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कहानी – हीरों का हार

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(फ्रांसीसी साहित्यकार ‘मोपासां’ की सर्जना का हिंदी रूपांतर)

           *~ दिव्यांशी मिश्रा*

        _वह उन खूबसूरत और आकर्षक युवतियों में से थीं, जो दुर्भाग्य से कभी-कभी किसी क्लर्क के परिवार में जन्म ले लेती हैं। उसके पास न दहेज था, न आशाएँ थीं, न साधन थे कि कोई उसे समझ सके, सराह सके, प्रेम कर सके, कि किसी अमीर अथवा प्रतिष्ठित व्यक्ति से उसकी शादी हो; लिहाजा उसकी शादी सार्वजनिक निर्देश के मंत्रालय के दफ्तर के एक अदने क्लर्क से कर दी गई थी।_

      वह साधारण सी पोशाक में रहती, क्योंकि वह अच्छी पोशाक खरीद नहीं सकती थी। वह स्वयं को उपयुक्त स्थान से नीचे पाकर व्यथित थी। क्योंकि महिलाओं की कोई जाति होती नहीं है और न ही कोई श्रेणी; परिवार और जन्म के बजाय उनकी सुंदरता, शालीनता और उनका आकर्षण ही काम करते हैं। उनका स्वाभाविक लालित्य, जन्मजात चतुराई और सहज समझ उनकी एकमात्र कुलीनता है, जो साधारणजन की बेटियों को महान् महिलाओं के बराबर का दर्जा दिलाती है।

         वह हमेशा दुखी रहती, क्योंकि वह महसूस करती थी कि उसका जन्म हर प्रकार की सुख-सुविधाओं और विलासिताओं को भोगने के लिए हुआ है। वह अपने अपार्टमेंट की दुर्दशा, जर्जर दीवारों, टूटी-फूटी कुरसियों और पुराने-गंदे परदों से बेहद दुखी थी। वे सब चीजें, जिन पर उस जैसी हैसियत रखनेवाली किसी अन्य महिला का ध्यान तक नहीं जाता, उसे यातना देतीं, उसे क्रोधित करती थीं। उस नाटे अंग्रेज मजदूर पर नजर पड़ते ही, जो उसके घर काम करता था, उसके भीतर वितृष्णा का भाव उत्पन्न होता और विचलित करने वाले निराशाजनक सपने आने लगते। वह ओरिएंटल परदों से सुसज्जित, काँसे की ऊँची मशालों से प्रज्वलित शांत एंटीचैंबर्स के बारे में सोचती और दो वर्दीधारी विशालकाय सेवकों के बारे में, जो बड़ी सी आराम कुरसी पर, हीटर की गरम हवा में आराम से सोते हैं। वह प्राचीन सिल्क की लटकनों से सजे बड़े ड्राइंग-रूमों के बारे में, सुंदर-सजीले फर्नीचर और उन पर रखी बहुमूल्य कलाकृतियों के बारे तथा स्त्रियों के निजी कक्षों के बारे में सोचती, जिन्हें अंतरंग दोस्तों और प्रख्यात एवं लोकप्रिय पुरुषों के साथ देर रात गप-शप के लिए बनाया गया था, जिनसे सभी महिलाएँ ईर्ष्या करती हैं और जिनका ध्यान वे सभी अपनी ओर आकर्षित करना चाहती थीं।

जब वह रात्रि-भोजन के लिए अपने पति के साथ पुराने, गंदे कवर वाली गोल मेज पर बैठती, और जब उसका पति डोंगे का ढक्कन खोलते हुए खुशबू का आनंद लेते हुए जादुई आवाज में कहता, “ओह! गोश्त की बोटी बहुत अच्छी है, बेहतरीन!” और वह सुरुचिपूर्ण स्वादिष्ट डिनर के बारे में, चाँदी की चमचमाती कटलरी और दीवार पर लगी प्राचीन महान् विभूतियों के पोट्रेट तथा वन में विचरित करते दुर्लभ पक्षियों को दरशाती टेपेस्टेरी के बारे में सोचती; वह अद्भुत प्लेटों में परोसे लजीज व्यंजनों के बारे में और ट्राउट मछली के गुलाबी मांस या मुर्गे के पंखों को खाते हुए रहस्यमय मुसकान ओढ़े दबी जुबान से सुनाए जाते शौर्य के किस्सों के बारे में सोचती।

