अग्नि आलोक
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कहानी – ये मर्द

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प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता 

     किसी क़िस्म के एहसास के बग़ैर गोबिन्द ने चुपचाप लक्ष्मी की चारपाई के इर्दगिर्द पर्दे लगा दिए, पर्दे… जो लकड़ी के फ्रे़म में सफ़ेद कपड़ा लगाकर बनाए गए थे और हस्ब-ए-ख़्वाहिश खोले या बन्द किए जा सकते थे. तब मिस सुल्ताना और बकेटी तेज़-तेज़ चलती हुई आईं और उनके बाद मतीन और संजीदा डॉक्टर साहब अपने भारी क़दम आहिस्ता-आहिस्ता उठाते हुए पर्दों के अन्दर चले गए.

      कुछ लम्हे तक कमरे में ख़ामोशी छायी रही. सिर्फ़ छत पर लगे हुए सफ़ेद पर्दों वाले पंखे अपनी पूरी रफ़्तार से घर्र-घर्र करते रहे और जून की तप्ती दोपहर अपनी ग़ुनूदगी की सी हालत में चुपचाप पड़ी रही.

यकायक पर्दे के पीछे से कुछ उखड़ी-उखड़ी सांसों की आवाज़ आई, फिर लक्ष्मी के बहके-बहके अलफ़ाज़ और फिर सुल्ताना की लम्बी सांस! डॉक्टर ने कहा,“स्ट्रेचर ले आओ!”

      और ये कहकर पर्दे के पीछे से निकलकर वो जैसे आए थे, वैसे ही चले गए. उनके पीछे रूमाल से आंखें पोंछती हुई सुल्ताना निकली. दूसरी बीमार औरतें तजस्सुस भरी नज़रों से उसकी तरफ़ देख रही थीं. उसके निकलते ही रशीदा ने पूछा,“क्यों?”

    “ख़त्म हो गई!” भरे गले से सुल्ताना ने जवाब दिया.

    “आख़िरी वक़्त क्या कहती थी?” सुरती बोली.

     “सिर्फ़ एक बार खन्ना साहब को याद किया और बस!” और ये कहकर आंसू पोंछती हुई सुल्ताना जल्द-जल्द स्ट्रेचर लेने के लिए चली गई.

लक्ष्मी अपने ख़ाविन्द को खन्ना साहब, कहकर पुकारा करती थी. वो लाहौर ही में मुलाज़िम थे और हर सातवें दिन बाक़ायदा उसे देखने आते थे. कोई ऐसे ख़ुश शक्ल तो न थे, मगर ऐसे भी नहीं कि बदसूरत कहे जा सकें. उनकी आंखों में कुछ ऐसी बात थी कि आदमी बेसाख़्ता उनकी तरफ़ खिंच जाता था और फिर इतनी बातें करते थे, इतने कहकहे लगाते थे कि जब वो आ जाते तो हस्पताल की इस ख़ामोश और साकिन फ़िज़ा में ज़िंदगी-सी दौड़ जाती. फ़क़त लक्ष्मी ही उनके आने का इंतिज़ार करती हो ये बात नहीं. इस खुले और कुशादा कमरे में लोहे की सख़्त, बेदर्द चारपाइयों पर लेटी हुई बुख़ार, हरारत, दवा, परहेज़ की बातें सुन-सुनकर आजिज़ आई हुई दूसरी बीमार औरतें भी उनके आने की राह देखा करती थीं. वो बातें चाहे अपने रिश्तेदारों से करती हों, लेकिन कान उनके उधर ही लगे रहते थे और लक्ष्मी वो तो न जाने ये सात दिन कैसे काटती थी? हंसती थी, दूसरों को हंसाती थी, लेकिन इस तमाम हंसी-ठट्ठे में अपने ख़ाविन्द का इंतिज़ार जैसे उसके दिल के किसी न मालूम गोशे में छुपा रहता था और कौन जानता है कि ये हंसी-कहकहे, हस्पताल में एक बार तूलूअ होकर फिर ग़ुरूब ही न होने वाले, दिनों का काटने का महज़ बहाना न थे. ये बात भी नहीं उसे अपने ख़ाविन्द से इतनी मुहब्बत इस मोहलिक बीमारी के दिनों में हुई, उसी दिन, जब शादी के बाद एक महीना गुज़ारकर वो अपने मैके वापस आई थी तो उसकी सहेलियों ने जान लिया था कि बस्ती की आज़ाद फ़िज़ा में दिन-रात खेलने वाली, गली-मोहल्लों को अपने कहकहों से गुंजा देने वाली लक्ष्मी अब मुहब्बत की ज़ंजीरों में जकड़ी गई है.

