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आम अवाम की कहानी की बात 

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              पुष्पा गुप्ता 

हर आदमी के पास अपनी ख़ुद की ही न जाने कितनी कहानियाँ होती हैं । उसके शरीर और उसकी आत्मा के हर दाग़-धब्बे के पीछे कोई न कोई कहानी होती है !

      हम सभी के पास अपनी ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ हैं जब हमने चतुराई और तुच्छता की है, ओछापन और हल्कापन दिखाया है, किसी को धोखा दिया है और धोखे खाये हैं, स्वार्थ भरे सपने देखे हैं और सपनों का सौदा किया है, अंदर-बाहर की कई-एक लड़ाइयों से नज़र बचाकर निकल गये हैं, झूठ बोल कर या डींगें हाँककर लोगों पर रुआब जमाया है, किसी निजी प्रतिशोध को आदर्शों की लड़ाई या प्रतिबद्धता का तकाज़ा घोषित कर दिया है … वगैरह-वगैरह! ऐसी तमाम कहानियों के मुख्य पात्र कभी न कभी, बहुत सज्जन माने जाने वाले लोग भी ज़रूर होते हैं!

अक्सर हमारे साथ जो बुरा होता है, कोई हमारे साथ धोखा या विश्वासघात करता है; तो ऐसी बातें हम दुनिया को बताते नहीं थकते। मात्र इतने कथातत्व से — जिसमें एक सपाट चेहरे वाला खलनायक और दूसरा उसका शिकार एक “भोले” चेहरे वाला ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी अंतरात्मा भी उतनी ही “भोली” होती है; कोई कहानी नहीं बन पाती। इस सपाट एकरेखीय व्यंजना से, इस ‘मेटाफ़िज़िकल अप्रोच’ और ट्रीटमेंट से कोई कहानी बन ही नहीं सकती।

 दरअसल जब हम अपने दुखों को, अपने साथ हुए किसी छल या अन्याय को, उससे पैदा हुई ‘निज मन की बिथा’ को जग में गाते फिरते हैं तो क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा मनोगत और ‘मिथ्या चेतना’ से ग्रस्त होते चले जाते हैं । ठीक यही उससमय भी होता है जब हम अपनी उपलब्धियों, योग्यताओं, सफलताओं और अपने द्वारा किसी व्यक्ति या समाज पर किए गये “उपकारों” को दुनिया को बताते रहने के लिए आतुर रहने लगते हैं! ऐसे लोगों के मन में ऐसी किसी भी घटना से कहानी नहीं पैदा हो सकती जिसके वे स्वयं पात्र रहे हैं!

       झूठ, तुच्छता-क्षुद्रता और आत्मग्रस्तता का, और साथ ही आत्ममहिमामंडन की प्रवृत्ति का, सृजनात्मकता से हमेशा असमाधेय बैर रहता है! कई बार एक योग्य और सापेक्षत: सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति, एक भला-भला सा इंसान होते हुए भी हम आत्मग्रस्त और तुच्छ-क्षुद्र होते चले जाते हैं और इसतरह अपना रचनात्मक पोटेंशियल खोते चले जाते हैं।

  सूखी आँखों और सूखे दिल वाले वे लोग जो विद्वान होते हैं और इतने नाट्यकुशल होते हैं कि भावप्रवण और सहृदय दिखने के लिए आँसू भी बहा लेते हैं, वे फेसबुक पर कविता-कहानी चाहे जितना चेंप लें और पत्र-पत्रिकाओं में चाहे छपकर चर्चित भी हो जायें, उनके मानस में वह मनीषा किराये पर भी रहने के लिए नहीं आ सकती कि वे एक सच्चे सर्जक — एक सृजन-मनीषी बन सकते हों । वह मनीषा सहृदयता की सहोदरा होती है और हमेशा उसके साथ ही लगी रहती है।

अगर आप अपने प्रति वस्तुपरक हो सकते हों, अगर आप ‘लाइमलाइट मेंटैलिटी’ से, सहानुभूति या प्रशंसा या मान्यता की तुच्छ आकांक्षाओं से छुटकारा पा सकते हों और किसी भी प्रकार के सृजन को ही अपने आनंद और आत्मिक संतुष्टि का साधन और साध्य बना सकते हों, तो आपको अपने आसपास के जीवन में बिखरी ढेरों कहानियाँ नज़र आने लगेंगी। ज़िन्दगी के अनवरत जारी महानाटक के सभी रंगों के अवगाहन और आनंदानूभूति और सौंदर्यात्मक आस्वाद के लिए, और इस प्रक्रिया से गुजर कर सृजनात्मक क्षमता हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि  क्षुद्र स्वार्थों और निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए, “सफल” आदमी बनने के लिए, ख़ुद ड्रामा करना और स्वाँग रचना बंद कर दिया जाये! 

      इस ओछी ड्रामेबाजी में कोई आनंद भी नहीं है, यह बस एक आदत बन जाती है, या फिर यह ‘मिथ्या चेतना’ है जो हमें उदात्त और सृजनशील नहीं होने देती!

स्वयं अपने प्रति वस्तुपरक होने का अद्भुत और विरल साहस, मिसाल के तौर पर, हमें तोल्स्तोय और दोस्तोयेव्स्की में दीखता है। वे निर्मम सामाजिक यथार्थ और जीवन की विमानुषी परिस्थितियों और विभिन्न पृष्ठभूमि के पात्रों के अंतर्जगत के द्वंद्वों का स्मारकीय और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण इसलिए कर पाये; अपनी उदात्त मानवीय भावनाओं और सपनों और मनुष्यता के भविष्य के प्रति अपने विश्वास को स्वर इसलिए दे पाये, क्योंकि वे अपने प्रति भी वस्तुपरक और ईमानदार होने का साहस रखते थे।

       वे अपनी कमज़ोरियों, आवारागर्दियों, बेवफ़ाइयों, तुच्छताओं, दुविधाओं, द्वंद्वों, पलायनों, अपने हाथों किसी के साथ हुए अन्याय और अपने मन की निराशा पर भी खुलकर बात कर सकते थे । वे महान इसलिए थे कि उन्होंने अपने सहज मानवीय “मामूलीपन” को कभी छिपाया नहीं! ऐसे और भी लेखक-कलाकार हुए हैं, पर अभी मुझे सहज ही जो नाम याद आ रहे हैं, वे हैं, अठारहवीं शताब्दी में रूसो और दिदेरो, तथा बीसवीं सदी में फ्रांज़ काफ़्का!

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