         उसके पास न ढंग की पोशाक थी और न ही गहने, कुछ नहीं था! पर उसे किसी और से नहीं, बस उन्हीं चीजों से प्रेम था। उसे लगता था, वह उनके लिए ही बनी है। वह खुश रहना चाहती थी, वह चाहती थी कि वह अच्छी दिखाई दे, ईर्ष्या की पात्र बने, लोग उसे चाहें और उससे प्रणय निवेदन करें।

उसकी एक अमीर दोस्त थी, कॉन्वेंट स्कूल की सहपाठी, वह संपन्न थी, एक ऐसी महिला, जिसके घर जाना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि जब भी वह उसके घर से लौटती, उसे बहुत पीड़ा होती।

एक शाम उसका पति उत्साह से भरपूर, अपने हाथ में एक बड़ा सा लिफाफा लेकर घर आया।

उसने कहा, “देखो, तुम्हारे लिए कुछ है।”

उसने जल्दी से रैपर खोला, अंदर एक प्रिंटेड कार्ड था। उस पर लिखा था, “सार्वजनिक निर्देश विभाग के मंत्री और मैडम जॉर्ज रंपोन्नेउ अपने आवास पर १८ जनवरी, सोमवार शाम को आयोजित समारोह में श्रीमान और श्रीमती लोइसेल को सम्मानपूर्वक आमंत्रित करते हैं।”

बजाय खुश होने के, अपने पति को उम्मीद के विपरीत उसने तिरस्कार से आमंत्रण को मेज पर फेंक दिया और बड़बड़ाई, “तुम मुझसे क्या चाहते हो?”

          “मैंने सोचा तुम खुश होगी। तुम कभी बाहर जाती नहीं हो। और यह एक अच्छा मौका है। बड़ी मुश्किल से मैंने इस आमंत्रण-पत्र को हासिल किया है—कुछ लोगों को ही मिल पाया है, उनमें एक खुशनसीब मैं भी हूँ। सारे अफसर वहाँ होंगे।”

उसने खीजकर उसकी तरफ देखा और अधीरता से कहा, “तुम्हें क्या लगता है कि मैं इस तरह की पोशाक में वहाँ जाऊँगी?”

उसने इस बारे में नहीं सोचा था; वह हकलाया, “क्यों, जो पोशाक तुम थिएटर पहनकर जाती हो, वह मुझे बहुत अच्छी लगती है।”

अपनी पत्नी को रोते हुए देखकर वह हताश और हैरान था। उसकी आँखों के कोर से दो बेशकीमती आँसू उसके मुँह के किनारों पर लुढ़के। वह हकलाते हुए बोला, “क्या बात है? क्या बात है डियर?”

अपने गहरे विषाद पर त्वरित गति से काबू पाते हुए, अपने गीले गालों को पोंछते हुए, उसने शांत स्वर में कहा, “कुछ नहीं। बस मेरे पास कोई ढंग की पोशाक नहीं है, इसलिए मैं उस समारोह में नहीं जा सकती। यह आमंत्रण तुम अपने किसी साथी को दे दो, जिसकी पत्नी के पास पहनने के लिए अच्छी पोशाक हो।”

उसे निराशा हुई, उसने कहा, “माथिल्डे! अच्छा हम देखते हैं, एक ठीक सी पोशाक कितने में आती है, जो दूसरे मौकों पर भी काम आ जाए, साधारण सी?”

