अग्नि आलोक
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*कहानी : काठ की गुड़िया*

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         सोनी तिवारी, वाराणसी

  साक्षात भूकंप का अनुभव किया है अभी? कहते हैं, जब भूकंप आता है, तब धरती कांपती है, इमारतें टूटती हैं और बस्तियां की बस्तियां वीरान हो जाती हैं. मेरे निजी जीवन में भी ऐसा भूकंप आया था, जिसमें मेरा घर उजड़ा था, मन टूटा था और सपने तहस-नहस हो गए थे, लेकिन चारों ओर पूर्ववत् शांति बनी रही. आसपास किसी को न तो कुछ दिखाई दिया और न उन्होंने कोई आवाज़ ही सुनी. एक बात और- भूकंप के गुज़र जाने के पश्‍चात् कई हाथ सहायतार्थ आगे बढ़ आते हैं, जबकि मैं तो नितांत अकेली खड़ी रह गई थी- अतीत के खंडहरों पर.

     सात वर्ष के ख़ुशहाल विवाह के बाद देवव्रत ने अचानक ऐलान कर दिया कि वह दूसरा विवाह कर रहे हैं. यूं उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं थी, उन्हें एक बेटा चाहिए था बस. और पांच वर्ष पूर्व पारुल के जन्म के समय डॉक्टर ने आगाह कर दिया था कि मैं अब दोबारा मां नहीं बन पाऊंगी. अभी तक तो मजबूरन ख़ामोश रहे देव, पर अब उन्हें अपनी एक पुरानी सहपाठिन मिल गई थी- समीरा, जिसने अपना करियर बनाने के जुनून में अब तक विवाह नहीं किया था और अब करना चाहती थी. कितना अस्थिर हो सकता है मानव मन! एक दिन यही देवव्रत मेरे प्यार में इतने बावले थे कि मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं करने दी.

      एक संबंधी के घर विवाह में देव ने मुझे देखा, तो अपने अभिभावकों को हमारे घर मेरा रिश्ता मांगने ही भेज दिया. मैं तब बीए के अंतिम वर्ष में थी. पापा कहते थे कि मेरे पास अपने पैरों पर खड़ा होने लायक डिग्री अवश्य होनी चाहिए. वह भी नहीं तो कम से कम मैं अपना बीए तो पूरा कर ही लूं, लेकिन देव उतना भी रुकने को तैयार नहीं थे.

“मेरा अपना कारोबार है, मुझे कौन-सा इससे नौकरी करवानी है, जो डिग्री की आवश्यकता पड़े.” उनका तर्क था. मैं भी तो बह गई थी उनके प्यार में. ऐसा तो मैंने अब तक कहानियों में ही प़ढ़ा था और रजत पटल पर ही देखा था. वही सब अब मेरे जीवन में घट रहा था और मैं उस बयार में बिना पंख उड़ने लगी थी.

दुल्हन बन इस घर में आई, तो प्रिय का ढेर सारा अनुराग मिला मुझे. वह सब झूठ था क्या? बस, इतनी-सी ही होती है प्यार की वास्तविक उम्र? हम इन्हीं रिश्तों को जन्म-जन्मांतर तक निभाने की बात करते हैं! प्यार में पूर्ण समर्पण ही करती है स्त्री. बिना संदेह, बिना किसी प्रश्‍न के तन से, मन से और यदि संभव हो, तो शायद आत्मा से भी. मेरी जगह यदि देव होते तो? वही किसी कारणवश पिता बनने में अक्षम हो गए होते, तो क्या मैं उन्हें छोड़ जाती? कदापि नहीं. मेरे मन में तो शायद उनके प्रति क्रोध भी न उपजता और कितनी निष्ठुरता से मुंह मोड़ लिया था देव ने!

     यूं तो पुरुष चाहता है कि स्त्री कोमलांगी छुईमुई-सी केवल उसी को समर्पित रहे, पर वह जब चाहे उसे सड़क पर खड़ा कर सकता है- अकेली और असहाय!

