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कहानी : चिड़िया की बच्ची

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           पुष्पा गुप्ता 

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    देश के जानेमाने मनोवैज्ञानिक कथाकार जैनेंद्र कुमार ने इस कहानी में आजादी का महत्व और मनुष्य का स्वार्थी स्वभाव दर्शाया है. एक ओर प्यारी- सी छोटी चिड़िया के स्वतंत्र जीवन का वर्णन है और दूसरी ओर अमीर सेठ की खुशीरहित जिंदगी का। 

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        माधवदास ने अपनी संगमरमर की नयी कोठी बनवाई है। उसके सामने बहुत सुहावना बगीचा भी लगवाया है। उनको कला से बहुत प्रेम है। धन की कमी नहीं है और कोई व्यसन छू नहीं गया है। सुंदर अभिरुचि के आदमी हैं। फूल-पौधे, रकाबियों से हौज़ों में लगे फव्वारों में उछलता हुआ पानी उन्हें बहुत अच्छा लगता है। समय भी उनके पास काफ़ी है। शाम को जब दिन की गरमी ढल जाती है और आसमान कई रंग का हो जाता है तब कोठी के बाहर चबूतरे पर तख्त डलवाकर मसनद के सहारे वह गलीचे पर बैठते हैं और प्रकृति की छटा निहारते हैं। इनमें मानो उनके मन को तृप्ति मिलती है। मित्र हुए तो उनसे विनोद-चर्चा करते हैं, नहीं तो पास रखे हुए फर्शी हुक्के की सटक को मुँह में दिए खयाल ही खयाल में संध्या को स्वप्न की भाँति गुज़ार देते हैं।

आज कुछ-कुछ बादल थे। घटा गहरी नहीं थी। धूप का प्रकाश उनमें से छन-छनकर आ रहा था। माधवदास मसनद के सहारे बैठे थे। उन्हें जिंदगी में क्या स्वाद नहीं मिला है? पर जी भरकर भी कुछ खाली सा रहता है।

उस दिन संध्या समय उनके देखते-देखते सामने की गुलाब की डाली पर एक चिड़िया आन बैठी। चिड़िया बहुत सुंदर थी। उसकी गरदन लाल थी और गुलाबी होते-होते किनारों पर जरा-जरा नीली पड़ गई थी। पंख ऊपर से चमकदार स्याह थे। उसका नन्हा सा सिर तो बहुत प्यारा लगता था और शरीर पर चित्र-विचित्र चित्रकारी थी। चिड़िया को मानो माधवदास की सत्ता का कुछ पता नहीं था और मानो तनिक देर का आराम भी उसे नहीं चाहिए था। कभी पर हिलाती थी, कभी फुदकती थी। वह खूब खुश मालूम होती थी। अपनी नन्ही सी चोंच से प्यारी-प्यारी आवाज़ निकाल रही थी।

माधवदास को वह चिड़िया बड़ी मनमानी लगी। उसकी स्वच्छंदता बड़ी प्यारी जान पड़ती थी। कुछ देर तक वह उस चिड़िया का इस डाल से उस डाल थिरकना देखते रहे। इस समय वह अपना बहुत-कुछ भूल गए। उन्होंने उस चिड़िया से कहा, “आओ, तुम बड़ी अच्छी आईं। यह बगीचा तुम लोगों के बिना सूना लगता है। सुनो चिड़िया तुम खुशी से यह समझो कि यह बगीचा मैंने तुम्हारे लिए ही बनवाया है। तुम बेखटके यहाँ आया करो।”

चिड़िया पहले तो असावधान रही। फिर जानकर कि बात उससे की जा रही है, वह एकाएक तो घबराई। फिर संकोच को जीतकर बोली, “मुझे मालूम नहीं था कि यह बगीचा आपका है। मैं अभी चली जाती हूँ। पलभर साँस लेने मैं यहाँ टिक गई थी।”

माधवदास ने कहा, “हाँ, बगीचा तो मेरा है। यह संगमरमर की कोठी भी मेरी है। लेकिन, इस सबको तुम अपना भी समझ सकती हो। सब कुछ तुम्हारा है। तुम कैसी भोली हो, कैसी प्यारी हो। जाओ नहीं, बैठो। मेरा मन तुमसे बहुत खुश होता है।”

चिड़िया बहुत-कुछ सकुचा गई। उसे बोध हुआ कि यह उससे गलती तो नहीं हुई कि वह यहाँ बैठ गई है। उसका थिरकना रुक गया। भयभीत-सी वह बोली, “मैं थककर यहाँ बैठ गई थी। मैं अभी चली जाऊँगी। बगीचा आपका है। मुझे माफ़ करें!”

