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रओ शि की कहानी~विनाश 

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[ऎसे क्रान्तिकारी साहित्यकार की रचना, जिसकी हत्या सरकार ने कर दी. संक्षिप्त जीवन वृत्त कहानी के बाद पढ़े.]     *

~ मीना राजपूत (कोटा)*
       

जाड़ों की ठिठुरती ठण्डी रात थी। तीखी हवा बह रही थी। एक दीनहीन स्त्री ने अपने शिशु पर दृष्टि डाली जिसे उसने तीन रात पहले जन्म दिया था। वह चीथड़ों गुदड़ों में लिपटी बैठी थी। उसके पीले चेहरे पर दीपक की फीकी मटमैली रोशनी पड़ रही थी। मरी हुई आवाज में उसने अपने पति को, जो तीस पैंतीस वर्ष का रहा होगा, पुकारा, “जो मैंने कहा है वही करो। वही सबसे अच्छा तरीका है।”
गोद में पड़े बच्चे को उसने फटी फटी सूनी आँखों से निहारा। सिर्फ उसकी नन्हीं सी खोपड़ी पर के सुनहरे रोएँ ही दिख रहे थे।

“इसे अभी ले जाओ,” स्त्री ने आग्रह किया। “देर होती जा रही है, मौसम ठण्डा है और रास्ता लम्बा है। जल्दी निकल जाना बेहतर है।”
परन्तु उसने बच्चे को सीने से नहीं हटाया। वह थोड़ा सा आगे को झुकी और उसे और लिपटा लिया। आदमी निराश होकर आँखें नीचे किए बोला, “क्या कल जाने से काम नहीं चलेगा। कल, बस कल तक रुको। कल तक हवा भी कम हो जाएगी।”
“आज रात!” एक बार फिर उसने बच्चे को प्यार किया।
“इस पर बात कर लें–– मैं सोचता हूँ–––”
“और कोई चारा नहीं है। हमारे पास चावल का एक दाना भी नहीं। र्इंधन की एक एक लकड़ी खत्म हो चुकी। कोई और रास्ता ही नहीं बचा है।”

गुमसुम उसने सिर हिला दिया। आदमी तो बस सुन्न रह गया था। उसने बच्चे को उठाया। उसकी आँखें लाल हो रही थीं। वह दरवाजे से बड़े बड़े डग भरता बाहर निकल गया। सिसकती हुई स्त्री ने उसको पीछे से पुकारा, “जल्दी जल्दी जाना, और उसे कसकर ओढ़ाए रखना। दरवाजे की घण्टी बजाना मत भूल जाना।”
आदमी ने उत्तर नहीं दिया, तीर सी बरफीली हवा में बढ़ता चला गया।
सात आठ ली तो वह बिना ठहरे चलता गया। फिर एक पहाड़ी के सिरे पर बैठकर सुस्ताने लगा। आँधी के थपेड़े मारते पागल झोंके पथ के दोनों ओर वृक्षों को कभी एक ओर और कभी दूसरी ओर झुका देते और उसकी साँस उखड़ जाती। उसने सर से पाँव तक कपड़ों में लिपटे शिशु को खोलकर एक बार फिर उस बहुमूल्य सम्पत्ति को निहारा जिसे अब वह त्यागने ही वाला था। उसने जो देखा उससे उसका दिल बैठ गया। शिशु की आँखें कसकर मुँदी हुई थी। उसकी साँस चलनी बन्द हो गई थी। बच्चे का दम घुट गया था!

“हाय!” आदमी ने तड़पकर चीत्कार किया। वह जिस चट्टान पर बैठा वहाँ से लगभग लुढ़ककर जमीन पर आ गया। पर जो हो ही गया था उसके आगे उसका क्या बस था।
“क्या मैं इसे घर वापस ले जाऊ? पत्नी से क्या कहूँगा? अनाथालय में जो बच्चे ले जाए जाते हैं वे शीघ्र ही मर जाते हैं।” उसने सोचा। उसने शव को वही पहाड़ी पर दफन कर देना निश्चित किया।
पर उसका साहस निचुड़ गया था। आँसू गालों पर बहते रहे और वह शिशु के शव को घुटनों पर रखे बैठा रहा। फिर वह रो–रोकर विलाप करने लगा। शोर सुनकर पर्वतीय रखवाले आ पहुँचे। उसने उनसे एक फावड़ा उधार माँगा। वे उसे ढाढ़स बँधाने लगे।