          कुछ देर तक वह विचार करती रही, उस राशि में बारे अनुमान लगाती रही, जिसे सुनकर उसका मितव्ययी पति घबराकर तुरंत इनकार न कर दे।

आखिकार, उसने झिझकते हुए कहा, “वैसे, ठीक-ठीक तो मैं नहीं बता सकती, लेकिन मुझे लगता है कि चार सौ फ्रैंक में काम हो जाना चाहिए।”

उसका चेहरा थोड़ा पीला पड़ गया। क्योंकि करीब इतनी ही राशि उसने बंदूक खरीदने के लिए बचाकर अलग रखी थी, ताकि वह अगली गरमियों में नंतेर्रे के मैदान में दोस्तों के साथ शिकार-पार्टी में शामिल हो सके, जहाँ वे रविवार को लार्क पक्षियों का शिकार करने जाते थे। लेकिन उसने कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें चार सौ फ्रैंक दूँगा। तुम एक बढ़िया पोशाक खरीद लेना।”

बॉल-डांस का दिन करीब आ रहा था और श्रीमती लोइसेल उदास, चिंतित और बेचैन लग रही थी। हालाँकि उसकी पोशाक तैयार थी। एक शाम उसके पति ने उससे कहा, “क्या बात है, पिछले तीन दिन से तुम काफी परेशान लग रही हो?”

उसने तुरंत जवाब दिया, “मेरे पास पहनने के लिए न कोई आभूषण है, और न ही कोई कीमती स्टोन। मैं वहाँ बिल्कुल दरिद्र लगूँगी। अच्छा यही रहेगा कि मैं वहाँ नहीं जाऊँ।”

उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “तुम कुदरती फूल पहन सकती हो। इस मौसम में उनका उपयोग फेशनेबल लगेगा। दस फ्रैंक में दो या तीन शानदार गुलाब आ जाएँगे।”

वह संतुष्ट नहीं हुई।

“नहीं, उन अमीर महिलाओं के बीच गरीब दिखने से अधिक अपमानजनक कुछ भी नहीं है।”

          अकस्मात् उसका पति चिल्लाया, “तुम कितनी मूर्ख हो! अरे, तुम अपनी दोस्त श्रीमती फारेस्टियर के पास जाओ और उससे कुछ गहने उधार ले लो। तुम उसकी अच्छी दोस्त हो, वह तुम्हें कभी मना नहीं करेगी।”

वह खुशी के मारे चीख उठी, “यह सही है। मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं।”

अगले दिन वह अपने दोस्त के घर गई और अपनी व्यथा सुनाई। श्रीमती फारेस्टियर ने काँच के पलड़ों वाली अलमारी खोली, वह उसमें से गहनों का एक बक्सा निकाल लाईं, उसे खोला और श्रीमती लोइसेल से कहा, “डियर, इनमें से पसंद कर लो।”

उसने सभी गहने देखे, पहले कुछ कंगन, फिर मोतियों का हार, फिर वेनिस का क्रॉस, बढ़िया कारीगरी के कीमती स्टोन। उसने उन्हें आईने के सामने पहनकर देखा, हिचकिचाई, कोई अंतिम फैसला नहीं कर पाई। बस पूछती रही, “तुम्हारे पास और गहनें हैं क्या?”

“हाँ हैं, इन्हें देखो। मैं तुम्हारी पसंद के बारे में नहीं जानती हूँ।”

अचानक उसे एक काले रंग के साटन के बॉक्स में, हीरों का एक शानदार हार दिखाई दिया, और उसका दिल एक उत्कंठ कामना के साथ तेजी से धड़कने लगा। जब उसने उसे उठाया, उसके हाथ काँप रहे थे। उसने उसे अपनी हाई-नेक की पोशाक के ऊपर गले पर बाँध दिया। और आईने में स्वयं को देखकर हर्षोन्माद से अभिभूत हो गई।

फिर उसने हिचकिचाते हुए पूछा, उसका स्वर वेदना से भीगा हुआ था, “क्या तुम मुझे यह उधार दे सकती हो, सिर्फ यह?”