माधवदास ने कहा, “मेरी भोली चिड़िया, तुम्हें देखकर मेरा चित्त प्रफुल्लित हुआ है। मेरा महल भी सूना है। वहाँ कोई भी चहचहाता नहीं है। तुम्हें देखकर मेरी रागनियों का जी बहलेगा। तुम कैसी प्यारी हो, यहाँ ही तुम क्यों न रहो?”

चिड़िया बोली, “मैं माँ के पास जा रही हूँ, सूरज की धूप खाने और हवा से खेलने और फूलों से बात करने मैं ज़रा घर से उड़ आई थी, अब साँझ हो गई है और माँ के पास जा रही हूँ। अभी-अभी मैं चली जा रही हूँ। आप सोच न करें।”

      माधवदास ने कहा, “प्यारी चिड़िया, पगली मत बनो। देखो, तुम्हारे चारों तरफ़ कैसी बहार है। देखो, वह पानी खेल रहा है, उधर गुलाब हँस रहा है। भीतर महल में चलो, जाने क्या-क्या न पाओगी! मेरा दिल वीरान है। वहाँ कब हँसी सुनने को मिलती है? मेरे पास बहुत सा सोना-मोती है। सोने का एक बहुत सुंदर घर मैं तुम्हें बना दूंगा, मोतियों की झालर उसमें लटकेगी। तुम मुझे खुश रखना। और तुम्हें क्या चाहिए! माँ के पास बताओ क्या है? तुम यहाँ ही सुख से रहो, मेरी भोली गुड़िया।”

चिड़िया इन बातों से बहुत डर गई। वह बोली, “मैं भटककर तनिक आराम के लिए इस डाली पर रुक गई थी। अब भूलकर भी ऐसी गलती नहीं होगी। मैं अभी यहाँ से उड़ी जा रही हूँ। तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं।

मेरी माँ के घोंसले के बाहर बहुतेरी सुनहरी धूप बिखरी रहती है। मुझे और क्या करना है? दो दाने माँ ला देती है और जब मैं पर खोलने बाहर जाती हूँ तो माँ मेरी बाट देखती रहती है। मुझे तुम और कुछ मत समझो, मैं अपनी माँ की हूँ।”

माधवदास ने कहा, “भोली चिड़िया, तुम कहाँ रहती हो? तुम मुझे नहीं जानती हो?”

चिडिया, “मैं माँ को जानती हूँ, भाई को जानती हूँ, सूरज को और उसकी धूप को जानती हूँ। घास, पानी और फूलों को जानती हूँ। महामान्य, तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानती।”

माधवदास, “तुम भोली हो चिड़िया! तुमने मुझे नहीं जाना, तब तुमने कुछ नहीं जाना। मैं ही तो हूँ सेठ माधवदास। मेरे पास क्या नहीं है! जो माँगो, मैं वही दे सकता हूँ।”

चिड़िया, “पर मेरी तो छोटी सी जात है। आपके पास सब कुछ है। तब मुझे जाने दीजिए।”

माधवदास, “चिड़िया, तू निरी अनजान है। मुझे खुश करेगी तो तुझे मालामाल कर सकता हूँ।”

चिड़िया, “तुम सेठ हो। मैं नहीं जानती, सेठ क्या। होता है। पर सेठ कोई बड़ी बात होती होगी। मैं अनसमझ ठहरी। माँ मुझे बहुत प्यार करती है। वह मेरी राह देखती। होगी। मैं मालामाल होकर क्या होऊँगी, मैं नहीं जानती। मालामाल किसे कहते हैं? क्या मुझे वह तुम्हारा मालामाल होना चाहिए?”

सेठ, “अरी चिड़िया तुझे बुद्धि नहीं है। तू सोना नहीं जानती, सोना? उसी की जगत को तृष्णा है। वह सोना मेरे पास ढेर का ढेर है। तेरा घर समूचा सोने का होगा। ऐसा पिंजरा बनवाऊँगा कि कहीं दुनिया में न होगा, ऐसा कि तू देखती रह जाए। तू उसके भीतर थिरक-फुदककर मुझे खश करियो। तेरा भाग्य खुल जाएगा। तेरे पानी पीने की कटोरी भी सोने की होगी।”

चिड़िया, “वह सोना क्या चीज़ होती है?” सेठ, “तू क्या जानेगी, तू चिड़िया जो है। सोने का मूल्य सीखने के लिए तुझे बहुत सीखना है। बस, यह जान ले कि सेठ माधवदास तुझसे बात कर रहा है। जिससे मैं बात तक कर लेता हूँ उसकी किस्मत खुल जाती है। तू अभी जग का हाल नहीं जानती। मेरी कोठियों पर कोठियाँ हैं, बगीचों पर बगीचे हैं। दास-दासियों की संख्या नहीं है। पर तुझसे मेरा चित्त प्रसन्न हुआ है। ऐसा वरदान कब किसी को मिलता है? री चिड़िया! तू इस बात को समझती क्यों नहीं?”

