(जाने-माने कहानीकार समाजवादी लेखक डॉक्टर मंगल मेहता का 31 अक्टूबर को 92जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उनकी कहानी प्रकाशित कर रहे हैं।बाल मनोविज्ञान और अपने रंग को लेकर कुंठा पर यह कहानी है। भ्रांति है कि सिगरेट पीने से रंग में अंतर आता है -सम्पादक)
‘मम्मी बादलों के पांव काले हैं न’
गृहणी दाल बीन रही थी। वह कुछ बोली नहीं। बालिका उसके गले में झूल गई। मां के गाल पर अपना मुंह छुआ, फिर दोहराया- ‘मम्मी बादलों के पांव काले हैं न’ -वह जानती थी मां अब बोलेगी। बोलेगी इसलिए कि उसके बाल छुआने से उसे गुदगुदी लगती है। उसने अपने हाथ की गेंद भी चुभाई।
‘हां, हां काले’
‘और मम्मी बरसात के मेले न’
‘बरसात के?’
‘बरसात नहीं टपकती। गंदा पानी’
‘हां’
‘तो मैले पांव है न। मम्मी, मम्मी हमारे स्कूल में आज एक छोरी ने चड्डी में ही पेशाब कर दी। हां.. आं। वह गंदी है न मम्मी।’
‘जाओ देखो तो बाहर कौन आया?’
‘वह हमारी लंबी लंबी सी बेनजी है न उन्होंने चड्डी उतारी, हां..आं’- बालिका ने अपनी बड़ी बड़ी आंखें और फैलाई। इससे वह कुछ और असावधान हो गई, उसके हाथ से गेंद फिसल गई।
‘मम्मी गेंद बोल रही’- गेंद टप्पे खाती आगे बढ़ रही थी। वह उसे लेने लपकी।
‘मम्मी, पापा की अशटरे’
‘नहीं उसे मत छुओ गंदगी बिखरेगी। राख, टुकड़े। फिर कौन साफ करेगा’
‘मम्मी पापा गिसरेट पीते हैं न। लोग गुस्सा आता तो पीते हैं न। मम्मी वे तो गुस्सा नहीं आता तब भी पीते हैं न मम्मी।’
मम्मी ने दाल का काम समेटा। उठकर रेडियो लगा दिया।
‘मम्मी एक और एक’
‘दो’- मम्मी जानती है इसके बाद क्या होगा।
‘मेरा मुंह धो’- बालिका हंसने लगी। मां भी हंसने लगी।
फिर बोली- ‘मम्मी मैं काली नहीं हूं न’
‘काली तो है भाई’
‘नहीं, नहीं’- वह पैर पटकने और रोने का उपक्रम करती हुई मां पर हाथ चलाने लगी।
‘अच्छा, अच्छा नहीं है।’
‘पापा भी तो है’
‘है’
रेडियो से अच्छे गाने नहीं आ रहे थे। मां सुई घुमाने लगी। अच्छे गाने वाला स्टेशन मिल नहीं रहा था। अहमदाबाद, बड़ौदा को आज हो क्या गया। उर्दू प्रोग्राम भी तो आता है। उसने चीढ़ कर रेडियो बंद कर दिया। कुर्सी पर बैठ गई। अखबार उठा लिया। उसे सरकार की फजीहत संबंधी समाचार पढ़ने में मजा आता है। महंगाई अब भी आसमान पर है।
बालिका दौड़ आई- ‘मम्मी मम्मी हम पैर गोरे बना लें’
‘भाई, वैसे भी खूब गोरे हैं। क्यों पानी बिगड़ती हो।’
‘नहीं, मम्मी बना लें’
‘जाओ’
‘मम्मी वह वाला साबुन ले लें’
‘नहीं। उसे तुम बेकार में घिसोगी।’
‘नहीं, एक बार ही लगाएंगे।’
‘मुंह पर भी लगा लेना।’
‘नहीं। मुंह पर नहीं। आंखें जलती है।’
‘देखो मम्मी कौन आया। भैया।’
‘चार बज गये’- मां अपने आप बोली।
‘रोटी है मां? भूख लग आई। खाऊंगा।’
‘सरकारी हिसाब से तो नहीं खाना चाहिये।’
‘सरकारी हिसाब? खूब कही मां। सरकारी कानून तो देखने भर को है। कानून इसलिए बनाती है कि लोग उसे सरकार मानते रहें। वह भी कुछ करती रहें।’
मां हंस दी। बेटा भी हंस दिया। बेटा भी जानता है कि मां सरकार की बुराई से बहुत खुश होती है।
फुहारें उतरने लगी तो मां कपड़े समेटने चली। कमरे में आ उन्हें तहाने भी लगी।
बालिका टावेल ले हाथ पैर रगड़ रही थी। ‘मम्मी पापा नहीं आये?’
