अग्नि आलोक
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कहानी- अनोखा मित्र

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– प्रकाश

शाम का अंधेरा घिर आया था. छड़ी टेकते हुए वृद्ध बनवारीलाल जी.एम. (जनरल मैनेजर) के बंगले के सामने आकर रुक गए. वे अभी भी तय नहीं कर पा रहे थे कि जी.एम. से मिलने जाएं या नहीं? ऊहापोह में वहीं ठिठककर खड़े रहे. आख़िर जी को कड़ा किया और लोहे का छोटा फाटक खोल अंदर दाखिल हुए. सामने लॉन में कोई नहीं था. ईश्वर का स्मरण कर वे आगे बढ़े. कुछ क़दम चलने के बाद उन्हें पोर्च में साहब की कार नज़र आई.

‘मतलब साहब दौरे से लौट आए हैं.’ उत्साह से उनकी धड़कन सहसा बढ़ गई. उन्होंने शीघ्रता से शेष रास्ता पार किया. बरामदे में आ जूते खोले और कांपते हाथों से कॉलबेल का बटन दबा दिया, कॉलबेल की मधुर ध्वनि से विशाल बंगला गूंज उठा. कुछ क्षण पश्चात किसी के निकट आने की पदचाप सुनाई दी. अगले ही पल अर्दली ने द्वार खोल अदब से पूछा, “कहिए.”

“जी, साहब हैं.”

“जी हां.”

“मुझे मिलना था… बस पांच मिनट के लिए.”

“आइए.” कहते हुए अर्दली ने ससम्मान रास्ता बतलाया.

झिझकते हुए बनवारीलाल ने बैठक में प्रवेश किया. जी.एम. के बंगले पर वे पहली बार आए थे. वहां की भव्य साज-सज्जा देख वे अभिभूत हो उठे. संकोचपूर्वक चलते हुए वे एक सोफ़े में सिकुड़कर धंस गए.

उनका नाम पूछ अर्दली अंदर चला गया. बनवारीलाल अपने में सिमटे बैठक का जायजा लेने लगे. सामने कलात्मक शो केस में गणेशजी की भव्य प्रतिमा विराजमान थी. उन्हें निहारतें हुए बनवारीलाल मन-ही-मन बातचीत की योजना बनाने लगे,

तीन-चार मिनट बाद अर्दली वापस आया. उसके हाथ में शरबत की ट्रे थी. आदरपूर्वक शरबत पेश कर उसने विनम्रता पूर्वक कहा, “साहब तैयार हो रहे हैं. पांच-सात मिनट लगेंगे. कृपया तब तक इंतज़ार कीजिए.” और वापस अंदर चला गया.

बनवारीलाल संकोचपूर्वक शरबत की चुस्की लेने लगे.

लगभग पांच मिनट पश्चात साहब आए. बनवारीलाल तत्क्षण अदब से खड़े हो गए, “प्रणाम साहब.”

“अरे वाह।” उन्हें देखते ही अभिवादन का ससम्मान प्रत्युत्तर दे साहब खिल उठे. “कब पधारे आप?”

“जी, आज ही.”

“और सब ठीक है?” साहब ने उन्हें अपने साथ बैठा लिया, “रिटायर होने के बाद शायद पहली बार मिल रहे हैं आप?”

“जी हां.” साहब की आत्मीयता से बनवारीलाल अभिभूत हो उठे.

“कितना समय हो गया होगा आपको रिटायर हुए? मेरा ख़्याल है- सालभर?”

“जी हां, एक वर्ष और दो माह.”

“समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला.” साहब ने घनिष्ठता से उनके कंधे पर हाथ रखा. “स्वास्थ्य वगैरह सब अच्छा है न?”

“जी हां.”

“और सुनाइए…” साहब के होंठों पर स्निग्ध मुस्कान उभर आई, “कैसी चल रही है रिटायर्ड लाइफ?”

“…!” बनवारीलाल के हृदय की धड़कनें सहसा बढ़ गईं. उन्हें लगा, यही माकूल क्षण है साहब से शिकायत करने का. उन्होंने हाथ जोड़ याचनापूर्ण नज़रें साहब के चेहरे पर गड़ा दीं, “एक प्रार्थना थी साहब.”

