पुष्पा गुप्ता
रास्ते के किनारे एक चट्टान खड़ी थी। दूर से वह काले रंग की लगती थी, पर दरअसल उसका रंग कत्थई था। चट्टान पर जगह-जगह सलवटें, गढ़े और उभार थे, पर कहीं भी टूटन या तड़कन नहीं थी।
उसकी ऊंचाई एक चौमंजिला मकान के बराबर थी। लोग उसे ‘बड़ी शिला’ के नाम से पुकारा करते थे।
‘बड़ी शिला’ गांव से बहुत दूर थी। थके हुए राहगीर इसकी छांह में विश्राम किया करते थे। गर्मियों में वह लोगों को छाया प्रदान करती और जाड़ों में उन्हें वर्षा, बर्फ़ व सर्द हवा से बचाती थी।
एक बार एक कौआ उस चट्टान पर आ बैठा। वह अपनी चोंच में एक अखरोट जैसी चीज़ दबाये हुए था। चारों ओर एक नज़र डालकर कौए ने अपने भोज्यपदार्थ को पंजों में कसकर दबाया और उसमें चोंच मारने लगा।
दाने का कड़ा छिलका टूट गया और कौआ उसमें से बिखरते बीजों को तेज़ी से खाने लगा। पर एक बीज चट्टान की तंग दरार में गिर गया। कौए ने अपनी पैनी नज़र से उस बीज को देखा लेकिन जब लाख प्रयत्न करने पर भी वह उसे वहां से नहीं निकाल पाया तो नये भोज्यपदार्थ की तलाश में उड़ गया।
यह शरद् ऋतु की बात थी। शरद् के बाद जाड़े का मौसम आया। वर्षा हुई और बर्फ़ गिरी। हवा के झोंकों से बड़ी शिला की तलहटी में उड़ आये बीज सड़ने व नष्ट होने लगे, पर कौए का वह दाना उग आया। मौसम में कुछ गरमी आने पर उसमें से एक पतला अंकुर फूटा। शुरू-शुरू में वह अंकुर मरियल व कमज़ोर-सा था।
हवा उसे जैसे चाहे झोंके देकर तंग करती, सूरज अपनी तपती किरणों से परेशान करता। दोपहर को वह उस मनुष्य की तरह सुस्त व लापरवाह हो जाता, जो अपनी सारी शक्ति गंवा चुका हो, पर शाम होते ही उसमें फिर जान आ जाती थी, वह एक सूई की तरह सीधा तन जाता था।
अंततः उस अंकुर से कोमल, रोएंदार पत्तियोंवाली नन्ही-नन्ही शाखाएं निकल आयीं। लोगों ने देखा कि ‘बडी शिला’ में आर्चा ने – पर्वतों में ‘कोहिस्तान की दुलहन’ के नाम से जाने जानेवाले एक अत्यन्त सुन्दर वृक्ष ने – अपनी जड़ें जमा ली थीं। कुछ ही वर्षों में वह वृक्ष बड़ा गया, और उसकी जड़ें ‘बड़ी शिला’ के अन्दर गहरी धंस गयीं।
“ए… आर्चा !” एक दिन ‘बड़ी शिला’ वृक्ष से कहने लगी, “तू यह क्या कर रहा है? क्यों तेरी जड़ें मेरे अन्दर सांप की तरह कुंडली मारे धंसी जा रही हैं?”
“और कोई उपाय नहीं है,” वृक्ष ने उत्तर दिया। “मुझे भी तो आखिर भोजन-पानी की ज़रूरत होती ही है। मैं जीना चाहता हूं।”
“धरती काफ़ी चौड़ी है,”‘बड़ी शिला’ बड़बड़ायी। “क्या पूरी धरती पर तुझे और कहीं ठौर नहीं मिला? मेरे भीतर ही उगना ज़रूरी था?”
