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*हमारी लोकवार्ता पर विदेशी अध्येताओं की अध्ययन-दृष्टि*

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           पुष्पा गुप्ता

      भारतीय मिथकों और लोककथाओं पर मैक्समूलर (1823- 1900) और थिओडोर बेन्फे ने  अध्ययन-अनुसंधान किया था , जिसके कारण विश्व के अध्येताओं का ध्यान प्राच्यविद्या की ओर आकर्षित  हुआ। लोकसाहित्य के अध्येता उनकी विचार-परंपरा को “भारतवाद” कहते हैं।

     थियोडोर बेन्फ़े [१८०९-१८८१]ने  यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि “पुराणकथाओं और लोककथाओं की उद्भवभूमि भारत है और संसार में उनका प्रसार  भारत से ही हुआ था।”

      हिन्दी को लोकवार्ता शब्द देने वाले और हिन्दी में इस विषय की पहली पत्रिका “लोकवार्ता” के संपादक श्रीकृष्णानंद गुप्त ने भारत में जो लोकशास्त्रीय कार्य हुआ, उसके सूत्रपात में अंग्रेजों के  योगदान को मुक्त-हृदय से स्वीकार किया है।

     कोलिन मैक्केंजी  १७८३  में  भारत आये थे. उन्होंने कर्णाटक  के  मिथक , लोककथा, लोक-प्रचलित काव्य , विश्वास, चिकित्सा और अनुष्ठान से जुड़े साहित्य का संग्रह किया था.

    सर विलियम जोंस (William Jones  जन्म-१७४६ मृत्यु- १७९४ ] प्राच्यविद्या के पंडित थे  तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति संबंधी  अनुसंधान में उनकी रुचि थी। इन्हें संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, जर्मन, फ़्रैंच तथा स्पेनी आदि भाषाओं का ज्ञान था। इन्होंने प्राच्य-अध्ययन को बढ़ावा देने के  उद्देश्य से १५ जनवरी १७८४ को कोलकाता में एशियाटिक सोसायटी (The Asiatic Society)  की  स्थापना की थी, इसके बाद “इंडियन एंटीक्वेरी” और “जर्नल ऑफ़ द एंथ्रोपोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ बॉम्बे” जैसी पत्रिकाओं में “मौखिक आख्यानों और लोकवार्ता  की अन्यान्य  विधाओं पर संक्षिप्त लेख”  प्रकाशित  होने लगे।

कर्नल टाड [ JamesTod 1782 – 1835) ने “एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज  आव  राजस्थान” नाम की  पुस्तक १८२९ में   लिखी थी , जिसमें राजस्थान के इतिहास, राजपूतों के रीति-रिवाज रहन-सहन आदि पर प्रकाश डाला गया था। यह १९२० में प्रकाशित हुई।

     मेरी फ़्रेयर का  “ओल्ड डेक्कन डेज ” भारत की लोककथाओं का सबसे पहला महत्त्वपूर्ण संकलन था , जो १८६८ में लंदन से प्रकाशित हुआ था। मेरी फ़्रेयर  बम्बई के गवर्नर की बेटी थीं , और ये कहानियाँ उन्होंने अपनी भारतीय आया से सुनी थीं। यह पुस्तक इतनी  लोकप्रिय  हुई कि इसमें संकलित मराठी लोककथाओं का जर्मन, हंगेरियन, डॅनिश आदि योरोपीय भाषाओं  में  भी  अनुवाद  हुआ. 