“हां, हां कहिए ना? इतना संकोच क्यों कर रहे हैं?”

“जी…” बनवारीलाल अब भी झिझक रहे थे.

“दरअसल कार्यालयीन कार्य था. आप कहेंगे… बंगले पर आकर…”

“कोई बात नहीं.” साहब ने उन्हें आश्वस्त किया, “उसूलों में कभी-कभी ढील दी जा सकती है. फिर अब तो आप रिटायर हो चुके हैं, दूसरे शहर में रहते हैं. आप निःसंकोच कहिए.”

बनवारीलाल का स्वर यकायक थरथरा उठा, “साहब! मेरे पी.एफ. का और अन्य फंड्स का पैसा दिलवा देते तो बड़ी मेहरबानी होती.”

“पी.एफ. और अन्य फंड्स?” साहब बुरी तरह चौंक पड़े. “क्या कह रहे हैं आप? आपको अभी तक मिले नहीं?”

“नहीं साहब.” साहब की प्रतिक्रिया से बनवारीलाल को उम्मीद बंधती महसूस हुई.

“अजीब बात है.” साहब के चेहरे पर हैरतभरी उलझन उभर आई, “साल भर से अधिक हो गया और आप अभी तक चुप बैठे हैं?”

“चुप नहीं बैठा साहब.” बनवारीलाल की उत्तेजना एकदम बढ़ गई, “कई बार कोशिश की. बीसियों चक्कर लगा चुका हूं दफ़्तर के.”

“फिर भी नहीं हुआ?”

“नहीं साहब.”

“हद है!” साहब झल्ला गए, “एक ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ रह चुके कर्मचारी के संग यह सलूक?”

“…!” बनवारीलाल की आंखों की चमक बढ़ गई.

“वैसे…” साहब ने याददाश्त पर ज़ोर देते हुए अपनी नज़रें उनके चेहरे पर टिका दीं.

“फंड्स आदि का काम तो रामप्रसादजी देखते हैं ना?”

“जी हां.”

“वो तो आपके मित्र हैं न?”

“ज्… जी..!” बनवारीलाल ने जुबान काट ली.

“फिर कहा नहीं उनसे? मित्र का काम…”

“काहे की मित्रता साहब.” बनवारीलाल के कलेजे से ठंडी आह निकल गई, “दफ़्तर छूटा, मित्रता भी टूट गई. चक्कर पर चक्कर लगवाए जा रहे हैं.”

“मैं समझा नहीं, किस बात के चक्कर?”

“अरे फ़िजूल में ही…” बनवारीलाल का स्वर कांप उठा, “कभी यह जानकारी छूट गई. कभी यह एंट्री गलत कर दी.”

“आपने कहा नहीं- एक बार में सब तफ़सीर से बतला दें?”

“कहा था. झल्ला जाते हैं- सब लिखा तो है फार्म में!”

“…!” हैरत से साहब स्तब्ध हो गए. उन्हीं की कंपनी में, उन्हीं की नाक के नीचे… इतनी लालफीताशाही? उनके जबड़े कस गए.

बनवारीलाल के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

कुछ क्षण के मौन के बाद साहब ने सहानुभूतिपूर्वक उन्हें निहारा, “मुझे बेहद खेद है बनवारीलालजी. कंपनी के इतने पुराने और ईमानदार मुलाज़िम होने के बावजूद आपको परेशानियां उठानी पड़ीं, आप एक बार भी मुझसे मिल लेते…”

“आप इतना व्यस्त रहते हैं. महीने में पच्चीस छब्बीस दिन अन्य ब्रांचों के दौरे… इत्तफ़ाक़ से आज आप यहीं थे…”

“खैर! जो हुआ सो हुआ…” मृदुल मुस्कान बिखेर साहब ने उन्हें आश्वस्त किया.

“अब आप रत्तीभर चिंता न करें. कल आपका काम निश्चित रूप से हो जाएगा.”

“सच साहब.” आह्लाद से बनवारीलाल का गला हठात् संध गया. कृतज्ञतापूर्वक उन्होंने हाथ जोड़ लिए. “बहुत-बहुत मेहरबानी होगी साहब आपकी. मेरा दिल ही जानता है, कितनी परेशानी होती है मुझे बार-बार गांव से यहां आने में?”