“क्यों नहीं, निश्चित रूप से।”

वह अपनी दोस्त की गरदन पर झूल गई, उसे भावुकता के साथ चूमा, फिर अपनी अमूल्य निधि के साथ चली आई।

          आखिकार बॉल-डांस का दिन आया। वहाँ उपस्थित सभी महिलाओं के बीच श्रीमती लोइसेल शालीन, रमणीय, मुसकराती, खुशी से पागल, सबसे सुंदर लग रही थी। सभी पुरुष उसकी ओर आकर्षित थे, उसका नाम पूछ रहे थे, उसकी निकटता पाना चाह रहे थे। कैबिनेट के सभी सहचारी उसके साथ वाल्ट्ज डांस करना चाहते थे। यहाँ तक कि मंत्री महोदय का ध्यान भी उसकी ओर गया था।

वह खुशी के नशे में चूर पूरे उत्साह और जुनून के साथ नाची, सब कुछ भूलते हुए, अपनी खूबसूरती के विजयोल्लास में, अपनी सफलता की प्रतिष्ठा में, एक प्रकार के परमानंद के घटाटोप में जिसकी संरचना इस समस्त आदरभाव से, इस ढेर सारी प्रशंसा से, इस समस्त जाग्रत् कामनाओं और उस संपूर्ण विजय-भाव से हुई थी, जो महिला के दिल को बहुत प्यारा है।

वह सुबह चार बजे बाहर आई। उसका पति आधी रात से तीन और सज्जनों के साथ, जिनकी पत्नियाँ भी बॉल-डांस का आनंद ले रही थीं, एक छोटे से सुनसान गलियारे में सो रहा था।

उसने उसके कंधों पर शॉल रख दी, जिसे वह साथ लाया था, एक साधारण शॉल, जिसकी दरिद्रता उस बॉल-ड्रेस के ठीक विपरीत थी। उसने इस बात को महसूस किया, वह इससे बचना चाहती थी, ताकि दूसरी अमीर महिलाओं का ध्यान उसकी ओर न जाए, जिन्होंने फर की महँगी शॉल ओढ़ी हुई थी।

लोइसेल ने उसे रोक लिया।

“थोड़ा इंतजार करो। तुम्हें बाहर ठंड लग जाएगी। मैं जाकर कैब ले आता हूँ।”

लेकिन उसने नहीं सुना, और तेजी से सीढ़ियाँ उतर गई। जब वे सड़क पर आए, वहाँ कोई वाहन नहीं था; वे वहाँ खड़े, हर दूर से गुजरते हुए कोचवान को आवाज देते रहे।

          आखिकार वे पैदल-पैदल सीन नदी की ओर बढ़े, हताश और ठंड में ठिठुरते हुए। घाट के पास उन्हें एक रात में चलने वाली पुरानी खटारा बग्गी मिली, वैसी बग्गियाँ पेरिस में आधी रात के बाद ही दिखाई देती हैं। उसने उन्हें शहीदों के चौक तक छोड़ दिया। वे फिर वैसी ही उदासी ओढ़े अपने अपार्टमेंट की सीढ़ियाँ चढ़े। श्रीमती लोइसेल के लिए सबकुछ समाप्त हो चुका था। लेकिन उसके लिए, वह विचार कर रहा था, उसे १० बजे मंत्रालय पहुँच जाना है।

उसने आईने से सामने खड़े होकर शॉल हटाई, जिसने उसके कंधों को ढक रखा था, ताकि वह अपनी सजधज को, अपने वैभव को फिर से निहार सके। लेकिन यकायक उसके मुँह से एक चीख निकली। उसके गले में हार नहीं था।

उसके पति ने, जो अपने कपड़े बदल रहा था, उससे पूछा, “क्या बात है?”