“गरीबों को बच्चों का हक नहीं होता,” उन्होंने कहा। “बहुत दुखी मत हो। तुम अभी जवान हो। बिल्कुल सम्भव है कि तुम्हारे और एक बेटा हो।”
वे वापस भीतर चले गए। एक वृद्धा ने दरवाजे पर कागज का धन जलाया क्योंकि बच्चे को अपनी परलोक की यात्रा में उसकी जरूरत पड़ेगी।
परन्तु पति तुरन्त घर नहीं लौट सका। उसने सोचा कि थोड़ी देर रुककर लौटना ठीक होगा ताकि उसकी पत्नी को सन्देह न होने पाए। वह बैठा रहा, बैठा ही रहा और रात घिसटती गई। हवा की, पानी की और वृक्षों की ध्वनियाँ – ये सब उसने स्पष्ट सुनीं। अपने को सम्हालते हुए उसने डरावनी रात की आवाजों के आक्रमणों से अपने को बचाया।

धीरे–धीरे उसने अपने घर का दरवाजा खोला। स्त्री अब भी बिस्तर पर निश्चल बैठी थी। उसकी आँखें रोने से लाल और सूजी हुई थीं। आदमी उसके पास सहमा सहमा आया।
“तुम सोई क्यों नहीं?” उसने पूछा।
“मैं तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रही थी,” वह आहिस्ते से बोली।
आदमी उसके सामने आकर खड़ा हुआ। वह जोरों से रो पड़ता, परन्तु सारी शक्ति लगाकर उसने अपने को सम्हाल लिया। स्त्री आहिस्ता से बोली, “क्या तुम उसे वहाँ ले गए थे?”
“मैं ले गया था।”
“सीधे अनाथालय तक।”
उसके उत्तर प्रतिध्वनियों जैसे थे। स्त्री सुनकर सशंक हो गई।
“क्या तुमने घण्टी बजाई थी।”
“बजाई थी।”
“क्या तुमने उन्हें बाहर आते देखा था?”
“हाँ।”
“क्या तुमने बच्चे को रोते सुना था?”
“हाँ, बहुत सवाल मत पूछो!” आदमी ने अधीर होकर जवाब दिा।
स्त्री कड़ुवाहट भरी मुस्कान मुस्कुराई। “तब मैं निश्चित हो रहूँ?”
“हाँ, हाँ, क्यों नहीं!”
“तो कल जाऊँ या परसों?”
“जाऊँ कहाँ?” आदमी चकरा गया।
“अनाथाल में, दाई बनने के लिए।”
“क्या कहा?”
“और क्या, मैंने पहले ही बताया था। क्या तुम भूल गए?”
आदमी का दिल बैठने लगा। “तुम जाकर अपने ही बच्चे की देखभाल करना चाहती हो?”
“हाँ।”
“असम्भव।”
“यह तो एक सही विचार है। इस तरह मैं खाने को भी पाती रहूँगी और कुछ पैसे भी जमा कर लूँगी।”
“क्या तुमने तय कर लिया है कि यही करना है?”
“क्यों नहीं, क्या दिमाग वहीं पहाड़ पर भूल आए?”
आदमी धम से एक कुर्सी में बैठ रहा और सिसकने लगा। “नहीं, यह नहीं होगा। तुम कल नहीं जाओगी।”

स्त्री कड़ुवाहट से हँसी। दृढ़ता से बोली, “तब फिर परसों।”
दो दिन बाद उसने कस्बे के अनाथालय में प्रवेश किया।
उसने प्रत्येक शिशु को गौर से देखा पर कई दर्जन में से कोई भी उसका नहीं था। उसने दूसरी दाइयों से भी नर बच्चों के बारे में पूछा। पता चला कि केवल दो है और दोनों चार चार महीने से ऊपर के थे। उसने सोचा कि यह तो बड़ी अजब बात है। डरती डरती वह कार्यालय में गई। बड़ी मीठी मुस्कान दिखाकर उसने दरवाजे में से झाँका और एक मुंशी को मुखातिब हुई।

“क्यों परसों रात यहाँ कोई शिशु लाया गया था, महाशय?”
मुंशी ने दीवार पर लगी तालिका पर एक नजर डालकर कहा, “हाँ। तुम क्यों यह पूछती हो?”
जबर्दस्ती मुस्कुराकर औरत बोली, “बात यह है कि एक पड़ोसिन ने, एक लड़की ने एक अवैध बच्चे को जन्म दिया है।–– महाशय आप बता दें कि क्या जो बच्चा लाया गया है, नर है कि मादा?”