    चार्ल्स ईलियट फर्रुखाबाद के अंग्रेज-प्रशासक थे। उनकी अदालत में एक हत्या का मुकदमा आया। अपराधी ने जुर्म कबूल कर लिया- हां मैने हत्या की। जब उससे पूछा गया कि – तुमने हत्या क्यों की? अपराधी ने जोश के साथ आल्हा की एक लाइन गाकर सुनाई -जाकौ बैरी जिन्दा बैठौ ताके जीबे कों धिक्कार। चार्ल्स- ईलियट यह सुन कर चोंक गये। बोले और आगे ? अपराधी ने गाया-बारह बरस लौं कूकुर जीवै, सोलह बरस लौं जियै सियार। बरस अठारह छत्री जीवै,आगे जीबे को धिक्कार।

    लोकजीवन का लोकगाथाओं से इतना अभिन्न संबंध होता है , चार्ल्स- ईलियट के लिये यह बात अचरज की थी। उसने मुकदमे की तारीख आगे बढा दी और अपराधी से कहा -पूरी गाथा लिखवा दो।चार्ल्स ईलियट ने आगे अपने कर्मचारियों से भी सहयोग लिया और लोकजीवन से आल्हा की पूरी गाथा संकलित करके १८७१ में प्रकाशित कराई।

सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) आई.सी.एस. के रूप में १८७० में भारत आये थे। “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया” [ १८८४ -१९०७ ] की संकल्पना उन्हीं की थी , उन्हीं ने इसे साकार भी किया। लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया’ (१९०७-०८) की जिल्दों में ग्रियर्सन ने कुछ लोकगीतों को अनुवाद सहित  प्रकाशित किया है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, उनका  महत्त्वपूर्ण स्थान है ही , लोक साहित्य (गीत-कथा) का संकलन और विश्लेषण करनेवाले  विद्वानों में भी  ग्रियर्सन का नाम  अग्रिम- पंक्ति में  आता है।

     भारत के लोकजीवन संबंधी उनके लेख “जर्नल ऑव दि एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल” में प्रकाशित हुए, जैसे-उत्तरी बंगाल के लोकगीत,  और रंगपुर की बँगला बोली -[ 1877, जि. 1 सं. 3, पृ. 186-226] राजा गोपीचंद की कथा[ वही, 1878, जि. 1 सं. 3 पृ. 135-238] । बिहार पेजेंट लाइफ तो उनका  पथप्रदर्शक ग्रन्थ है ,जिसे आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल ने जनपदीय एवं भाषासंबंधी कार्य का आदर्श  बतलाया था और डा. अंबाप्रसाद सुमन से कहा था कि कृषकजीवन संबंधी ब्रजभाषाशब्दावली पर ऐसा ही कार्य करिये। 

    रिचर्ड कार्नेक टेंपल ने “दि लीजेंड्स आफ़ पंजाब ” [ १८८४-८५ तथा १९०० में ] तीन खंडों में  प्रकाशित किया था । रिचार्ड टेम्पल का कथन है : “It is a mine in which layers of many hued cultures are lying buried in a terribly compressed condition. It is a deposit of innumerable and unaccountable data about humanity.” 

(P. 5. quoted. Durga Bhagwat. An Outline of Indian Folklore).

  भारतीय लोकवार्ता एक ऐसी खान है जिसमें बहुरंगी संस्कृतियों की अनेक पर्तें भयंकर रूप से दबी हुई दशा में दफनाई पड़ी हैं। वह मानवता से सम्बद्ध अनगिन और बेहिसाब तथ्यों का संकुल है।” [.188 हरद्वारी].

१८०४ में मुंबई  में ‘लिटररी सोसायटी’   तथा १८८६ में “बाँबे अँथ्रपॉलॉजिकल सोसायटी”  की ’स्थापना  हुई , जिसमें  भारतीय लोकजीवन  की  विविध दिशाओं में मानवशास्त्र के दृष्टिकोण से अध्ययन प्रारंभ हुए.

    अलैक्जेंडर किनलाक फ़ार्बस  १८४६ में गुजरात के जज बने. उन्होंने जसमा-अन्दान लोकगाथा का  संकलन किया था. रासमाला नाम से   उन्होंने गुजरात  का इतिहास लिखा ,जिसमें चारणों और भाटों द्वारा कही गयी कहानियाँ हैं.