“यह मेरा क़सूर नहीं है, भाई। कौआ मेरे बीज को यहां डाल गया। उसी से जाकर पूछो यह बात।”
“ओह, तो तू अब बहस भी करने लगा?” ‘बड़ी शिला’ आग- बबूला होकर आर्चा के तने को कसकर भींचने लगी, पर वृक्ष ने मुक़ाबला करने की ठान ली। उसने अपनी जड़ों के लिए शिला के भीतर नये रास्ते खोज लिये। आर्चा की जिजीविषा सचमुच उद्दाम थी।
अन्ततः ‘बड़ी शिला’ ने हार मान ली।
“ठीक है,” उसने आर्चा से कहा, “रह तू भी।”
आस-पास उससे सुन्दर और कोई भी वृक्ष नहीं था। कोई पथिक ऐसा नहीं था जो उसे देखकर आह्लादित न होता हो। नीले आकाश के नीचे इसकी शिखा की हरीतिमा जगमगाने लगती। दूर से ‘बड़ी शिला’ को देखने पर ऐसा लगता जैसे वह कोई काले संगमरमर का चबूतरा हो।
काफ़ी साल बीत गये। एक दिन ऐसा आया जब तंग रास्ते को चौड़ा करने का निर्णय लिया गया। भावी राजमार्ग से गुज़रता हुआ इंजीनियर ‘बड़ी शिला’ के पास आकर रुक गया। मार्ग सीधा और चौड़ा होना चाहिए था, पर ‘बड़ी शिला’ का क्या किया जाये? उसे क्या एक तरफ़ हटा दें? पर विस्फोटक से उड़ा देना ज़्यादा आसान था।
इंजीनियर काफ़ी देर तक ‘बड़ी शिला’ को ध्यानपूर्वक देखता रहा। उसने दो बार उसके चक्कर लगाये। शिला की चोटी पर चढ़कर जब उसकी दृष्टि आर्चा के जीवन-संघर्ष पर पड़ी तो उसकी आंखें तृप्त हो गयीं। ‘बड़ी शिला’ भी संघर्षरत थी।
अपने पैने किनारों को आर्चा के तने में गड़ाकर जैसे वह उसे काट खाना चाहती थी। क्षण भर के लिए इंजीनियर को ऐसा लगा जैसे वे आर्चा और पत्थर न होकर दो पहलवान हों जो अपनी देहों को एक दूसरे भिड़ाये गुत्थमगुत्था हो रहे हों।
इंजीनियर को आर्चा पर दया आ गयी। उसने आदेश दिया कि सड़क चार मीटर नीचे से निकाली जाये।
पर एक तलमानचित्रकार ने यह कहकर आपत्ति प्रस्तुत की कि चट्टान की शक्ल मज़ार जैसी है, अतएव उसे विस्फोटक से उड़ा देना चाहिए।
“नहीं, नहीं, किसी भी मज़ार से इसकी शक्ल नहीं मिलती-जुलती। आप ज़रा देखिये तो सही, चट्टान पर यह आर्चा कितना सुन्दर लग रहा है।”
इंजीनियर के इस विचार का दूसरे बहुत सारे लोगों ने भी समर्थन किया। अन्ततः जैसा इंजीनियर ने कहा, वैसा ही किया गया। ‘बड़ी शिला’ और आर्चा को अपने स्थान पर सुरक्षित रहने दिया गया।
दो साल के भीतर राजमार्ग का निर्माण पूरा कर लिया गया, लोगों से भरी हुई बसें और भारी-भारी ट्रक उस सड़क पर से होकर गुज़रने लगे, उनके विंडस्क्रीनों में से ऐसा लगता था जैसे आर्चा हवा में लटका हो। बसें ‘बड़ी शिला’ के पास आकर रुक जातीं। यात्रीगण विश्राम के लिए बाहर निकल आते और प्राकृतिक दृश्य का अवलोकन करते।
‘बडी शिला’ की चोटी पर ठंडक थी। लोग मन्त्रमुग्ध भाव से आर्चा को देखते। अधेड़ उम्र के लोग तो उसे देखकर विशेष रूप से उल्लसित हो उठते।
“जीवन के लिए ऐसा संघर्ष करना चाहिए !”
लोगों के आने-जाने का क्रम बना रहा। ‘बड़ी शिला’ के पास दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती ही गयी। यात्रियों के लिए वह एक सुरम्य विश्रामस्थली बन गयी।
पर वह मार्ग अभी तक राजकीय आयोग द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया था। आयोग का गठन कई महीनों के बाद हुआ। आयोग में अध्यक्ष सहित चार व्यक्ति सम्मिलित थे। एक दिन वे सब मार्ग को प्रमाणित करने के लिए रवाना हुए। अध्यक्ष अपनी तीव्र दृष्टि मार्ग के दोनों ओर टिकाये था। उसकी कोशिश थी कि काम में कहीं कोई कमी नज़र आ जाये।
पर आधा मार्ग पार करने के बावजूद अध्यक्ष को कोई खास कमी नहीं मिली। अगर उसे यह बात पहले से मालूम होती तो शायद वह इस आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए कदापि तैयार नहीं होता। इतने लम्बे मार्ग में क्या सब कुछ इतना दुरुस्त है? मार्ग निर्माताओं से कहीं कोई ग़लती हुई ही न हो, ऐसा नहीं हो सकता। कौन करेगा इस बात पर विश्वास? सभी यही कहेंगे कि अध्यक्ष ने सावधानी से निरीक्षण किया ही नहीं होगा।
इतने में ही उसकी दृष्टि आर्चा और ‘बड़ी शिला’ पर पड़ी।
“गाडी रोको,” उसने चालक से कहा।
अध्यक्ष के पीछे आयोग के अन्य सदस्य भी नीचे उतरे। उनके मन में अभी तक कोई शंका नहीं उभरी थी। कमर सीधी करने का अवसर मिलने से उन्हें अच्छा ही लगा था। अध्यक्ष ‘बड़ी शिला’ के पास गया और सिर उठाकर देर तक आर्चा को देखता रहा। तदनन्तर बोला :
“देख रहे हैं, इंजीनियर की तारीफ़ की जाती है कि बड़ा प्रतिभा- शाली है वह, और इधर इतनी बड़ी ग़लती !”