मुंशी ने फिर तालिका देखी। वह दाँत फाड़कर मुस्कुराया, “नर है।”
“सचमुच? बहुत बढ़िया बात है! मुझे बताएँ कि बच्चा कहाँ है और उसे दिखाएँ तो मैं उसकी एक बड़ी मजेदार बात आपको बताऊँ।”
मुंशी ने सर हिलाया। उसके चेहरे पर एक कठोर भाव आ गया।
“तुम्हारा सर फिर गया है? देखो, मैं तुम्हें सिर्फ बेवकूफ बना रहा था। कोई बच्चा यहाँ परसों रात को नहीं लाया गया। नर, मादा, अवैध सभी तरह के बच्चे हर रात को लाए जाते हैं परन्तु हुआ यह कि परसों रात को यहाँ कोई बच्चा नहीं आया।”

स्त्री के पाँव जवाब दे गए। उसे गहरी चोट लगी और वह बड़ी मुश्किल से उसे सह पाई।
“हो सकता है तुमको गलत तारीख बताई गई हो,” मुंशी ने कहा। “अच्छा, लड़की और उसके अवैध बच्चे के बारे में तुम्हारी मजेदार कहानी तो सुने।”
सिर झुकाए हुए औरत ने धीरे से मुँह फेर लिया। “कुछ सुनाने को नहीं है। जो बच्चा उसके हुआ था निश्चय ही मर चुका है।”
वह गुमसुम सी अनाथालय के कमरे में हर दाई को बाँहों में एक एक बच्ची लिए बैठी देख सकती थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या सोचे। उसे लगता था कि वह पर्वत के एक खड्ड में से, जिसमें वह गिर पड़ी है, डूबते सूरज को देख रही है। वह चाहती थी कि वह तुरन्त घर लौट जाए और पति से पूछताछ करे। परन्तु परिस्थिति इसका अवसर भी नहीं दे रही थी।

कुछ दिन बाद वह उससे मिलने आया। वह उसे खींचकर एक कोने में ले गई।
“हमारा बच्चा कहाँ है?” उसने पूछा।
“यहाँ नहीं है क्या?” पति ने आहिस्ते आहिस्ते पूछा।
“नहीं। मैंने सब शिशु देख लिए जो यहाँ पिछले कुछ दिनों में लाए गए थे। उनमें से कोई भी हमारा नहीं है।”
“तब मैं नहीं जानता।”
“कैसे नहीं जानते तुम?”
आदमी ने सर झुका लिया। “वह मर गया होगा।”

“वह नहीं मर सकता।” स्त्री की आवाज ऊँची हो गई। “वह मरा भी होता तो उसके आने की सूचना दर्ज होती पर उस रात को कुछ भी दर्ज नहीं है।”
आदमी के पास शब्द नहीं थे। उसकी पत्नी आग्रह करती रही।
“मुझे बताओ क्या हुआ? कहाँ छिपा रखा है तुमने मेरा बच्चा?”
उसे याद आया कि रखवालों ने क्या कहा था। “गरीबों को बच्चों का हक नहीं होता,” उसने दोहराया। “बहुत दुख मत मानो।”
“क्या कहना चाहते हो?”
उसने चाहा कि न कहे परन्तु शब्द उसके मुँह से निकल ही पड़े। “वह रास्ते में ही मर गया था। पहाड़ी की ढलान पर उसे दफन कर दिया था।”