     चार्ल्स ई गोवर की पुस्तक ‘फोक सांग्स ऑफ सदर्न इण्डिया’ (सन् १८६२ ) भारत में लोक-गीतों का प्रथम संग्रह  माना जाता है. जेए बौयल अंग्रेज विद्वान थे,  उन्होंने  तेलुगु गाथा काव्य  पर इंडियन ऐन्टीक्वैरी  (१८७४) के तीसरे  भाग में लेख लिखा। जे एफ़ फ़्लीट  (1885  ) ने लोककाव्यों का  प्रकाशन किया. एफ़ किटेल ने लोकजीवन में क्षेत्रीय कार्य किया तथा इंडियन एंटीक्वेरी (1873 ) में  लिखा.

    विलियम क्रुक (6 अगस्त 1848 – 25 अक्टूबर 1923) एक प्रशासक के रूप में नवंबर 1871 में भारत आये थे और 25 साल तक अवध और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में रहे । 1857 के विद्रोह के बाद, टेम्पल जैसे आईसीएस  मानने लगे थे कि यदि भविष्य में इसी तरह की घटना से बचना है तो ग्रामीण-क्षेत्रों को  भली भाँति  समझना होगा।

     यह बात  क्रुक के ध्यान में थी। क्रुक ने  अपना समय मुख्य रूप से भारतीय लोकवार्ता के अध्ययन में  बिताया। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड एथिक्स के लिए योगदान  के अलावा  उन्होंने (रॉयल) एंथ्रोपोलॉजिकल इंस्टीट्यूट जैसी पत्रिकाओं के लिए भारत के लोगों, उनके धर्मों, विश्वासों और रीति-रिवाजों पर लेख लिखे।

    जब वे मिर्जापुर के कलेक्टर थे तब पंडित रामगरीब चौबे से  सहयोग लेकर “एन इंट्रोडक्शन टु द पोपुलर रिलीजन एंड फ़ोकलोर आव नौर्दर्न इंडिया ”  [ १८९४  ] पुस्तक प्रकाशित कीं ,जिसमें उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों में प्रचलित अन्धविश्वास, टोने-टोटके, नजर, तथा ग्रामदेवता और भूत-प्रेत का विशद विवेचन किया गया है।

     ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ द नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस 1896 में प्रकाशित हुई। ए रूरल एंड ऐग्रीकल्चरल ग्लौसरी फ़ौर दि नौर्थ-वैस्ट प्रोविंसेज ऐंड अवध [१८७९] भी उनकी उल्लेखनीय पुस्तक है। 

जे हिन्टन नोलिस  [J. Hinton Knowles, जन्म [१८५६ मृत्यु १९४३] मिशनरी था। वह १८८८ में कश्मीर आया था. उसने कश्मीर की कहावतों और कहानियों का संकलन किया, जो लन्दन से प्रकाशित हुआ। सर वाल्टर रोपर लौरेंस ने १८९५ में कश्मीर घाटी पर एक किताब लिखी थी.

     आरेल स्टाइन [Sir Aurel Stein ] ने एक ग्रामीण “हातिम तिलवानी”से  सुन कर  कश्मीर की लोककहानियों का संग्रह  “हातिम्स टेल ” नाम से  १९१७ में प्रकाशित किया।     

    मध्य-भारतीय जातियों के सम्बन्ध में लिखे गए हिस्लप के लेख (१८६६), जिनमें कुछ मूल लोक-कथाएँ भी आई हैं, बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। एडगर थर्स्टन  Edgar Thurston [ 1855-1935] की  ‘ओमेंस ऐंड सुपरस्टीशंस ऑव सदर्न इंडिया’ पुस्तक १९१२  में प्रकाश में आई, जिसमें दक्षिण भारत के अन्धविश्वास शकुन, तंत्र, मंत्र, टोने टोटके आदि का विस्तृत विवरण है.

