मनीष आजाद
बचपन में मैंने कुएं में गिरी बाल्टियों को ‘झग्गड़’ से निकालते देखा है. इसे कुछ कुशल लोग ही निकाल पाते थे. इन्ही कुंओं में कभी-कभी गांव की बहू-बेटियां भी मुंह अंधेरे छलांग लगा देती थी. उन औरतों का शरीर तो निकाल लिया जाता था, लेकिन उनकी कहानियां वहीं दफ़न हो जाती थी. उन कहानियों को निकालने वाला वह झग्गड़ किसके पास है ?
‘लोक भारती’ से प्रकाशित सविता का कहानी संग्रह ‘हिस्टीरिया’ पढ़ते हुए मुझे उपरोक्त बिम्ब लगातार याद आता रहा. सविता ने बहुत ही कुशल तरीके से इन कहानियों को अपने जीवन अनुभव के ‘झग्गड़’ से निकाला है, अपनी गहन संवेदना से उन कहानियों को हमारे लिये ज़िन्दा किया है. ‘हिस्टीरिया’ कहानी की एक बानगी देखिये –
‘हां, हम बदमाश हई, न जाब…’ अर्चना बोलते-बोलते विकराल होने लगी. उसका शरीर ऐंठने लगा और मुंह से फुंफकार के साथ झाग निकलने लगा.
उसकी आवाज पूरे गांव में गूंज रही थी. ठकुरान, बभनौटी, चमरौटी-सबमें. ताल-तलैया हिल गए. शादी के सगुन वाला आंगन का बांस कांपने लगा. सुरसत्ती देई, अनारा देई, सहित पुरखों की आत्मा चिहुक गई. वे कांपने लगीं. आंचर से चाउर झर गया. पूरे परिवार में साहस नहीं था कि कोई कुछ बोलता. ससुर साहब वापस लौट गए.’
इस हिस्से से आप कहानीकार के तेवर को समझ सकते हैं. अर्चना की फुंफकार से मानो पितृसत्ता की चूलें हिलने लगी हो. सविता ने औरतों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी तरफ से कुछ ज्यादा कहने की बजाय उन्हें लोकगीतों के माध्यम से बेहतरीन अभिव्यक्ति दी है. इन लोकगीतों ने न सिर्फ कहानियों की जड़ों को और गहराई दी है, बल्कि औरतों की भावनाओं को मुक्त उड़ान भी दी है.
‘अरजा तुम्हारी कौन है !’ इस संग्रह की एक अन्य महत्वपूर्ण कहानी है. इसमें सविता ने एक लोककथा का इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ औरतों की दमन और प्रतिरोध की आदिम कथा कही है, बल्कि पूरे समाज के दमन और प्रतिरोध को उसके साथ बहुत कुशलता से नत्थी कर दिया है. एक बानगी देखिये –
‘दूर कहीं पिता की चीख उसके कानों में हल्के से गूंज रही थी- ‘जो इस समय तुम्हारे आस पास होगा, वह जीवित रहेगा, नहीं तो लम्पट राजा के साथ सब कुछ भस्म हो जायेगा.’ …’वनजा अरजा की बेटी ने साहस करके वही प्राचीन प्रश्न दुहरा दिया था कि हमने आपका चुनाव नहीं किया, आप यहां के राजा कैसे बन गए ?’
‘नीम के आंसू’, ‘भोज’ और ‘जुड़हिया पीपल के तले जला दिल’ एक अलग ही अंदाज में बिना बहुत मुखर हुए ब्राह्मणवादी संस्कृति की क्रूर पड़ताल करती हैं और बखूबी यह स्थापित करती हैं कि इसका सबसे ज्यादा शिकार औरतें ही है. सविता के ही शब्दों में- ‘आह, क्रूरता का नंगा नाच’.
इन कहानियों से गुजरते हुए मुझे ‘सूरज येन्गड़े’ की पंक्ति याद आती रही- ‘cultural suicide bomber’ यानी खुद जलकर अपनी उस संस्कृति को भस्म कर देना जो अपने मूल में प्रतिक्रियावादी है. ये तीनों कहानियां ऐसी ही कहानियां हैं.
‘प्रतिस्मृति-जैसे माई, वैइसे धीया’ बहुत बेचैन कर देने वाली कहानी है. यह छोटे दुलारे भाई के मर्द बन जाने की दास्तान है. औरतों को संपत्ति में अधिकार कानूनन तो मिल गया. लेकिन भाई मर्द बनकर इस संपत्ति पर फन काढ़ कर बैठ जाता है. एक बानगी देखिये –
‘उसने उसी गुस्से में भाई को फोन किया. इस उम्मीद में कि वह शर्मिंदा होगा…लेकिन फोन पर तो कोई और था. फोन पर एक ताकतवर मर्द था-बहुत ताकतवर.
सविता का अनुभव संसार काफी विविध है जो इस संग्रह की कहानियों में बखूबी दिखता है. ‘बॉडी लैंग्वेज’ एक अलग तरह की कहानी है. इस कहानी को पढ़कर मुझे मृणाल सेन की फिल्म ‘इंटरव्यू’ याद आ गयी. दोनों ने ही अपने-अपने तरीके से इस पूंजीवादी समाज के खोखलेपन को सामने रखा है. कहानी की यह पंक्ति देखिये-
‘वह कभी-कभी सिर झटकता, यह जानने के लिए कि कहीं वह खुद भी प्लास्टिक का तो नहीं ?’
‘तलाश’ भीतर तक भर देने वाली कहानी है. हम अपने प्यार को बचाये क्यों नहीं रख पाते ? रोज-रोज जीने का संघर्ष इस प्यार पर भारी क्यों पड़ने लगता है ? इस विडम्बना को कहानीकार ने बहुत अर्थपूर्ण तरीके से बयां किया है –
‘दिन में आदमी नाग बन जाता है तो नागिन औरत बन जाती है. और जब रात को औरत नागिन बनती है तो नाग आदमी बन जाता है. एकदम से जुदा दो अलग अकार-प्रकार के जन्तु, जिनको एक संग साथ नसीब नहीं है.’
कहानी का अंत झकझोर देता है-
‘त्रिशा और वरुण खुद को शापित नाग-नागिन की तरह महसूस नहीं करते थे. उन्हें तो कब का ऐनाकोंडा खा चुका था’. यह एनाकोंडा कौन है और कब सरक कर हमारे समीप आ बैठा है ? कहीं ये सभ्यता का एनाकोंडा तो नहीं ?
‘बेसदा कोई नहीं’ बहुत ही प्यारी कहानी है. इस कहानी के बारे में क्या कहूं. इस वाक्य का कोई मतलब तो नहीं है, लेकिन पढ़ने के बाद दिल से यही निकला कि यह कहानी वही लिख सकता है जो दिल का साफ हो.
‘अकेले ही’ कहानी भी हमें उस दुनिया से परिचित कराती है, जिसे बनाने में लड़कियां आज अपनी पूरी जान लगा रही हैं. यह कहानी दूसरे स्तर पर शिद्दत से अनुराधा बेनीवाल की किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ की याद दिलाती है.
इस कहानी संग्रह को खत्म करते ही आप सविता द्वारा रचे गये दुनिया के नागरिक हो जाते हैं लेकिन नागरिकों के अपने कर्तव्य भी तो होते हैं. और यह कर्तव्य गोरख पांडे की इस बहुचर्चित पंक्ति के अलावा और क्या हो सकती है –
‘ये आंखें हैं तुम्हारी
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये’.