“क्या कहा? क्या मतलब?–––” औरत फूट–फूटकर रो पड़ी।
“तुम दोनों ने कानून तोड़ा है,” मुंशी ने पति पत्नी को डपटकर कहा, “अपने बच्चे को यहाँ लाना और फिर खुद दाई बनकर यहाँ काम करना गैर कानूनी है। मैं पुलिस को बुलाता हूँ और तुम दोनों को थाने भिजवाता हूँ!”
आँसू रोकते हुए स्त्री ने कहा, “हमारे कोई बच्चा नहीं है, महाशय। हमारा लड़का तो मर ही चुका है। हमारा यहाँ कौन बच्चा है?”
“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारा इरादा तो यही था। मैं तुम्हें थाने भेज रहा हूँ।”

औरत घुटनों के बल झुकी। “क्या बच्चे को जन्म देना कानून का उल्लंघन है। मेरे अब कोई बेटा नहीं, महाशय। हमें माफ कर दीजिए!”
मुंशी गुस्से से कदम बढ़ाकर दफ्तर की ओर चला गया। स्त्री पति की बाँहों में गिरकर बेहोश हो गई।
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रओ शि का संक्षिप्त जीवनवृत्त
7 फरवरी, 1931 को क्वोमिनताङ सरकार ने पाँच युवा क्रान्तिकारी लेखकों की गुप्त रूप से हत्या कर दी थी। ये थे रओ शि और उनके मित्र फ़ड खङ तथा उनके साथ इन फ़ू, ली वेइसन और हू येफिङ। इस खूनी हत्या ने चीन के समस्त साहित्यिक जगत को हिला दिया। 25 अप्रैल को, मृतकों की स्मृति में बड़ी वेदना के साथ लू श्युन ने लेख लिखा जिसका शीर्षक था “चीनी जनता का क्रान्तिकारी साहित्य और अग्रदूतों का खून”।
उन्होंने लिखा, “चीनी जनता का जो क्रान्तिकारी साहित्य आज और कल के बीच में लिखा जा रहा है वह प्रताड़ना और मिथ्या प्रचार के बावजूद विकसित हो रहा है और आखिरकार घोर अँधेरे में उसका पहला परिच्छेद हमारे साथियों के रक्त से लिखा जा चुका है।”
लू श्युन ने इन क्रान्तिकारी लेखकों के लिए गहरा शोक प्रकट किया और आशा प्रकट की कि चीन का क्रान्तिकारी साहित्य, जो कि संघर्ष के दौर में पनप रहा है, आगे बढ़ता रहेगा।
रओ शि 1901 में चच्याङ प्रान्त की निङहाए काउण्टी में पैदा हुए थे। उनका परिवार पीढ़ियों से विद्वानों का परिवार रहा था। परन्तु परिवार की आर्थिक परिस्थिति इतनी बिगड़ गई कि उनके पिता को व्यापार से जीविका कमानी पड़ी और वह रओ शि को दस बरस की उम्र तक स्कूल नहीं भेज सके। जब रओ शि हाङचओ के प्रथम सामान्य विद्यालय में पढ़ रहे थे तो वह ‘प्रभात बेला’ नामक साहित्यिक संस्था के सदस्य हो गए और नए साहित्य के आन्दोलन में हिस्सा लेने लगे। स्नातक बनने के बाद उन्होंने प्राथमिक विद्यालय में और अपने जन्म स्थान में पढ़ाया और बाद में एक माध्यमिक स्कूल के प्राध्यापक हो गए।
वह 1928 में शाङहाई गए। वहीं प्रसिद्ध लेखक लू श्युन से उनकी गहरी दोस्ती हुई और वह उनके साथ उनकी मासिक पत्रिका ‘टैटलर’ में काम करने लगे। रओ शि ने ‘प्रभात मंजरी’ और ‘कलावाटिका’ पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया जो लू श्युन द्वारा प्रेरित थीं और कुसुम प्रेस से प्रकाशित होती थीं। उसी समय रओ शि ने साहित्यिक लेखन भी किया और विशेष रूप से पूर्व योरपीय और स्कैंडिनेवियाई देशों के साहित्य तथा चित्रकला का परिचय भी जनता को दिया।
वह 1930 के मार्च में वामपन्थी लेखकों की लीग की कार्यकारिणी कमेटी के सदस्य चुने गये। उन्होंने उस संस्था के मासिक पत्र ‘अंकुर’ का सम्पादन किया। उसी वर्ष मई में उन्होंने चीन के सोवियत प्रदेशों के राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वह 7 जनवरी 1931 को च्याङ च्येशि (च्याङ काई–शेक) के गुरगों द्वारा गिरफ्तार किए गए और उसके बाद शीघ्र ही मार डाले गए।
रओ शि का साहित्यिक जीवन 1923 से आरम्भ हुआ।
उनके पहले कहानी संकलन “पागल आदमी” में 1923 और 1924 में लिखी छ: कहानियाँ हैं, और इसका प्रकाशन उन्होंने अपने पैसे से 1925 में किया था। “वृद्धावस्था में मृत्यु” 1926 में लिखा गया था और उनका एकमात्र लम्बा उपन्यास है। “पागल आदमी” और “वृद्धावस्था में मृत्यु” दोनों नई जनवादी क्रान्ति के आरम्भिक समय के रोमानी कथानक हैं और “अभागे नवयुवकों” और “दलितों” की दशा दिखाते हैं। ये रचनाएँ जो उनके प्रारम्भिक प्रयत्नों की प्रतिनिधि हैं, य्वी ताफू का प्रभाव दिखाती हैं जो उस समय का प्रमुख उपन्यासकार था। य्वी ताफू का सर्वप्रसिद्ध उपन्यास “पतित” भी इसी प्रकार के युवजनों का चित्रण करता है।