जब सहेलियां उसे चारों तरफ़ से घेरकर बैठ गई थीं तो उसने फ़ख़्र से कहा था,“उनकी बात पूछती हो? वो तो मुझे पल भर के लिए भी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते. कितनी-कितनी देर मेरी तरफ़ देखते रहते हैं और कहते हैं…”

      फ़र्त-ए-हया से उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया था और फिर सहेलियों के इसरार पर उसने गुलाब बन-बनकर कहा था,“कहते हैं, तुम तो स्वर्ग की देवी हो, मैं तुम्हारी पूजा करता हूं.”

     सत्या की रश्क भरी आंखों ने तब देखा था कि उसकी ये बात अपने ख़ाविन्द से हर हिन्दू औरत को जो मुहब्बत होती है, उसकी ही मज़हर नहीं, बल्कि इस हक़ीक़त पर बनी थी जिसकी ताईद उसका रोंवां-रोंवां कर रहा था. तब अपने ख़ाविन्द की बेइल्तिफ़ाती का ध्यान आ जाने पर एक सर्द आह उसके दिल की गहराईयों से निकल गई.

     सावित्री ने अपने हसद का इज़हार एक दूसरे ही तरीक़ से किया. खिसियानी-सी हंसी हंसते हुए बोली,“हां बहन, उन्हें मुहब्बत क्यों न होगी, एक-बार हाथ से गंवाकर ही आदमी किसी चीज़ की क़दर करना सीखता है.”

इस फ़िक़रे में जो तंज़ पिनहां था उसकी तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर सादा लौह लक्ष्मी ने मसर्रत की रौ में सहेलियों को अपनी इस एक महीने की इज़दवाजी ज़िंदगी की बीसियों कहानियां सुना डाली थीं. किस तरह उसके शौहर उसपे जान छिड़कते हैं. उसे आंखों से ओझल करना पसन्द नहीं करते. दफ़्तर में न जाने कैसे वक़्त गुज़ारते हैं?

    “पहली बीवी…” वो कहते हैं,“वो तो गंवार और बेवक़ूफ़ थी. तुम्हें पाकर तो मैंने ज़िंदगी की मसर्रतें पा ली हैं.”

    तारा ने तब हंसते हुए कहा,“सास को ये सब कुछ कैसे भाता होगा?”

     “उनके दिल की मैं क्या जानूं.” लक्ष्मी ने मसर्रत भरे लहजे में जवाब दिया,“लेकिन मीठी तो वो ऐसी हैं जैसे मिस्री. बोलती हैं तो रस घोल देती हैं. मेरी तो आदत तुम जानती हो, सोते-सोते दिन निकल आता है. मगर उन्होंने इसका कभी बुरा नहीं माना. वो ख़ुद चार बजे अलस्सुबह उठकर नहा-धो, पूजा पाठ कर, घर का सब काम ख़त्म कर देती हैं. मैं कुछ करने की कोशिश भी करूं तो कहती हैं,“तुम्हें ही तो करना है बहू, मैं कब तक बैठी रहूंगी.”

      और उस दिन बस्ती में लक्ष्मी की रहम दिल और फ़र्ज़ शनास सास और मुहब्बत करने वाले हंसमुख ख़ाविन्द की कहानी घर-घर फैल गई थी और शादीशुदा लड़कियों ने दुआ की कि उनके ख़ाविन्द और सासें भी ऐसी ही बन जाएं और कुंवारी लड़कियों ने दिल ही दिल में कहा, “भगवान हमें भी ऐसा ही घर-वर देना.”