नासिक के जिलाधिकारी ए. एम्.टी. जॅक्सन ने “फोकलोर ऑफ द कोंकण” [१९१५ ] नाम से मराठी और  गुजराती लोकसाहित्य का  सम्पादन- प्रकाशन किया। १९१७ में सी०ए० बक ने ‘”फ़ेथ्स फेयर्स ऐंड फेस्टिवल्स ऑव इंडिया”‘ लिखा।

    इसके बाद आर्. इ. एन्थोवेन  की पुस्तक फोकलोर ऑफ बॉम्बे (१९२४)  का प्रकाशन   हुआ. सी पी ब्राउन ने  तेलुगु  लोकगीतों का संग्रह करके   तेलुगु लोकसाहित्य की ओर  लोगों का ध्यान आकर्षित किया  था.

     हैरी वेरियर होल्मन एल्विन (29 अगस्त 1902 – 22 फरवरी 1964) ब्रिटिश मूल के भारतीय मानवविज्ञानी और आदिवासी कार्यकर्ता थे, वे 1927 में मिशनरी के रूप में भारत आए थे किन्तु यहाँ आकर  वे महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के दर्शन से प्रभावित हुए और  महात्मा गांधी के साथ काम करने के लिए पादरी -पद  को छोड़ दिया , 1930 में गांधी ने कहा था कि वे एल्विन को एक पुत्र के रूप में मानते हैं।

    1935 में एल्विन  ने हिंदू -धर्म  अपना लिया। जनवरी 1954 में  एल्विन भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किए जाने वाले पहले विदेशी बने। उसी वर्ष उन्हें उत्तर पूर्व की पहाड़ी जनजातियों के विशेष संदर्भ में  भारत सरकार के मानवशास्त्रीय सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था।वेरियर एल्विन ने मध्य प्रदेश के बैगाओं और गोंडों के बीच काम किया।

     उड़ीसा और  नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) के आदिवासियों पर  काम किया तथा  मेघालय की पहाड़ी राजधानी शिलांग में बस गए ।भारतीय आदिवासी जीवन शैली और संस्कृति पर, विशेष रूप से गोंड लोगों पर वे एक औथोरिटी माने जाने लगे। उनकी आत्मकथा, द ट्राइबल वर्ल्ड ऑफ वेरियर एल्विन को अंग्रेजी भाषा में 1965 का साहित्य अकादमी पुरस्कार  मिला था। भारत सरकार ने उन्हें 1961 में पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया।

‘सांग्स औफ दि फारेस्ट’ (हिवाले सहित )[1935].लीव्ज फ़्रोम  दि जंगल : लाइफ़ इन गोंड विलेज [1936].  बैगा (1939].” दी अगरिया [1942] . फोक सांग्ज ऑफ माइकल हिल’ ( श्यामराव हिवाले सहित), [ 1944.]फोक सांग्ज आफ छत्तीसगढ़’,  [1946].दि मुरिया एण्ड देयर घोटुल’,[ 1947]. फ़ोकटेल्स आफ़ महाकौशल (1947),   मिथ्स ऑफ मिडिल इण्डिया’,  [1949].ट्राइबल मिथ्स आफ़ ओडिसा[ 1954.]दि रिलीजन आफ़ ए इंडियन ट्राइब [1955].मिथ्स आफ़  दि नौर्थईस्ट फ़्रन्टियर आफ़ इन्डिया [1958].फ़ोकटेल्स  फ़्रोम इंडियाज हिल्स एंड फ़ोरेस्ट्स  ,[ 1961].नागा लैंड (1961), फ़ोक पेन्टिंग्स आफ़ इंडिया {1967} वेरियर एल्विन  के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ  हैं।

     फिनलैंड के जानेमाने लोकविज्ञानविद प्रो.लौरी होंको ने दक्षिणभारत के  “श्री गाथा-काव्य” के विभिन्न पाठों को एकत्र किया है। केलिफोर्निया के लोकवार्ताविद  पीटर जे क्लास  ने भी तुलू की लोकगाथा “श्री गाथा”  पर अनुसंधान कार्य किया है.