‘आते होंगे। तुम यहीं बैठो। मैं चाय का पानी चढ़ा कर आती हूं।’
मोटर का हार्न बजा। बालिका दौड़ी।
‘मम्मी, मम्मी डाक्टर चाचा’- फिर सड़क पर भाग गई।
फुहारें अभी भी आ रही थी। मम्मी रसोई घर से निकल आई।
‘नमस्कार’
‘हजरत अभी तक नहीं आये?’
‘आ ही रहे होंगे’
‘दफ्तर से आ रहा हूं। मुझे बताया कि घर गए हैं। इसलिए जल्दी से चला आया।’
‘बैठिए। चाय लेकर आई’
‘चाय? चाय तो उन्हीं के साथ लेंगे। उन्हें आने दो।’
‘डॉक्टर चाचा आज मिला लो पैर’
‘पैर मिलाओगी? कल मिलालो।’
‘नहीं। आज। मिलाओ।’
डॉक्टर सोफे पर बैठ गए। पंप शू से पैर निकाला और छोटी टेबल पर रख दिया।
बालिका ने खड़ी हो उनके पास ही अपना पैर भी रखा। रबर और पानी के कारण उनका पैर का पंजा बहुत सफेद सा हो रहा था। खड़ी होने के कारण उसका तलवा टेबल पर चिपका था। अपनी बिसात के अनुसार उसने डॉक्टर चाचा का पैर आड़ा-तिरछा इधर-उधर किया। उसने देखा डॉक्टर चाचा का पैर गोरा झक्क। अपने पैरों की ओर बार बार देखा।अभी तो साबुन लगाया था। नीचे बैठ गई। बैठकर नाखून से तलुआ खुरचने लगी। फुहारों से मिट्टी लग गई थी। फिर फ्राक से रगड़ने लगी। एक बार और उनके पैर की ओर देखा। उनका तलुआ लाल होता जा रहा था पर काला नहीं हो रहा था।
सिगरेट जलाते हुए डॉक्टर चाचा ने पूछा- ‘हां भाई, मिलालो’
बालिका ने क्षण भर डॉक्टर चाचा की ओर देखा। लाचार निगाहें। बुझा मन। उसका चेहरा तमतमा आया।
कुछ सोच सपाटे से बाहर गई। कमरे में वापस आते ठिठकी भी। पर लपक कर डॉक्टर चाचा के पैरों में मिट्टी मलने लगी।
‘अरे,अरे क्या करती हो राजू! बेवकूफ, पगली।’-मां चीखी।
डॉक्टर ने इशारे से मना कर दिया। उन्होंने अपना पैर और फैला दिया। तसल्ली से सिगरेट पीते रहे।
बालिका पराजित सी लगी। दौड़ी-दौड़ी फिर गई। मिट्टी लाकर उनके पेंट पर रगड़ने लगी।
‘अरे,अरे…’- मां से रहा नहीं गया। लपकी।
डाक्टर ने उन्हें कुछ भी करने से मना कर दिया।
बालिका झुंझला उठी। लगा, बालिका रो उठने का बहाना ढूंढ रही है।
वह डॉक्टर चाचा को नोचने लगी। चिढ़कर बड़बड़ाने लगी। उसके कोई बहाना हाथ नहीं लग रहा था।
‘डॉक्टर चाचा’- जोर से चीखी।
‘हां बेटा राजू’- उन्होंने पैर समेटकर जूते में डाल दिया।
‘डॉक्टर चाचा’- फिर चीखी।
‘बोलो बेटा’
‘गिसरेट’
‘गिसरेट क्या?’
‘गिसरेट’ फिर चीखी। ‘गिसरेट,गिसरेट’- चीखती रही।
‘पियूंगी’- फिर चीखी।
डॉक्टर हैरान रह गया। उसने अपनी जेब का पैकेट संभाला। हाथ की सिगरेट बुझाई। टुकड़ा भी जेब में डाल लिया।
‘गिसरेट’- फटती आवाज में फिर चीखी।
सब व्यतीत। परेशान, हैरान। हारे हुए। हवा अखबार के पन्नों से चुहल भर कर रही थी।
‘पानी पिओगी बेटा राजू’
‘नहीं, नहीं’- खींज। झुंझलाहट।
‘कोई इसे कुछ भी नहीं कहें’- उठते-उठते डॉक्टर का स्वर आवेश पूर्ण, आदेश पूर्ण हो गया।
डॉक्टर मोटर की ओर बढ़ तो रहे थे, पर अपने को अपराधी समझ रहे थे। इस भावना से छुटकारा नहीं हो रहा था।