रबड़ के पहियों वाला स्ट्रेचर चुपचाप मशरिक़ी दरवाज़े से दाख़िल हुआ, गोबिन्द उसे धकेल रहा था और मिस सुल्ताना ख़ामोशी से उसके साथ चली आ रही थीं. उसका हमेशा हंसने वाला चेहरा उतरा हुआ था, जैसे उसी के किसी क़रीबी रिश्तेदार की मौत हो गई हो. मौतें, हस्पताल में हमेशा ही हुआ करती हैं और हस्पताल के मुलाज़िम इस दर्जा उनके ख़ूगर हो जाते हैं कि वो अपने सब काम किसी क़िस्म के एहसास के बग़ैर किए जाते हैं. लेकिन लक्ष्मी से सुल्ताना को मुहब्बत-सी हो गई थी. सुल्ताना पर ही क्या मौक़ूफ़, सब को उससे उन्स हो गया था. उसने अपनी इज़दवाजी ज़िंदगी के कितने ही वाक़ियात एक अजीब सादगी से बयान किए थे. अपनी सास के मुताल्लिक़ उसके दिल में जो बुलन्द ख़यालात थे, उन्हें हवा होते देर नहीं लगी. वही ज़बान जो पहले रस की धारें बहाती थी, बाद को ज़हर भी उगलने लगी. खन्ना साहब तब मुलाज़िम नहीं हुए थे. मगर घर की सियासियात में वो माहिर थे. अपना काम चालाकी से निकालना जानते थे. मां के सामने चुप रहते लेकिन तन्हाई में कहते,“लक्ष्मी, इन सब क़ुसूरों के लिए मैं तुमसे माफ़ी चाहता हूं” और तब उसे सास की झिड़कियां, ताने कोसने, गालियां बिल्कुल भूल जातीं और ख़ाविन्द से उसकी अक़ीदत कई गुना बढ़ जाती. वो साथ हैं तो फिर चाहे सारा जहान ख़िलाफ़ हो जाए, वो सबकी मुख़ालिफ़त ख़ुशी-ख़ुशी झेल लेगी. जी न चाहते हुए भी, सास को ख़ुश करने के लिए उसने भगवती दुर्गा की पूजा सीखी और अपनी सहल-अंगारी को छोड़कर मेहनत से काम करने की आदत भी डाली. लेकिन इन सब बातों के बावजूद सास के तेवर न बदले. उसकी झिड़कियां, ताने, कोसने बदस्तूर जारी रहे मगर लक्ष्मी ने सब कुछ हंस-हंसकर सहना सीख लिया था. हां एक बार जब जलता हुआ घी गिर जाने से उसके हाथ जल गए थे और अभी आराम भी न आने पाया था कि उसकी सास ने कपड़ों की भरी गठरी उसके सामने रख दी थी, तो उसकी हमेशा मुस्कुराने वाली आंखें भर आई थीं. कपड़े धोते-धोते उसके छाले फूट गए थे. तब अन्दर कमरे में जाकर वो ख़ूब जी भरकर रोयी थी और जब खन्ना साहब आए थे तो उसने कहा था,“मुझे इस नरक से छुटकारा दिलाओ. मां अगर धन वाली है तो क्या इसीलिए ये नरक की अज़ीयतें बर्दाश्त किए जाएं. तुम्हारे साथ तो मुझे सूखी रोटी पसन्द है, मगर ये ज़ुल्म तो अब नहीं सहा जाता.”

खन्ना साहब ने उसे तसल्ली दी थी और मुस्तक़बिल के तसव्वुरात का ठण्डा फाहा उसके जलते हुए ज़ख़्मों पर रख दिया था. उन्होंने क्या-क्या कुछ न कहा था. जब वो मुलाज़िम हो जाएंगे तो उसे अपने साथ लाहौर ले जाएंगे. मां तो नवां शहर ही में रहेगी और वहां लाहौर में… अनारकली, माल, लौरंस, बाग़, सिनेमा, तमाशे, नुमाइशें और उन ही मसर्रत बख़्श तसव्वुरात में गुम होकर… वो अपने छालों की टीस, अपने दिल का दर्द सब कुछ भूल गई थी. लेकिन संगदिल क़िस्मत! जब वो दिन आया और खन्ना साहब लाहौर ही में सिविल सेक्रेटरिएट में मुलाज़िम हो गए तो वो दिक़ जैसी बीमारी में मुब्तला हो गई.

     आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ स्ट्रेचर पर्दे के पीछे पहुंचा और कुछ लम्हे बाद सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ हड्डियों का एक ढांचा लेकर दोनों तरफ़ बिछी हुई चारपाइयों में से होता हुआ मग़रिबी दरवाज़े से बाहर निकल गया. डॉक्टर साहब बरामदे ही में खड़े थे. वहीं से उन्होंने कहा, “मुर्दाख़ाने में ले जाओ. तब तक खन्ना साहब आ जाएंगे. लहना सिंह तो कब का गया हुआ है.”

    पल भर के लिए बीमार औरतों के दिल धक-धक करने लगे.

लक्ष्मी का नहीफ़ व नातवां दिक़ से मुरझाया हुआ, मौत की इस सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ मदक़ूक़ जिस्म सबकी आंखों के सामने फिर गया. दिक़ की इन सब मरीज़ाओं का भी तो आख़िर यही हश्र होगा. मौत से भी ज़्यादा अन्दोहनाक है, अपने ही जैसी बीमारी से किसी को मरते देखना और ख़ुद तिल-तिल करके मरना. बहुतों की आंखों के सामने अन्धेरा सा छा गया और बाज़ के आंसू बहने लगे.