निष्ठा और प्रतिबद्धता क्या सिर्फ़ स्त्रियों के लिए ही होती है? मेरे भीतर सवालों का एक बवंडर उमड़ रहा था. अपने ऊंचे सिंहासन पर बैठ देव ने इतनी कृपा अवश्य की थी कि मुझे घर छोड़ने को नहीं कहा था. मैं और पारुल ऊपर की मंज़िल पर शिफ्ट कर दिए गए थे. दूसरे ही दिन देवव्रत मंदिर में समीरा को ब्याह घर भी ले आए. पत्थर के देवता सब देखते रहे और मुस्कुराते रहे. मंदिर के पुजारी, जो मुझे अच्छी तरह से पहचानते थे, उन्होंने भी कोई आपत्ति नहीं की फेरे डलवाने में. अपने धनी यजमान को नाख़ुश कैसे कर देते?

      बड़ा-सा घर था हमारा और बीच में चौक. सो नीचे की गतिविधियां ऊपर दिखाई देती थीं. क्या लगता था देव को? मैं कोई काठ की गुड़िया हूं कि उन्हें किसी अन्य स्त्री के साथ देख बुरा नहीं लगेगा मुझे? अपमानित महसूस नहीं करूंगी मैं? क़ानूनन तो मैं देव पर दूसरा विवाह करने पर मुक़दमा भी चला सकती थी, पर न तो मुझमें इतना मनोबल था, न ही धन. अपनी रोज़ाना की ज़रूरतों के लिए भी मैं व पारुल उन्हीं पर निर्भर थे और यह कटु सत्य जानते थे देवव्रत.

कहते हैं कि जब हमारे लिए कोई किवाड़ बंद कर दिया जाता है, तो कहीं न कहीं कोई खिड़की अवश्य खुल जाती है. मेरे लिए तो बहुत अनपेक्षित जगह पर खुली थी यह खिड़की.

       देवव्रत ने शायद मेरठ रहती अपनी मां एवं विवाहिता छोटी बहन मिताली को अपने नए विवाह की ख़बर कर दी थी. अगले दिन सुबह ही मैंने देव के साथ उन दोनों को नीचे आंगन में चाय पीते देखा. मां तो बहुत प्रसन्न लग रही थीं. उनकी बरसों से पोता पाने की संभावना जो बन गई थी. पोते के बिना उनका वंश कैसे चलेगा और श्राद्ध कौन करेगा? इस बात की उन्हें सदैव चिंता रहती थी, जो क्रोध बनकर अक्सर मुझ पर निकलती थी.

      मिताली अपने बड़े भाई का बहुत सम्मान करती थी. बचपन में ही अपने पिता को खो देने से उन्हें पितृतुल्य ही मानती थी. मैंने उसे कभी भाई के साथ ऊंची आवाज़ में बात करते नहीं सुना था. किंतु आज बातें समझ न आने पर भी उसकी भाई के साथ विवाद करने की आवाज़ स्पष्ट आ रही थी.

पारुल को खिला-पिलाकर मैं कमरे में परेशान बैठी थी. सबसे बड़ी चिंता तो मुझे अपनी नन्हीं-सी बिटिया की थी. कितने नाज़ों से पाला था मैंने इसे. हरदम गुड़िया की तरह सजाकर रखती. नित नए डिज़ाइन्स के कपड़े बनाती. फ्रॉकों पर तो क्या, उसकी बनियानों पर भी कढ़ाई करती. उसी के भविष्य को लेकर परेशान थी मैं. अभी तो नासमझ है. समझने लगेगी, तो कैसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाएगी वह. लड़की होने का दंड मिला था उसे व उसकी मां को.

  लेकिन लड़की होना अपराध क्यों है? कैसे समझा पाऊंगी उसे यह बात? बेटों से यदि वंश चलता है, तो यह परंपरा, तो हमारे समाज की स्वयं की बनाई हुई है न? काश! मैं इस क़ाबिल होती कि अपनी बेटी को इस माहौल से कहीं दूर ले जाकर स्वयं उसकी परवरिश कर सकती.