वह पागल सी उसकी ओर बढ़ी, “मैंने–मैंने मिसेज फारेस्टियर का हार खो दिया है।”

        वह व्यग्रता के साथ खड़ा हो गया।

“क्या…कैसे, यह संभव नहीं है!”

फिर उन्होंने उसकी पोशाक की तहों में, शॉल की तहों में, उसकी जेबों में, हर जगह ढूँढ़ा। हार कहीं नहीं मिला।

उसने कहा, “तुम्हें यकीन है, जब तुमने बॉल-रूम छोड़ा, वह तुम्हारे पास था?”

“हाँ, बँगले से निकलते समय मुझे उसके होने का अहसास था।”

“लेकिन, अगर वह सड़क पर गिरता तो उसकी आवाज तुम्हें सुनाई देती, वह बग्गी में होना चाहिए।”

“हाँ, हो सकता है। क्या तुमने उसका नंबर नोट किया था?”

“नहीं।”

“क्या तुमने उस पर ध्यान दिया था?”

“नहीं।”

वे हक्के-बक्के से एक-दूसरे को देख रहे थे। आखिकार लोइसेल ने अपने कपड़े पहने।

         उसने कहा, “मैं पैदल वापस जाऊँगा, उस पूरे रास्ते पर, जहाँ से होकर हम आए थे, शायद हार मिल जाए।”

और वह बाहर चला गया। वह बॉल ड्रेस में ही कुरसी पर बैठी इंतजार करती रही, बिना किसी उत्साह के, विचारशून्य, बिस्तर पर जाने की उसमें शक्ति नहीं बची थी।

सात बजे के करीब उसका पति लौट आया। उसे कुछ नहीं मिला था।

वह पुलिस मुख्यालयों, अखबारों के दफ्तरों में गया, पुरस्कार देने की ऑफर दिया; वह कैब के ऑफिस भी गया, हर उस जगह, जहाँ उसे उसके थोड़ी सी भी आशा की किरण नजर आई।

        वह दिन भर इस भयावह आपदा के सामने बेसुध हालत में इंतजार करती रही। लॉयलस लटका हुआ चेहरा लिये शाम को घर आया। उसे हार नहीं मिला था। उसने कहा, “तुम अपनी दोस्त को एक पत्र लिखो कि तुम्हारे हाथ से उस हार का बकल टूट गया है, उसे ठीक करवाना होगा। इससे हमें कुछ समय मिल जाएगा।” उसने उसके कहने पर दोस्त को पत्र लिखा।

एक सप्ताह बीत जाने के बाद उन्होंने हार मिलने की आशा छोड़ दी।

लोइसेल, जो इन दिनों में पाँच साल अधिक बूढा हो गया था, ने श्रीमती लोइसेल से कहा, “अब हमारे लिए उस हार की कीमत मालूम करना अत्यंत आवश्यक है।”

अगले दिन वे उस जोहरी के पास गए, जिस हार के बक्से पर उसका नाम लिखा था। उसने अपने बही-खाते टटोले।

“मैडम, उस हार को मैंने नहीं बेचा था। मैंने तो केवल यह बक्सा दिया था।”

फिर वे अपनी याददाश्त के सहारे उसी प्रकार के हार की तलाश में एक जौहरी से दूसरे जौहरी के पास गए। खीज और वेदना ने उन दोनों को घेर लिया था।

        पैलेस-रॉयल पर एक दुकान में उन्हें एक वैसा ही हार दिखाई दिया, जिसकी उन्हें तलाश थी। उस हार की कीमत चालीस हजार फ्रैंक थी। लेकिन वह उन्हें छत्तीस हजार में मिल सकता था।

उन्होंने जौहरी से उस हीरे के हार को तीन दिन तक नहीं बेचने की गुजारिश की। उनकी यह शर्त भी जौहरी मान गया कि अगर फरवरी के अंत तक उन्हें खोया हुआ हार मिल जाता है, तो वह इस हार को चौंतीस हजार फ्रैंक में वापस ले लेगा।