       पर्दे के पीछे से निकलकर मिस बकेटी ग़ुस्लख़ाने में हाथ साफ़ करने चली गई तो हमेशा दूसरों का दुःख-दर्द बंटाने वाली रहम-दिल सुल्ताना ने इस ग़मनाक माहौल को कुछ बदलने की कोशिश की. हमेशा यही होता था हमेशा, जब कोई मरीज़ा इस भयानक बीमारी के हाथों नजात पाती थी और कमरे में मौत की उदास ख़ामोशी छा जाती थी तो मिस सुल्ताना अपने मीठे, तसल्ली आमेज़ लहजे में अपनी दिलचस्प बातों, अपने हैरत अंगेज़ क़िस्सों से उस मौत की ख़ामोशी को दूर करने की कोशिश किया करती थी. बरस डेढ़ बरस से लक्ष्मी भी इस काम में उसका हाथ बंटाती आई थी. लेकिन आज वो ख़ुद ही मौत की गहरी ख़ामोशी में समा गई थी.

घड़ी ने टन-टन दो बजाए. टेमप्रेचर लेने का वक़्त हो गया था. दिल में उठते हुए आंसुओं के तूफ़ान को ज़बरदस्ती रोककर, दवा में पड़े हुए थर्मामीटर को हाथ में लिये और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए वो रशीदा की चारपाई के पास पहुंची. लेकिन आज सई बिस्यार के बावजूद वो लक्ष्मी की मौत को हंसी के पर्दे में न छुपा सकी.

  रशीदा ने कहा,“मिस साहिब, लक्ष्मी भी चली गई.”

     थर्मामीटर को रशीदा की ज़बान के नीचे रखकर सुल्ताना ने एक लम्बी सांस ली और नब्ज़ की रफ़्तार देखने के लिए उसकी कलाई हाथ में थाम ली.

     सुरती ने कहा,“आख़िरी वक़्त तक अपने ख़ाविन्द का नाम उसकी ज़बान पर रहा. क्यों मिस साहिब! खन्ना साहब भी उससे इतना ही प्यार करते होंगे?”

“होंगे क्या, करते हैं.” सुल्ताना ने रशीदा की कलाई को छोड़कर कहा,“लक्ष्मी को मरना भी इसीलिए सहल हो गया. मैं तो सोचती हूं, मुहब्बत करने वाला ख़ाविन्द जिस ख़ुशक़िस्मत के पास है, मौत उसे कुछ भी तकलीफ़ नहीं पहुंचा सकती. बेहोश होने के कुछ देर पहले जब उसे मालूम हो गया कि उसका आख़िरी वक़्त बस अब नज़दीक ही है तो मुझसे उसने कहा था… ‘मिस साहिब जाने वो क्यों नहीं आए? इस बार तो उन्हें आए पन्द्रह दिन हो गए. इस वक़्त जी चाहता है काश वो मेरे पास होते.’ फिर ख़ुद ही हंसकर बोली,‘मिस साहिब मैं भी कितनी बेवक़ूफ़ हूं, वो न भी आएं तो वो मुझसे दूर हैं क्या? मेरे दिल में तो हर वक़्त उन्हीं की तस्वीर रहती है. और मैं ही उनसे क्या दूर हूं? कई बार उन्होंने कहा है लक्ष्मी! तुम तो हर वक़्त मेरे पास रहती हो. बारहा काम करते-करते तुम्हारा ख़याल आ जाने से ग़लती हो जाती है,’ इसके बाद वो बेहोश हो गई थी. मरते दम भी जब उसे होश आया तो ख़ाविन्द का नाम ही उसकी ज़बान पर था.”

      ये कहते हुए भीगी आंखों को पोंछ, घड़ी देखकर सुल्ताना ने थर्मामीटर रशीदा के मुंह से निकाल लिया और हरारत नोट करने के लिए चार्ट उठाया.

     सुरती ने पूछा,“लेकिन मिस साहब ये गहनों की बात क्या थी. जब भी खन्ना साहब आते थे, उनका ज़िक्र ज़रूर छिड़ जाता था. जब से गहने ले गए, बस एक बार ही तो फिर आए.”