अवसाद से घिरी बैठी थी कि किवाड़ खटका और कुछ पल बाद मिताली मेरे सामने थी. मेरी पहली प्रतिक्रिया तो उससे मुख मोड़ लेने की हुई, पर उसके चेहरे के भाव ने मेरा निश्‍चय डिगा दिया. मेरी हमउम्र है वह. मृदुभाषी और सीधी लीक पर चलनेवाली. लेकिन आज मैंने उसका आत्मविश्‍वास से भरा एक नया रूप ही देखा. सबसे पहले तो वह थाली में भोजन परोस लाई और आग्रहपूर्वक मुझे खिलाने लगी. स्नेहसिक्त इस धमकी के साथ कि यदि मैं नहीं खाऊंगी, तो वह भी भूखी रहेगी. बोली, “पारुल को पालने की पूरी ज़िम्मेदारी अब तुम्हारे कंधों पर है, पर यह मत सोचना कि तुम अकेली हो. मैं दूंगी तुम्हारा साथ.”

      मिताली मुझे उस घुटन से निकालकर अपने साथ मेरठ ले आई और अपने घर के पास ही एक कमरा किराए पर दिलवा दिया. नौकरी करने लायक तो कोई डिग्री थी नहीं मेरे पास, सो अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कोई अन्य उपाय सोचना था. मैंने अपने शौक को ही अपनी आमदनी का ज़रिया बनाना तय किया. इसमें बहुत अधिक निवेश की भी ज़रूरत नहीं थी.

एक सिलाई की मशीन ख़रीद मैंने अपना काम शुरू कर दिया. मिताली ने अपने परिचितों से कहकर शुरू में कुछ काम भी दिलवा दिया.

     मैंने स्वयं को अपने पुराने जीवन से बिल्कुल काट दिया, उन यादों को भी पास न फटकने दिया और स्वयं को काम में डुबो दिया. रात देर तक लगी रहती. दिन में कमरा सिलाई के काम आता और लोगों का आना-जाना लगा रहता. रात को सब कुछ किनारे कर हम मां-बेटी वहीं सो जातीं. धीरे-धीरे कई स्थायी ग्राहक बन गए और सहायता के लिए मुझे अन्य कारीगरों को लगाना पड़ा.

      मिताली ने न सिर्फ़ मेरी आर्थिक सहायता की थी, बल्कि मेरा मनोबल भी बढ़ाए रखा था. पैसा तो मैंने बाद में लौटा भी दिया, पर उसके एहसान किसी भी तरह लौटा नहीं पाऊंगी. सोचती हूं इसी तरह यदि सब स्त्रियां एक-दूसरे की सहायता करें, तो स्त्रियों की अनेक समस्याएं हल हो जाएं. मिताली ने भी अपने प्रयत्नों से पारुल को अच्छे स्कूल में भर्ती करवा दिया.

मैंने निश्‍चय कर रखा था कि पारुल को अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम बनाऊंगी, ताकि उसे किसी पुरुष पर पूर्ण रूप से आश्रित न होना पड़े. एकदम परिवर्तित रूप से ही सही, जीवन एक बार फिर ढर्रे पर चल पड़ा था. समय यदि भाग नहीं रहा था, तो भी आगे तो खिसक ही रहा था और एक दिन पारुल ने अपनी पढ़ाई भी पूरी कर ली और नौकरी करने लगी. घर भी हमने बड़ा ले लिया था.

पारुल चाहती थी कि अब मैं काम बंदकर आराम करूं, पर अब तक मेरा काम काफ़ी फैल चुका था, उसमें अनेक महिलाओं को रोज़गार मिला हुआ था. काम बंद करने से वह सब बेरोज़गार हो जातीं. दूसरे विवाह से देवव्रत को बेटा तो मिल गया और कुछ वर्ष मौज-मस्ती में भी बीते, पर बेटा जब लगभग बारह वर्ष का हुआ, तो उसकी मां समीरा को गर्भाशय का कैंसर हो गया.

