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*तत्वकथा : उस किनारे की यात्रा*

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        (बुद्ध साहित्य में वर्णित प्रसंग)

  ~पुष्पा गुप्ता 

बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे और उस आदमी के शरीर में एक तीर लगा था-किसी शिकारी का तीर। वह आदमी मर रहा था। वह एक दार्शनिक था। बुद्ध उस आदमी से कहते हैं कि इस तीर को निकाला जा सकता है। मुझे इसे बाहर निकाल लेने दो।

      वह आदमी कहता है, ‘नहीं, पहले मुझे यह बताओ कि यह तीर किसने मारा? मेरा शत्रु कौन है? यह तीर मेरे शरीर में क्यां लगा? मेरे किन कर्मों का यह फल है? क्या तीर विष-बुझा है, या नहीं है?’ बुद्ध कहते है, ‘यह सारी बात तुम बाद में पूछ लेना।

      पहले मुझे तीर खींच लेने दो, क्योंकि तुम मरने ही वाले हो। यदि तुम सोचते हो कि नहीं पहले इन सब बातों का पता चल जाये और फिर तीर को खींचा जाये, तो तुम बचने वाले नहीं हो।’

यह कहानी उन्होंने बहुत बार सुनाई थी। उनका इस कहानी से क्या मतलब था? उनका अर्थ था कि हम सब मृत्यु के किनारे ही खड़े हैं। मृत्यु का तीर पहले ही तुम्हारी छाती में चुभा हुआ है। तुम्हें इसका पता हो या नहीं हो। मृत्यु का तीर तुमको पहले से ही लग चुका है। इसीलिए तुम दुःख में हो। तीर चाहे दिखाई नहीं पड़ता हो, किन्तु पीड़ा तो है। तुम्हारी पीड़ा कहती है कि मृत्यु का तीर तुम्हारे भीतर प्रवेश कर चुका है। मत पूछो इस तरह के सवाल कि इस जगत को किसने बनाया और मैं क्यों बना गया, कि जीवन बहुत है कि एक ही जीवन है, क्या मैं मृत्यु के बाद भी बचूँगा या नहीं।

बुद्ध कहते हैं, ये बातें बाद में पूछ लेना। पहले इस दुःख के तीर को खींच लेने दो। तब बुद्ध हँसते हैं और कहते हैं कि फिर बाद में मैंने किसी को पूछते हुए नहीं पाया, इसलिए बाद में सारी पूछताछ कर लेना।

      यह योग है, इसका तुम्हारी स्थिति से ज्यादा संबंध है-तुम्हारी पीड़ा की वास्तविक स्थिति से और कैसे उससे पार हुआ जाये। इसका ज्यादा संबंध है तुम्हारी दासता से, तुम्हारे कारागृह से। और कैसे इसका अतिक्रमण किया जाये, कैसे मुक्त हुआ जाये? इसलिए ‘मोक्ष’ लक्ष्य है, अंतिम लक्ष्य, वास्तविक लक्ष्य। यह कोई सैद्धान्तिक सत्य नहीं है।

      हमने बहुत-से सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं, लेकिन वे सिर्फ उपाय हैं। हमारे पास नौ प्रणलियाँ हैं और बहुत बड़ा साहित्य है। सर्वाधिक समृद्ध साहित्यों में से एक परन्तु हमारे सारे सिद्धान्त अर्थपूर्ण नहीं हैं। हमने बहुत से विचित्र सिद्धान्तों को निर्मित किया है। लेकिन बुद्ध तथा महावीर कहते हैं कि यदि कोई सिद्धान्त बन्धन से पार जाने में मदद करते हैं, तो वे ठीक हैं।

किसी भी सिद्धान्त के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है कि वह सही है या गलत है, उसके तर्क-वितर्क पर भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उसका उपयोग करो और पार चले जाओ।

      नाव के बारे में सोचना-विचारना कैसा? यदि वह तुम्हें नदी पार करने में सहायता करे, तो नदी के पार चले जाओ। पार जाना अर्थपूर्ण है, नाव तो अर्थ हीन है। अतः कोई भी नाव काम दे देगी। इसीलिए हिन्दुओं ने एक अगूठा सहिष्णु मन विकसित किया, वह एक मात्र सहिष्णु मन है। एक ईसाई सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ होगी। एक मुसलमान सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ भी होगी ही।

       इसमें उसका दोष नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि उसके लिये नाव बहुत महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि तुम केवल इसी नाव से नदी के पार जा सकते हो। दूसरी नावें ‘नाव’ नहीं हैं, वे सब नहीं हैं। दूसरा किनारा इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इस किनारे की यह नाव ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए यदि तुमने गलत नाव चुनी तो तुम उस किनारे नहीं पहुँच सकोगे। परन्तु हिन्दू मन कहता है कि कोई भी नाव काम दे देगी। नाव असंगत है।

सब सिद्धान्त नावें हैं। यदि तुम ठीक से दूसरे किनारे पर दृष्टि लगाये हो, यदि तुम्हारी आँख दूसरे किनारे पर लगी हुई है, यदि तुम्हारा मन दूसरे छोर का ध्यान कर रहा है, तो फिर कोई भी नाव काम दे देगी। और यदि तुम्हारे पास कोई नाव नहीं है, तो तुम तैरो।

      प्रत्येक व्यक्ति पार जासकता है, किसी भी संगठित नाव की आवश्यकता नहीं है। तैरो और यदि तुम हवा के रुख को जानते तो तुम्हें तैरने की भी जरूरत नहीं है। तब सिर्फ बहो। यदि तुम हवा के रुख को ठीक दिशा में हवा को बहने दो। फिर सिर्फ गिर पड़ना और छोड़ देना, और हवायें स्वयं तुम्हें उसे पार ले जायेंगी।

किसी नाव ने कोई ठेका नहीं ले लिया है। बिना नाव के भी कोई तैर सकता है। और यदि कोई आदमी बुद्धिमान है तो तैरने की भी जरूरत नहीं है, वह भी व्यर्थ है। यह आखिरी बात है जो कि बुद्धि से समझ में नहीं आयेगी। वे कहते हैं कि यदि तुम समग्र रूप से छोड़ दो, और विश्राम में आ जाओ तो यह किनारा ही वह किनारा है। तब कहीं जाना नहीं हैं। यदि तुम पूर्णरूप से विश्राम में हो, और पूर्णरूप से समर्पित हो, तो फिर यह किनारा ही वह किनारा है।

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