा हुई, सरकार को कोसा गया, यूनियन के क्रियाकलापों पर चर्चा हुई, यूनियन की चुप्पी, हकों के लिए आवाज न उठाया जाना, सरकार का ढुलमुल रवैया, साथियों की निष्क्रियता, परिवार बच्चे, चाय का दौर आदि मुद्दे ही प्रधान रहे और छाए रहे।
चाय के दौर के समय विषय बदलकर महिलाओं के पहनावे व प्राध्यापकों के संबंधों तक आ गया जिनमें कुछ ने खुलकर, कुछ ने दवे स्वर से अपने ज्ञान की व्याख्या की जिसके सबने चटखारे लिए। फिर सभा का समापन इस बात से हुआ कि कम से कम आज का काम तो निपटा दिया जाए। चलते चलते सीनियर जूनियर के इस मुद्दे पर भी रोष प्रकट किया गया कि कैसे एक जूनियर को हैड एग्जामिनर और सीनियर को सब एग्जामिनर लगाया गया मगर समरथ को नहिं दोष गुसाईं की तर्ज पर होता है होता है, चलती में चलानी चाहिए, जो चलती में न चलाए वह बेवकूफ होता है और जो न चलती में चलाए वह भी बेवकूफ होता है के अंतिम उद्घोष से सबने अपने-अपने कमरों की राह ली।
अमित को याद है जब चौथे दिन उसने पेपर खोले तो एक पेपर को पढ़ते-पढ़ते रुक गया। लिखा था, सर जी अंतिम चार पृष्ठों में मेरे कुछ प्रश्न हैं या इसे आप मेरा दर्द कह लीजिए जो मैंने लिखने की कोशिश की है। आप जो भी हैं मैडम या सर इसे जरूर पढ़ने की कोशिश करना और कोई हल अगर आपके पास हो तो मुझे सूचित भी कर देना, जो मोबाइल का खर्च हो, मेरे से ले लेना जी, आप की लाडली रीना।
बात छोटी सी थी लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा कि इस लड़की के पास जरूर ऐसा कोई प्रश्न है जिसका संबंध समाज से होगा, हमारी सब की मानसिकता से होगा, मेरा कुतूहल बढ़ गया। धड़कते हृदय से मैंने अगले पृष्ठ पलटे हालांकि और साथियों की उत्तर पुस्तिकाओं में भी शायद कई इस तरह की बातें लिखी आती थी जिसे वे चटखारे ले लेकर ऊंचे स्वर में बोलकर सब को सुनाते थे, यथा : जय माता की, ओम साईं राम, जय बनभौरी वाली देवी की, जय हो बाबा जहर बली की।
पूज्य गुरु जी, यह मेरा आखिरी चांस है, मुझे पास कर देना जी, भगवान आपको सुखी रखे, भगवान आपकी शादी सुंदर लड़की से करवाए, सर जी, मैं बहुत गरीब परिवार की लड़की हूं ट्यूशन न रख सकी, जो कुछ मैंने किया है अपनी मेहनत का है, नकल का नहीं, आप मुझ पर कृपा करना जी, आप सीधे स्वर्ग जाएंगे आदि आदि।
मगर इस लड़की ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था मगर जो प्रश्न उसने उठाए थे वे अत्यंत सटीक एवं झिंझोड़ने वाले थे। पहला पृष्ठ पढ़कर ही मैंने उन चारों पृष्ठों का फोटो स्टेट करवा लिया और घर जाकर में तसल्ली से पढ़ा। उनका मसौदा कुछ यूं था श्रीमान जी पिछले दो-तीन साल से हमारे घर की हालत बहुत खराब है। 6 साल पहले हमारी हालत ठीक थी। मैं तब तीसरी या चौथी कक्षा में थी। हमारा परिवारिक जीवन बहुत सुखद था। घर में चैन की बंसी बजती थी। मेरी मां जितनी सुंदर काया की स्वामिनी थी, उतनी सुंदर और कुशल गृहिणी भी थी। वह कुशलता से दिहाड़ी से लाई गई मेरे पिता की कमाई से घर को इस तरीके से संभालती थी कि हमें कोई कमी महसूस नहीं होती थी। उन्हीं दिनों मेरे पिता के साथ एक ठेकेदार ने घर आना शुरू किया था। मेरी मां ने पहले ही दिन पिता से कहा था, रीना के बापू, इस आदमी की आंख ठीक नहीं है , मुझे इसका घर आना ठीक नहीं लगा।
तुम तो यूं ही शक करती रहती हो, यह ठेकेदार है, नया आया है, मुझ में इसने ना जाने क्या देखा कि मुझे काम से अपने काम पर ले गया है, दिहाडी भी ₹30 ज्यादा और विश्वास भी मुझे पर सबसे ज्यादा करता है। परिस्थितियों से समझौता करके जीना ही जिंदगी है। रीना के बापू हम तुम्हारी पगार में संतुष्ट हैं, दो रोटी सुकून से खा रहे हैं, मुझे और कुछ नहीं चाहिए, दो ही तो बच्चे हैं , इन्हें हम पढ़ाएंगे लिखाएंगे, आगे बढ़ना गलत नहीं है, खैर जैसी तुम्हारी मर्जी।