“गांव से आने में?” साहब एकदम चौंके, “मैं समझा नहीं, कौन से गांव से आने में? आप तो शायद रायपुर रहने लगे हैं न, अपने बड़े बेटे के पास?”

“ज्… जी!” बनवारीलाल सहसा संकोच में पड़ गए.

“फिर ये गांव?”

बनवारीलाल अटकने लगे, “जी वो चालीस-पैंतालिस किलोमीटर पर एक ग्राम मांचल है. जीरापुर से नौ किलोमीटर अंदर…”

“हां हां सुना तो है. नदी किनारे कोई पुरानी गढ़ी है.”

“जी हां वहीं. वहां खेती है छोटी-सी… साढ़े छह बीघा की.”

“अच्छा-अच्छा. उसे बटाई पर देने आए होंगे अभी रायपुर से?”

“जी..” बनवारीलाल संकोच से वहीं सोफे में धंस गए. “अ… आऽजकल… मैं वहीं रहता हूं.”

“वहां!” साहब की आंखें आश्चर्य से फैल गईं. “उस सुविधाहीन गांव में?”

“…!” बनवारीलाल सिर झुकाए अपने में और सिमट गए.

“मेरा ख़्याल है शायद बसें भी नहीं जातीं वहां? तीन-चार किलोमीटर पैदल जाना होता है?”

‘हां’ में बनवारीलाल ने सिर हिला दिया.

“फिर ऐसे सुविधाहीन गांव में रहने की क्या सूझी आपको? रायपुर में मन नहीं लगा आपका?”

“…!” जवाब देने की बजाय बनवारीलाल सिर झुकाए बैठे रहे. उनकी आंखों की कोरों पर आंसू चमकने लगे,

साहब गहरी नज़रों से अब भी उन्हें भांप रहे थे. उन्होंने भेदते स्वरों में उनके दिल को कुरेदा, “आपने जवाब नहीं दिया बनवारीलालजी? रायपुर में मन नहीं लगा क्या आपका?”

भला क्या जवाब देते बनवारीलाल? क्या अपने ही घर का दुखड़ा रो देते साहब के सामने? और वह भी अपनी औलाद के विरुद्ध! होंठ भींचे सिर झुकाए बैठे रहे.

साहब की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. उन्होंने बालकों के से कौतूहल से पूछा, “आपके दो पुत्र और हैं न जबलपुर और इटारसी में?”

‘हां’ में बनवारीलाल ने हौले से सिर हिला दिया.

“वे भी शायद अच्छे ओहदों पर हैं? ख़ुद के बंगले हैं? उनके यहां गए थे?”

“जी!” फटी धौंकनी-सी उनके गले से आवाज़ निकली.

“फिर वहां भी नहीं रहते? ऐसी कमज़ोर वृद्धावस्था में… आपकी पत्नी को तो गठिया है न?”

बनवारीलाल का हृदय फट पड़ने की सीमा तक भर आया. अपने मन का सैलाब रोकना उनके लिए दुश्वार हो गया. आख़िर क्या मज़ा मिल रहा है साहब को मेरा ज़ख़्म कुरेदकर?

साहब भी उन्हें उन लोगों सरीखे हल्के लगने लगे, जिन्हें दूसरों की ढंकी उघाड़ने में मज़ा आता है.

मन तो हुआ, साहब का बंगला तुरंत छोड़ दें, मगर बनता काम बिगड़ जाने की आशंका थी. इसलिए मन मसोसकर सिर झुकाए चुपचाप बैठे रहे.

साहब आज कुछ विचित्र मूड में थे, बनवारीलाल के निजी जीवन के प्रति उनकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, “मेरी समझ में नहीं आता, आप स्वयं इतने कमज़ोर, पत्नी बीमार, उस सुविधाहीन गांव में रहने की बजाय आप यहीं क्यों नहीं रहते, अपने घर?”

‘अपना घर!’ सुनते ही एक हूक-सी उठी बनवारीलाल के हृदय में. थरथराती आवाज़ में उन्होंने अपना पथराया चेहरा ऊपर उठाया, “घर तो बेच दिया था साहब!”