         लोइसेल के पास अठारह हजार फ्रैंक थे, जो उसके पिता उसके लिए छोड़ गए थे। उसने सोचा बाकी रकम के लिए कर्ज ले लेगा। उसने कर्ज लिया, एक से एक हजार फ्रैंक, दूसरे के पाँच सौ, किसी से पाँच लुइस और किसी से तीन लुइस। उसने वचन-पत्र लिखकर दिए, पूरे न हो सकने वाले वादे किए, सूदखोरों और भिन्न-भिन्न प्रकार के ऋणदाताओं के चक्कर लगाए। उसने अपना बचा हुआ समूचा जीवन दाँव पर लगा दिया, बरबाद कर देने वाले जोखिम भरे इकरारनामों पर बिना समझे-पढ़े दस्तखत किए। आने वाली विपत्तियों, भौतिक असुविधाओं और सभी मानसिक यातनाओं की संभावनाओं से भयभीत उसने जौहरी के काउंटर पर छत्तीस हजार फ्रैंक रखे और नया हीरों का हार खरीद लिया।

जब श्रीमती लोइसेल ने हार लौटाया, श्रीमती फॉरेस्टियर ने उससे सख्त लहजे में कहा, “तुम्हें उसे जल्दी ही लौटाना चाहिए था। मुझे उसकी आवश्यकता पड़ सकती थी।”

उसने बक्से को नहीं खोला, क्योंकि वह बहुत डर गई थी। अगर उसे हार बदलने का पता लग जाता, वह क्या सोचती, वह क्या कहती? क्या वह श्रीमती लोइसेल को चोर नहीं समझ लेती?

       श्रीमती लोइसेल अब एक गरीब के भयावह जीवन को जानती थी। हालाँकि उसने अपनी बदली हुई भूमिका बहुत ही साहस के साथ निभाई। वह भारी कर्ज किसी भी हाल में चुकाना आवश्यक था। वह अवश्य चुकाएगी। उन्होंने नौकर को निकाल दिया, अपना अपार्टमेंट बदल दिया; एक कमरा किराए पर ले लिया।

उसे अहसास हुआ कि घर की साफ-सफाई, देखभाल और रसोईघर के काम का क्या मतलब होता है। वह प्लेटें और चिकने बरतन अपने गुलाबी नाखूनों से साफ करती, वह मैले कपड़े धोती, उन्हें कतार में सुखाने डालती; वह सुबह-सुबह कचरे का बैग लेकर नीचे गली में जाती, बीच-बीच में रुककर साँस लेती हुई। और एक आम गृहिणी की तरह अपनी बाँह में टोकरी लटकाए वह किराने का सामान, फल-सब्जी, गोश्त वगैरह खरीदती, उनसे सौदेबाजी करती, अपमानित होती, एक-एक पैसा बचाने की कोशिश करती।

हर महीने उन्हें कुछ वचन-पत्रों का भुगतान करना होता और कुछ का नवनीकरण कर और समय माँगना पड़ता था।

उसके पति ने शाम के समय व्यापारियों के खातों की नकल करने का काम शुरू कर दिया, वह घर पर भी देर रात काम करता, उसे एक पेज की नकल के पाँच सूस मिलते।

यह जीवन-क्रम दस वर्षों तक चला। दस वर्षों में उन्होंने सारा कर्ज संचित चक्रवृद्धि ब्याज समेत चुकता कर दिया।

       श्रीमती लोइसेल अब बूढ़ी दिखाई देने लगी थी। वह एक निर्धन घर-परिवार वाली स्त्री बन गई थी—मजबूत, कठोर और रूखी। बिखरे बालों, तिरछे स्कर्ट और लाल हाथों से पानी की सरसराहट की साथ फर्श साफ करती हुई, वह ऊँची आवाज में बात करती। लेकिन कभी-कभी, जब उसका पति दफ्तर में होता, वह खिड़की के पास बैठ जाती और बहुत पहले की उस शाम को, उस बॉल-डांस के उन पलों को याद करती, वह कितनी सुंदर, कितनी सम्मानित, कितनी उत्साहित थी!