चिड़िया, “सेठ, मैं नादान हूँ। मैं कुछ समझती नहीं। पर, मुझे देर हो रही है। माँ मेरी बाट देखती होगी।”

सेठ, “ठहर-ठहर, इस अपने पास के फूल को तूने देखा? यह एक है। ऐसे अनगिनती फूल हैं। ऐसे अनगिनती फूल मेरे बगीचों में हैं। वे भाँति-भाँति के रंग के हैं। तरह-तरह की उनकी खुशबू हैं। चिड़िया, तैंने मेरा चित्त प्रसन्न किया है और वे सब फूल तेरे लिए खिला करेंगे। वहाँ घोंसले में तेरी माँ है, पर माँ क्या है? इस बहार के सामने तेरी माँ क्या है? वहाँ तेरे घोंसले में कुछ भी तो नहीं है। तू अपने को नहीं देखती? कैसी सुंदर तेरी गरदन। कैसी रंगीन देह! तू अपने मूल्य को क्यों नहीं देखती? मैं तुझे सोने से मढ़कर तेरे मूल्य को चमका दूँगा। तैंने मेरे चित्त को प्रसन्न किया है। तू मत जा, यहीं रह।”

चिड़िया, “सेठ, मैं अपने को नहीं जानती। इतना जानती हूँ कि माँ मेरी माँ है और मुझे यहाँ देर हो रही है। सेठ, मुझे रात मत करो, रात में अँधेरा बहुत हो जाता है और मैं राह भूल जाऊँगी।”

सेठ ने कहा, “अच्छा, चिड़िया जाती हो तो जाओ। पर, इस बगीचे को अपना ही समझो। तुम बड़ी सुंदर हो।”

यह कहने के साथ ही सेठ ने एक बटन दबा दिया। उसके दबने से दूर कोठी के अंदर आवाज़ हुई जिसे सुनकर एक दास झटपट भागकर बाहर आया। यह सब छनभर में हो गया और चिड़िया कुछ भी नहीं समझी।

सेठ कहते रहे, “तुम अभी माँ के पास जाओ। माँ बाट देखती होगी। पर, कल आओगी न? कल आना, परसों आना, रोज़ आना।” यह कहते-कहते दास को सेठ ने इशारा कर दिया और वह चिड़िया को पकड़ने के जतन में चला।

सेठ कहते रहे, “सच तुम बड़ी सुंदर लगती हो! तुम्हारे भाई-बहिन हैं? कितने भाई-बहिन हैं?”

चिड़िया, “दो बहिन, एक भाई। पर मुझे देर हो रही है।”

“हाँ हाँ जाना। अभी तो उजेला है। दो बहन, एक भाई है? बड़ी अच्छी बात है।”

पर चिड़िया के मन के भीतर जाने क्यों चैन नहीं था। वह चौकन्नी हो-हो चारों ओर देखती थी।

उसने कहा, “सेठ मुझे देर हो रही है।” सेठ ने कहा, “देर अभी कहाँ? अभी उजेला है, मेरी प्यारी चिड़िया! तुम अपने घर का इतने और हाल सुनाओ। भय मत करो।”

चिड़िया ने कहा, “सेठ मुझे डर लगता है। माँ मेरी दूर है। रात हो जाएगी तो राह नहीं सूझेगी।”

इतने में चिड़िया को बोध हुआ कि जैसे एक कठोर स्पर्श उसके देह को छू गया। वह चीख देकर चिचियाई और एकदम उड़ी। नौकर के फैले हुए पंजे में वह आकर भी नहीं आ सकी। तब वह उड़ती हुई एक साँस में माँ के पास गई और माँ की गोद में गिरकर सुबकने लगी, “ओ माँ, ओ माँ!” चिड़िया की बच्ची माँ ने बच्ची को छाती से चिपटाकर पूछा, “क्या है मेरी बच्ची, क्या है?”

पर, बच्ची काँप-काँपकर माँ की छाती से और चिपक गई, बोली कुछ नहीं, बस सुबकती रही, “ओ माँ, ओ माँ!”

         बड़ी देर में उसे ढाढ़स बँधा और तब वह पलक मीच उस छाती में ही चिपककर सोई। जैसे अब पलक न खोलेगी।

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