सर जी, औरत को भगवान ने इतना लाचार क्यों बनाया? फिर वह ठेकेदार रोजाना घर आने लगा। अब घर पर शराब भी पी जाने लगी। मां विरोध करती थी तो बापू उसे पीटता था और सर जी, एक दिन तो गजब ही हो गया जब यह किसी मजदूर औरत को अपनी हवस की आग बुझाने के लिए घर ले आए।
सर जी, आप मेरी हालत समझ सकते हैं, तब मैं शायद आठवीं में रही हूंगी। मैं सब समझती थी। मां ने बहुत विरोध किया। मोहल्ले को इकट्ठा कर लिया लेकिन हैरानी की बात है कि एक बुजुर्ग को छोड़कर सभी मेरी मां को ही समझाने लगे। रामरति, क्यों मोहल्ले को तमाशा दिखाती है? मर्द के तो यही काम हैं, घर की बात घर में ही रहने दे, आदि आदि।
सर जी, मुझे लगा उस दिन मेरी मां टूट गई। शुक्र यही था कि इस गलीच काम के लिए उसने मेरी मां को अभी कुछ नहीं कहा था हालांकि मैं जानती थी कि उसकी बुरी नजर मेरी मां पर भी है और शायद मुझ पर भी। मेरी मां को अपने से ज्यादा चिंता मेरी और मेरे भाई की थी। मेरा भाई भी नौवें साल में था और सब कुछ समझने लगा था। मुसीबतों ने भी और शिकंजा कसा। एक रात मेरा बापू चल बसा। अब निर्धन की जोरू सबकी भाभी बन गई थी।
सर जी, मैं सच कह रही हूं। मैंने जीवन में जाना कि रुपया आदमी की कितनी बड़ी जरूरत है। रिश्तेदार भी सांत्वना के दो बोल बोल कर खा पीकर उड़ गए। आखिर कौन किसका कहां तक साथ देता है। सब मतलब का संसार है। मां ने कभी दिहाड़ी भी न की थी। यहां वहां कई जगह सोचा छोटी-मोटी नौकरी मिल जाए लेकिन उसका अनपढ़ और औरत होना जैसे एक अभिशाप बन गया।
एक दिन पिता का वह मित्र ठेकेदार घर आया। उसी ने पिता के मरने पर सारा खर्च किया था। उसने मां के सामने प्रस्ताव रखा कि वह हर महीने मां को खर्चा दिया करेगा और परिवार को पालेगा मगर उसकी शर्त यह थी कि वह जब चाहे मां को ले जा सकता था। उसने इस बात को बड़े ही कमीनेपन से कहा। सर जी, भगवान ने औरत को ऐसा क्यों बनाया कि उसे मजबूरी में कोई राह नजर नहीं आती। मां के सामने हम भाई बहनों के चेहरे थे। भविष्य था। समाज के बारे कुछ दिन सोचकर मां ने आखिर खुद को इस दलदल में झोंक दिया और सर जी आप तो जानते हैं कि दलदल का एक नियम होता है, आप जितना बाहर निकलेंगे उतना धंसते जाएंगे। मां भी फंस गई। धीरे-धीरे अब घर की हालत यह हो गई थी कि मां हर रोज मेरे किसी नए बाप के साथ जाने लगी।
सर जी, अब मैं आपसे ही पूछती हूं कि मैं क्या करूं? मेरे सामने कई विकल्प हैं, एक तो यह कि हम तीनों ही आत्महत्या कर लें ताकि तीनों का इस नर्क से छुटकारा हो। दूसरा यह कि हम दोनों भाई बहन जहर खा लें ताकि हम सुखी हो जाएं। तीसरा यह भी हो सकता है कि इस सारे सिस्टम के खिलाफ मैं एक मोर्चा खोल लूं। मैंने मां को बहुत समझाया था मगर मां ने एक ही बात कही कि हम भूख बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे और फिर जिस से भी मदद मांगेंगे वह प्रतिदान तो चाहेगा ही। हो सकता है किसी दिन कोई देवता हमारे ऊपर रहम कर इस जिल्लत से हमें छुटकारा दिला दे।
आप ही बताइए सर जी, मैं क्या करूं और कहां जाऊं ?रीना के विचार पढ़कर अमित सकते में आ गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि ऐसे हालात किसी घर में हो सकते हैं। वह क्या जवाब देता। बड़ी भयानक स्थिति थी। सारी रात वह उधेड़बुन में रहा। आखिर सुबह की पहली किरण के साथ उसने एक फैसला लिया।
नहीं, वह रीना को इस आग में नहीं झोंकेगा। उसने रीना का परचा देखा, वह मुश्किल से 10 अंक ही ले पाने के काबिल थी, उसने उसे मेरिट तक पहुंचा दिया। वह अच्छे अंक से पास होकर शायद किसी कोर्स में दाखिल हो जाए। मोबाइल नंबर फीड तो कर लिया मगर आज तक वह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। कोई अनदेखा डर उसके भीतर समा गया था।
हां, वह प्रभु से कामना जरूर करता था कि उसकी उम्र रीना को लग जाए। उत्तर पुस्तिका में दर्ज यह प्रश्न कितने बड़े प्रश्न थे, यक्ष प्रशन थे जिनका जवाब कोई युधिष्ठिर ही दे सकता था और यह एक कटु सत्य था कि वह युधिष्ठिर नहीं था।
(चेतना विकास मिशन)