“बेच दिया था?” हैरत से साहब ने उन्हें घूरा, “कब?”

“रिटायर होने के ३-४ माह पूर्व.”

“क्यों?”

जवाब देते हुए बनवारीलाल को गले में कांटे चुभने लगे. “तीनों बेटे-बहू ज़ोर देने लगे कि रिटायर होने के बाद तो हम पति-पत्नी को उन लोगों के पास ही रहना होगा. यहां इतनी दूर, सूने मकान की देखभाल कौन करेगा? किराए पर देने में भी ख़तरे हैं…”

“और आपने घर बेच दिया?”

“जीऽऽऽ!” पछतावे के शूल से वे कराह उठे.

आज भी वे उस पल को कोसते रहते हैं, जब तीनों बेटे-बहुओं के बहकावे में आकर उन्होंने अपना घर बेच दिया था. काश! न बेचा होता! शहर में रहने का ठौर तो रहता! भले ही छोटा-सा घर था. कहने को तो रहता कि अपने स्वयं के घर में रह रहे हैं.

सैकड़ों शूल खच्-खच् कर उनके हृदय में चुभने लगे. कितनी भारी ग़लती कर बैठे थे वे. लोग तो ज़िंदगीभर पैसा-पैसा जोड़कर बुढ़ापे के नीड़ का इंतज़ाम करते हैं और उन्होंने बना-बनाया अपना नीड़ बेच दिया और पैसा बांट भी दिया तीनों में बराबर,

“ऐसा क्यों कर दिया आपने?” तरस खाते हुए साहब बुरी तरह कलप उठे, “कम से कम पैसा तो अपने पास रखना था.”

“अब साहबजी…” याद करते हुए बनवारीलाल का हृदय हाहाकार कर उठा, “मैंने सोचा पैसा कहां छाती पर बांधकर ले जाना है? मरने के बाद तो तीनों का ही है…”

“मरने के बाद न? और जीते जी?” साहब की आत्मा भी बुरी तरह तड़प उठी.

“बनवारीलालजी! सूरज भी सांझ को जब अस्ताचल को जाता है, तो चंद्रमा के पास अपनी रोशनी संजोकर रखता है- रात के सहारे के लिए! और आपने? कुछ भी नहीं रखा अपने पास, बांट दिया सब. कम से कम अपनी वृद्धा बीमार पत्नी का तो ख़्याल किया होता. पूरी मुट्ठी खोल दी?”

“…!” बनवारीलाल को अब और जज्ब करना दुश्वार हो गया. इतने दिनों का दर्द, जो अंदर-ही-अंदर रोक रखा था, साहब के सहानुभूतिपूर्ण रुख का स्पर्श पाते ही लावा बनकर फूट पड़ा. हाथों में मुंह छुपा वे फफक-फफक कर रो पड़े एक नन्हें से बच्चे की तरह.

दुनिया की भीड़ में लुट चुके एक नादान, अनाथ, असहाय बच्चे की तरह, उनका करुण रुदन रोके ही नहीं रुक रहा था, “… कुछ नहीं बचा साहब मेरे पास, कुछ भी नहीं… ले-देकर बस ये मांचल वाली ज़मीन है. दाम कम रहे थे उस वक़्त, भगवान ने कुछ ऐसी बुद्धि दे दी कि बेची नहीं. लड़कों को भी जानकारी नहीं थी उसकी, वरना…”

साहब स्तब्ध सुनते रहे.

बनवारीलाल सोफे से उतर गिड़गिड़ाने लगे, “मेरे फंड्स के पैसे दिलवा दो साहब, बड़ी मेहरबानी होगी, बार-बार मेरे बूते का नहीं रहा किराया लगाकर आना. एक रुपया ख़र्च करना भी… बहुत सोचना पड़ता है साहब मुझे.”

साहब को अब और सुनना दुश्वार हो गया. पिता के उम्र का एक वृद्ध इंसान उनके सामने इस तरह..? उन्होंने खींचकर वृद्ध बनवारीलाल की कृशकाया को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. भावातिरेक में उनसे बोला नहीं जा रहा था. किसी तरह दिल पर क़ाबू पा उन्होंने संधे कंठ बनवारीलाल को आश्वस्त किया, “अब आप रत्तीभर चिंता न करें बनवारीलालजी, आपका काम हो गया समझो. ब्याज समेत एक-एक पैसा आपको मिल जाएगा.”