     ऑपरेशन हुआ और वर्षों इलाज भी चलता रहा, लेकिन तब तक बीमारी काफ़ी फैल चुकी थी और उस पर विजय पाना डॉक्टरों के बस में न रहा. और समीरा देवव्रत का साथ छोड़ गई. बेटा तो पहले ही अधिक लाड़-प्यार में बिगड़ चुका था, अब तो उसे देखनेवाला भी कोई न था. कुछ बिगड़ैल क़िस्म के लड़कों के साथ उसकी दोस्ती हो गई थी, जिनका एकमात्र शग़ल धन उड़ाना ही था. देव उस पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे, तो मिताली के ज़रिए मुझ तक संदेशे भिजवाने शुरू किए.

     वे चाहते थे कि मैं आकर घर संभाल लूं और उनके बेटे को भी. यह भी इशारा किया कि वह अपनी कोठी पारुल के नाम कर देंगे.

मिताली अपने भाई का संदेशा अवश्य मुझ तक पहुंचा देती, पर निर्णय सदैव उसने मुझ पर ही छोड़ा. देव को शायद लगता था कि मैं उनका निमंत्रण पा फ़ौरन लौट आऊंगी. तलाक़ की क़ानूनी कार्रवाई तो कभी हुई नहीं थी, सो वह शायद अब तक मुझ पर अपना अधिकार समझते थे. भूल गए थे कि जिसे उन्होंने मात्र अपनी कठपुतली समझ रखा था, उसकी डोर उनके हाथों से कब की छूट चुकी है. मैं उस घर में लौटने को कतई तैयार नहीं थी, जहां से एक दिन अपमानित होकर निकली थी.

मेरा आत्मसम्मान जाग चुका था. मैं अब विवश और असहाय, आर्थिक और सामाजिक रूप से पति पर आश्रित नहीं रह गई थी. बहुत देर से बाहर घंटी बज रही थी. कमलाबाई किसी काम में व्यस्त थी, इसलिए मैंने ही जाकर दरवाज़ा खोला. सामने देवव्रत खड़े थे. सोच रही थी कि भीतर आने को कहूं अथवा नहीं कि वह स्वयं चलकर भीतर आ बैठे. थके-हारे से. बेवक़्त बुढ़ा गए थे. चेहरे पर सिर्फ़ उम्र ही अपने निशान नहीं छोड़ती, किस भांति जिया गया जीवन इसका निचोड़ भी अंकित हो जाता है चेहरे पर.

      मैं ख़ामोश बैठी रही. कहती भी क्या? न स्वागत में कुछ कहने को मन किया, न ही कुशलक्षेम पूछने की ज़रूरत. सच कहा गया है कि प्रेम की असली त्रासदी यह नहीं कि प्रेमीजन बिछड़ जाते हैं, अपितु असली त्रासदी यह है कि प्रेमी युगल साथ रहते हुए भी उनका आपसी प्यार ख़त्म हो जाता है. एक दिन यही शख़्स मेरे सामने प्रणय निवेदन लेकर खड़ा था और मैं भी कैसी बावरी ही हो गई थी उसके प्यार में. आज उसे देख न मन मचला है, न ही दिल की धड़कन बेकाबू हुई है.

    एक बार नज़र भर देख लेने की भी इच्छा नहीं हुई इस स्वार्थी शख़्स को. एक अजब-सी विरक्ति भर चुकी है मन में.

असहज हो उठे उस मौन को तोड़ते हुए देव ने ही बात शुरू की है, “मैं तुम दोनों को लिवाने आया हूं.”

“क्यों?” मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकला.