थर्मामीटर को दवा में डालकर और दूसरा उठाकर सुरती को देते हुए उसने कहा,“मैंने पूछा नहीं, लेकिन जब लक्ष्मी आई थी तो सब गहने साथ ही ले आई थी. उसकी सास नहीं चाहती थी कि वो एक भी गहना साथ ले जाए. आख़िर हस्पताल में इतने गहनों का काम भी क्या है? बाज़ूबन्द, चूड़ियां, माला, लॉकेट कोई एक गहना हो तो गिनाऊं. न जाने क्यों उसे गहनों से इतनी मुहब्बत थी. सास तो मरते दम तक न ले जाने देती. लेकिन खन्ना साहब अपनी मां को समझा बुझाकर ले आए थे. यहां मरीज़ों को गहने पहनने की इजाज़त नहीं. डॉक्टर साहब ने समझाया कि उन्हें साथ नहीं लाना चाहिए था. अब भी बेहतर है कि उन्हें खन्ना साहब के हवाले कर दो लेकिन वो गहने अपने पास ही रखना चाहती थी. आख़िर डॉक्टर साहब ने गहने एक लोहे के सन्दूक़चे में बन्द करके चाबी उसे दे दी. और सन्दूक़चे को हस्पताल के सेफ़ में रख दिया. उस चाबी को वो लहज़ा भर के लिए भी जुदा न करती थी. लेकिन जब बीमारी बढ़ गई और तन-बदन का भी होश उसे न रहा और जब एक दिन खन्ना साहब के कहने पर मैंने उसे समझाया कि गहने तुम्हारे ही नाम बैंक में जमा कराए जा सकते हैं तो उसने चाबी दे दी. यही एक बात लक्ष्मी में मुझे अजीब नज़र आई लेकिन शायद उन्ही के ज़रिए वो अपने आपको ज़िंदा समझती थी. उसी रात उसने मुझे पास बुलाकर कहा था… मिस साहिब अब मैं बहुत देर तक ज़िंदा नहीं रहूंगी.”

      सुरती की ज़बान थर्मामीटर की वजह से दुखने लगी थी. आख़िर उसने ख़ुद ही उसे निकालकर मिस सुल्ताना को दे दिया. चौंककर सुल्ताना ने थर्मामीटर ले लिया और टेमप्रेचर देखने लगी.

     सुरती ने कहा,“ये तो ठीक है मिस साहिब, लेकिन गहने लेने के बाद खन्ना साहब ने हर हफ़्ता आना क्यों छोड़ दिया? दो हफ़्ते गुज़र गए उन्हें आए हुए.”

रशीदा बोली,“बीमार न हो गए हों. नहीं तो गर्मी-सर्दी, बारिश-धूप… उन्होंने किसी बात का कभी ख़याल नहीं किया. बाक़ायदा हर हफ़्ते आते रहे और मैं तो सोचती हूं मिस साहब, लक्ष्मी की मौत की ख़बर सुनकर उनके दिल पर कैसी गुज़रेगी? अपनी बीवी से किसी को ही ऐसी मुहब्बत होगी.

     तब शायद स्ट्रेचर मुर्दा ख़ाने में पहुंचाकर गोबिन्द वापस आया और उसके पीछे डॉक्टर साहब भी आए. पर्दे के पास पहुंचकर गोबिन्द ने पूछा, “कपड़ों को लपेट दूं डॉक्टर साहब?”

     डॉक्टर साहब उसके पास जाकर खड़े हो गए. बोले,“हस्पताल की चादरों को डिस इनफ़ेकटर में डाल दो और बाक़ी का सामान पड़ा रहने दो. अभी शायद खन्ना साहब या उनका आदमी आ जाए. हां गद्दे बाहर धूप में डाल दो.”

उसी लम्हे बरामदे के पास सीढ़ियों पर से साईकल फेंककर हांफता हुआ पसीने से तर लहना सिंह अन्दर आया. डॉक्टर साहब ने आगे बढ़कर पूछा.

    लहना सिंह ने सर हिलाया. उसकी सांस फूल रही थी. जवाब न बन पड़ता था.

     ज़रा तल्ख़ी से डॉक्टर साहब ने पूछा,“मिले या नहीं? कहा नहीं? तुमने कहा कि लाश को आज शाम से पहले ले जाएं?”

थूक निगलकर लहना सिंह ने कहा,“वो तो शादी करने अपने घर चले गए हैं.”

     …ठन से टेमप्रेचर का चार्ट मिस सुल्ताना के हाथ से फ़र्श पर गिर पड़ा और रशीदा ने जैसे घबराकर चीख़ते हुए कहा,“मिस साहिब! मिस साहिबा।

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