    अमेरिका के सिरेसस विश्वविद्यालय की प्रो.सूसन एस वाडले ने ब्रज के ढोला के पाठभेदों को सम्पादित किया है । प्रो.एन.गोर्ड्जिन्स गोल्ड ने ” राजा नल ” को अपने अनुसन्धान का विषय बनाया है। जायस वर्कलर ने “पंडवानी” पर शोध किया है।

     इंगलैंड के जौन ब्राकिंगटन तथा मैरी ब्राकिंगटन के अनुसन्धान का विषय” रामायण से जुडे लोकगायन” हैं। इजरायल की हैडाजैसन ने “लोकगाथा-परंपरा” पर काम किया है। चीन के वांगचियान का कार्य “सिंह टोटम” पर है।इंडियाना यूनिवर्सिटी के एम डोसिन ने दक्षिण-भारत के लोकजीवन और लोकसाहित्य पर कार्य किया.

   ओविन लिंच ने मथुरा के चौबे समुदाय पर काम किया. उन्होंने अपना नाम ओविन से गोविन्द कर लिया था।

 विक्कोसिन यूनिवर्सिटी के प्रो रोनाल्ड का काम लोकप्रचलित “गालियों” पर  है।

     पी थोमस ने  अपने ग्रन्थ “एपिक्स मिथ्स एंड लीजेंड्स ऑफ इंडिया” में  वैदिक और पौराणिक देवता – वरुण, इंद्र, सूर्य, चंद्र, दुर्गा सरस्वती आदि की तुलना  यूनान के देवता जूपिटर, नेप्चून ,ल्युनस , जूनो ,  मिनर्वा आदि से  की  है तथा उषा और अरोरा, कार्तिकेय और मार्स,  गणेश और जनुस की समानता दिखायी है। 

जर्मन-समाचार २२ सितंबर १९८९ में डा.  क्लाउस पेटर त्सोलर का लेख प्रकाशित हुआ था , जिसमें गढवाल के बांगन क्षेत्र में  बसे हुए   बांगनी -समुदाय में भारत-यूरोपीय लोगों के बीच मेलमिलाप के सूत्र खोजे गये हैं। बांगनीबोली पर संस्कृत और भारत-यूरोपीय  केंटम भाषा के  प्रभाव को पहचाना गया है.  स्थापित किया  गया है  कि आर्य तथा कैंटम-भाषी लोग सोवियत संघ में काउसस पर्वतीय क्षेत्र में  कैस्पीयनसागर के पार साथ-साथ रहते थे. उनकाविश्वास है कि वे उस “स्वर्ग” से उतर कर काबुल से कश्मीर होते हुए गढ़वालआये थे.

     अमरीका की पैन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी के  लोकवार्ता- पाठ्यक्रम  लिए  सन्‌ २००० में   ऐरिक मिरर ने    तमिल लोकवार्ता अध्ययन के  इतिहास  पर एक शोधपत्र लिखा था.

रूसी भारतविद इवान पावलोविच मिनायेव [ १८४०-१८९०] ने १८७५ में कुमाऊँ की लोककथाओं ,दन्त कथाओं , होली गीतों , स्वाँगों का संकलन करके  उनका   रूसी अनुवाद प्रकाशित किया था।प्रो स्टीफन फिऑल [अमेरिका] ने उत्तराखंड की लोकसंस्कृति [ लोकजागर ढोल-सागर] पर  शोधकार्य किया ।[ 2009]।

      आज भारतीय लोकसंस्कृति पर अध्ययन-अनुसंधान करने वाले विदेशी-अध्येताओं की संख्या  दिन प्रतिदिन बढ रही है ,लोकवार्ता की  इस परंपरा को आई एस एफ़ एन आर की रिपोर्टों में तथा  लोकवार्ता की अन्तरराष्ट्रीय-पत्रिका फ़ोकलोर में देखा जा सकता है।

अमरीका तक के विश्वविद्यालयों में फ़ोकलोरिस्टिक्स के पाठ्यक्रमों में भारतीय लोकवार्ता सम्मिलित है।

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