“उम्र के इस पड़ाव पर हम दोनों को ही एक-दूसरे की ज़रूरत है इला…” बहुत कुछ कहना चाहा मैंने, मसलन- ‘ज़रूरत तो मुझे तब भी थी देव और देखा जाए, तो कुछ अधिक ही थी. यूं भी हमारे समाज में स्त्री को हर उम्र में पुरुष रूपी कवच की ज़रूरत रहती ही है. तब आपने यह क्यों नहीं सोचा? मेरे लिए न सही अपनी बेटी के लिए ही सोचा होता. परंतु पंद्रह वर्ष पूर्व यह सब सुनने का इनमें धैर्य नहीं था और आज कहने का कुछ लाभ नहीं.’

मैंने बस इतना ही कहा, “मुझे आपकी ज़रूरत तब थी, क्योंकि मैंने स्वयं को आप पर निर्भर बना रखा था, पर आज नहीं है. इतने वर्षों के संघर्ष ने मुझे इतना मज़बूत तो बना ही दिया है कि मैं पुरुष के सहारे बिना जी सकूं.” इस बीच पारुल भी वहां आ बैठी थी.

देव ने आशापूर्ण निगाह उस पर डाली, जिसका मतलब समझ पारुल ने स्वयं ही कहा, “मां की बात तो आप सुन ही चुके हैं. अब रही मेरी बात, तो मुझे आपकी वह कोठी नहीं चाहिए. जब मुझे उस घर की सुरक्षा की ज़रूरत थी, तब तो वह मुझे मिली नहीं और आज मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है. मां को बेटी पैदा करने की सज़ा दी थी आपने. बहुत ज़िल्लत व कष्ट झेलने पड़े थे मां को इस अपराध के लिए, पर अब मैं बड़ी हो गई हूं. यथासंभव प्रयत्न करूंगी कि मां का शेष जीवन सुखमय बीते.

     इस तरफ़ से आपको चिंता करने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं और अपने लायक घर भी बनवा ही लूंगी, इतना सामर्थ्य है मुझमें. अब रही बात आपकी, यदि आपको अपने बेटे पर भरोसा न हो, यदि वह आपकी देखभाल करने में सक्षम न हो, तो मुझे बताइएगा. बेटी हूं तो क्या, मैं करूंगी आपकी देखभाल की व्यवस्था. मानवता के नाते हम अजनबियों की देखभाल भी तो करते ही हैं न!”

“अपने किए की सज़ा भुगत रहा हूं आज. क्या तुम मुझे माफ़ नहीं करोगी?” देवव्रत ने एक बार फिर एक दयनीय दृष्टि मुझ पर डाली, पर वह मेरा मन नहीं पिघला सकी.

“इंसान अपनी ग़लती मान ले, तो अवश्य वह माफ़ी का अधिकारी है, लेकिन मैं यह जानती हूं कि तुम जो आज मेरे द्वार पर आए हो, तो इसलिए नहीं कि मेरे लिए तुम्हारा प्रेम जगा है या कि तुम्हें अपने किए पर पछतावा है, बल्कि अपना बिखरा घर संभालने के लिए आज तुम्हें मेरी ज़रूरत आन पड़ी है.

     प्यार तो तुम सिर्फ़ अपने से ही करते हो बस. पर मैं भी कोई काठ की गुड़िया नहीं, जिससे जब चाहा खेल लिया, जब चाहा उठाकर ताक पर रख दिया.

तुम यह अपेक्षा करते हो कि बीच के इतने वर्ष जब मैं अकेली जूझती रही, वह सब रातें, जो मैंने अपने और पारुल के भविष्य की चिंता में जाग कर गुज़ारी हैं, वे सब अपनी स्मृति से पोंछ दूं, तो चलो मैं यह भी प्रयत्न कर सकती हूं, लेकिन मुझे एक बात का सही उत्तर दो. यदि मैं तुम्हारा त्याग कर किसी और के साथ रहने लगती, तो तुम मुझे माफ़ कर देते क्या?” उत्तर इतना स्पष्ट था कि मौन रहने को विवश हो गए देवव्रत.

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