अगर वह उस हार को नहीं खोती तो क्या होता? कौन जानता है? कौन जानता है? जीवन कितना विलक्षण और परिवर्तनशील है! हमारे तबाह होने या बचने के लिए बस एक छोटी सी वस्तु काफी होती है!

        एक रविवार, जब वह सप्ताह भर के घरेलू कामों की व्यस्तता के बाद तरोताजा होने के लिए टहलती हुई चैंप्स-एलिसीस गई, वहाँ अचानक उसकी नजर पर एक महिला पर पड़ी, वह एक बच्चे की उँगली पकड़े घूम रही थी। वह श्रीमती फारेस्टियर थी, अब भी युवा, अब भी सुंदर, अब भी आकर्षक। श्रीमती लोइसेल ने स्वयं को विचलित महसूस किया। क्या उसे उससे बात करनी चाहिए? हाँ, क्यों नहीं? और अब जब उसने उसका वैसा ही हार खरीदकर दे दिया था, वह उसे सबकुछ बताएगी। क्यों नहीं बताए? वह उसके पास पहुँची।

“गुड मॉर्निंग, जीन!”

        उसकी दोस्त, एक साधारण सी महिला के आत्मीय संबोधन से चकित थी, बिल्कुल नहीं पहचान पाई और हकलाते हुए बोली, “लेकिन मैडम, मैं तुम्हें नहीं जानती हूँ, तुम्हें शायद कोई गलतफहमी हुई है।”

“जीन, मैं माथिल्डे लोइसेल हूँ।”

उसकी दोस्त ने हैरानी से कहा, “ओह! मेरी प्यारी माथिल्डे! तुम कितनी बदल गई हो?”

        “हाँ, जब मैं तुम्हें हार लौटाने आई थी, उसके बाद मेरे दिन काफी कठिनाई में बीते, बहुत ही मनहूस दिन और वह सब तुम्हारी वजह से हुआ!”

“मेरी वजह से? भला वह कैसे?”

“तुम्हें वह हीरों का हार याद है, जो तुमने मुझे मंत्रालय की बॉल-डांस पार्टी पर पहनने के लिए दिया था?”

“हाँ, बहुत अच्छी तरह से।”

“हाँ तो, मैंने उसे खो दिया था।”

“तुम क्या कहना चाहती हो? उसे तो तुमने लौटा दिया था।”

        “मैंने तुम्हें वैसा ही हार कर्ज की रकम से खरीदकर लौटाया था। और कर्ज चुकाने में हमें दस साल का समय लग गया। तुम समझ सकती हो, यह सब हमारे लिए आसान नहीं था, हमारे लिए जिनके पास कुछ नहीं था। आखिरकार सारा कर्ज चुकता हो गया है, अब मैं खुश हूँ।”

मैडम फारेस्टियर चलते-चलते रुक गई। उसने कहा, “तुम कह रही हो कि तुमने मेरे उस हार के बदले एक हीरों का हार खरीदा था?”

“हाँ, उस समय, तुम्हारा इस पर ध्यान नहीं गया। दोनों बिल्कुल एक जैसे थे।”

और वह खुशी से मुसकराई, जिसमें गर्व भी था, साथ ही निष्कपटता भी।

   _मैडम फारेस्टियर भीतर तक द्रवित हो गई, उसने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये, “ओह! मेरी भोली-भाली माथिल्डे! मेरा वह हार नकली था। उसकी कीमत अधिक-से-अधिक पाँच सौ फ्रैंक होगी।”_

   (चेतना विकास मिशन)

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