“सच साहब!” कृतज्ञता से बनवारीलाल की सूनी आंखें चमक उठीं.

‘हां’ में सिर हिलाते साहब आत्मीयता से मुस्कुरा दिए, “अब तो ख़ुश?”

आह्लादित बनवारीलाल ने उनके हाथों को अपनी सजल आंखों से लगा लिया.

“अच्छा बनवारीलालजी,” उनकी पीठ थपथपा साहब ने उनके मन को खंगाला, “फंड्स का पैसा मिलने के बाद आपकी क्या योजना है?”

“बस… ये पैसे मिल जाएं, बैंक में एफ. डी. कर दूंगा. फिर ब्याज से…”

“और रहेंगे कहां?”

“मांचल वाली ज़मीन बेचकर यहीं शहर में छोटा-सा घर ले लूंगा.”

“रायपुर या अन्य बेटों के पास नहीं जाएंगे?” कटुता और नैराश्य से उनके होंठ फड़फड़ा कर रह गए.

साहब उनके चेहरे पर आते भावों को भांपते रहे. कुछ क्षणों के मौन के बाद उन्होंने गहरे स्वरों में पूछा, “बनवारीलालजी, क्या आपको मालूम है आपके फंड्स के काम में अड़ंगे कौन डाल रहा था? किसकी हरकत होगी यह?”

“जाने दो साहब, मेरा काम बन गया, अब मेरे मन में कोई कटुता नहीं.”

“फिर भी… कौन होगा वह अड़ंगेबाज?”

“है तो वहीं, जो कभी मेरे मित्र राम प्र…”

“नहीं बनवारीलालजी, वे नहीं मैं, मैं स्वयं आपका जी.एम..!”

“अ..आऽऽऽप!” हैरत से बनवारीलाल की आंखें फैल गईं. अविश्वास से वे साहब को देखते रहे.

“हां बनवारीलालजी! मेरे ही कहने पर रामप्रसादजी टालमटोल कर रहे थे.”

बनवारीलाल को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था.

साहब बेहद गंभीर थे, “आपकी रिटायरमेंट के महीनेभर पूर्व रामप्रसादजी मेरे पास आए थे और उन्होंने ही ऐसा करने के लिए मुझसे अनुरोध किया था.”

“म्… मगर क्यों?”

“बनवारीलालजी!” साहब की आवाज़ भारी हो गई, “आपकी आंखों पर ममता की पट्टी बंधी थी. आप कुछ देख नहीं पा रहे थे. मगर रामप्रसादजी ने सब भांप लिया था.”

“क्या?”

“आपके बेटे-बहुओं में से एक भी आपकी सेवा नहीं करने वाला. सबके सब अपने-अपने हिस्से पर नज़रें गड़ाए थे.”

“…?” बनवारीलाल की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.

साहब एक-एक शब्द तौलते हुए गहराई से उन्हें घूर रहे थे. “बनवारीलालजी, यदि फंड्स के ये पैसे भी रामप्रसादजी रिटायरमेंट के दिन ही दिलवा देते तो…”

“तो?” बनवारीलाल का कलेजा मुंह को आ गया. वे तो इनका बंटवारा भी तीनों में..?

“फिर आज क्या करते आप, आप?”

सोचकर ही बनवारीलाल भीतर तक दहल उठे. क्या हालत होती उनकी आज? उनके नेत्र पुनः छलछला आए, वे व्यर्थ ही अपने मित्र को दोष देते रहे. मगर उसने तो..? उनका दिल अपने मित्र से मिलने को तड़प उठा. वे जाने के लिए तत्क्षण उठे. तभी उन्होंने देखा- रामप्रसाद ठीक उनके पीछे खड़े हैं, “रामप्रसाद…” कहते हुए वे उनके गले लग फूट-फूटकर रो पड़े. दोस्ती का फ़र्ज़ कैसे अनोखे अंदाज़ में निभाया था इस निर्मोही ने!

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