“हां, हां,” उसके एक सहयोगी ने हामी भरी।
“सच कह रहे हैं,” दूसरे ने समर्थन किया।
पर तीसरा सदस्य उनसे सहमत नहीं हो सका।
“कैसी ग़लती, अध्यक्ष महोदय?”
पर अध्यक्ष ने उसके प्रश्न को सुना अनसुना कर दिया। जैसे स्वयं को विश्वास दिलाने के लिए कि उसका समर्थन करनेवाले सहयोगी सचमुच ही उससे सहमत हैं, उसने उनसे प्रश्न किया :
“तो फिर बताइये, क्या ग़लती की है इंजीनियर ने?” आयोग के सदस्यों को कोई उत्तर नहीं सूझा।
अध्यक्ष विषण्ण होकर गुर्राया :
“मार्ग विशेषज्ञ भी क्या अच्छे मिले हैं मुझे!”
आयोग के सदस्यों के चेहरे पर अपराधभरी मुसकान खिंच आयी। अध्यक्ष ने चालक को आवाज़ दी और उससे निकटवर्ती किसी गांव से एक आरी लाने को कहा।
लगभग बीस मिनट बाद चालक आरी लेकर वापस आ गया। अध्यक्ष ने आर्चा की ओर संकेत करते हुए कहा :
“इसे काट डालो।”
“हां, हां, काट डालना ही चाहिए,” दो सदस्य एक स्वर में बोले।
पर क्यों?” तीसरे सदस्य ने प्रतिवाद किया। “यह आर्चा किसी के रास्ते में आड़े नहीं आ रहा है।”
“आप समझे नहीं,” अध्यक्ष हंसते हुए कहने लगा। “आज नहीं आ रहा है, पर किसी दिन बड़ा होगा तो इसकी शाखाएं यातायात में बाधा डालेंगी। लगता है इंजीनियर में दूरदर्शिता नहीं है, इसीलिए उससे ग़लती हो गयी। अब समझे आप?”
“हां, हां,” पहला सदस्य बोला
अध्यक्ष महोदय ठीक कह रहे हैं,”दूसरे ने समर्थन किया।
पर तीसरे ने अप्रसन्नता से सिर हिला दिया। परन्तु अध्यक्ष ने उसकी आपत्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया। उन दोनों की ओर मुड़कर उसने आर्चा को काटने का आदेश दे दिया।
उनमें से एक ने आरी संभाली और ‘बड़ी शिला’ की ओर बढ़ चला, पर पास पहुंचकर कुछ सोच में पड़ गया।
“अध्यक्ष महोदय, रहने ही दें इसे,” वह बुदबुदाया। “अभी तो किसी को तंग नहीं कर रहा है।”
“अरे, एक पेड़ पर तरस खा रहे हो?” अध्यक्ष भड़क उठा। उसने तत्क्षण आर्चा के पास पहुंचकर उसके हाथ से आरी ले ली। आरीवाले को देखकर वृक्ष कांप उठा, शिकायती स्वर में उसकी पत्तियां सरसरा उठीं – जैसे उससे दया की प्रार्थना कर रही हों। किन्तु अध्यक्ष पर उसकी प्रार्थना का कोई असर नहीं हुआ।
उल्टे ही उसे स्वयं पर गर्व हो रहा था कि उसने निर्माण इंजीनियर की एक बहुत बड़ी ग़लती ढूंढ़ निकाली। अब वह साथ ही साथ अपनी रिपोर्ट में आयोग के सदस्यों की अयोग्यता की शिकायत भी जोड़ देगा, कहेगा कि आर्चा तक को उसे स्वयं अपने हाथों से काटना पड़ा।
आरी वृक्ष से टकरायी। पसीने में नहा गये अध्यक्ष ने आर्चा की सबसे मोटी और लम्बी शाखा को मध्य तक काटा, शाखा तुरन्त ही कड़ककर टूट गयी, और अपने साथ ‘बड़ी शिला’ के एक बड़े टुकड़े को तोड़ती हुई नीचे गिर पड़ी।
बरबस सभी की दृष्टि उस स्थान पर जा पड़ी, जहां से शिला का टुकड़ा टूटा था। वहां एक काला धब्बा प्रकट हो गया, जो तेज़ी से फैलता जा रहा था। थोड़ी देर बाद वहां पर पानी की बूंदें उभरने लगीं।
पानी की एक बूंद निकलकर शिला पर बहने लगी, उसके पीछे दूसरी बूंद बह निकली, और फिर तीसरी …
पर क्या यह पानी ही था? आंसू तो नहीं थे? सम्भव है, आंसू ही हों। सम्भव है, आर्चा के प्रति करुणा की भावना उमड़ने के कारण ‘बड़ी शिला’ को रोना आ गया हो, सम्भव है, पत्थर हृदयवाले इनसान के व्यवहार से चकित व क्षुब्ध होने के कारण ही वह रो रही हो …
उस दिन से ‘बड़ी शिला’ को ‘रोनेवाली शिला’ कहा जाने लगा।