रओ शि का “तीन बहनें” अप्रैल 1929 में प्रकाशित हुआ था। उसी वर्ष नवम्बर में “वसन्तागम” उपन्यास छपा। “वृद्धावस्था में मृत्यु” की भाँति इन कहानियों में युवा बुद्धिजीवियों और उनके असमान्य प्रेम प्रसंगों का परिचय है। “वसन्तागम” का अच्छा स्वागत हुआ।
तीसरे दशक में चीन के अनेक युवा बुद्धिजीवी जीवन से असन्तुष्ट थे। यथार्थ से भागने में विफल वे हताश और निराशावाद के शिकार हो जाते थे। एकमात्र उत्तर यह था कि एक नया मार्ग अपनाया जाए। श्याओ च्येनछ्यू उन्हीं रास्ता खोजते भटकते म्लान लोगों में से एक है।
चित्रण, कथानक, भाषा और काव्यत्व में “वसन्तागम” रओ शि की पिछली रचनाओं की अपेक्षा कई कदम आगे है। यह उनकी साहित्यिक प्रतिभा और कला का पूर्ण प्रतिबिम्ब है।

“आशा” शीर्षक से एक और संग्रह जो कि 1928 और 1929 में लिखी 20 कहानियों का संग्रह है, “वसन्तागम” के बाद शीघ्र ही प्रकाशित हुआ। इसमें गाँव के निचले वर्गों के लोगों का चित्रण है। रओ शि की दृष्टि विस्तृत हो रही थी। उनकी प्रसिद्ध लघुकथा “भूत और उसकी पत्नी” में एक गरीब राजगीर का चित्रण है जो आदमी कम भूत सा अधिक है। “किसी ने उसकी पूरी शिकायत नहीं सुनी” एक बेचारी वृद्धा की दुखद कहानी बताती है। कहानी में कोई भावना प्रकट नहीं की गई है। यह एक निर्मम यथार्थ का चित्रण है। दुर्भाग्य से उसमें श्रमिक लोगों का वर्णन काफी गहरा नहीं है और उसकी कलात्मक गहराई “वसन्तागम” का मुकाबला नहीं कर सकती। तो भी वह लेखक की विचारधारा में परिवर्तन दिखाती है और यह बताती है कि आगामी रचनाओं के लिए उसमें तैयारी हो रही है।
इसके बाद शीघ्र ही रओ शि की कहानियों में श्रेष्ठ “किराए की बीवी” जनवरी 1930 में छपी।
लू श्युन की “नववर्ष की बलि” में श्याङलिन की पत्नी की नियति और “किराए की बीवी” की नियति पुराने चीन की अनेक ग्रामीण औरतों के जीवन का यथार्थ है।
(चेतना विकास मिशन)

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