प्रखर अरोड़ा
_सफलता एक ऐसा शब्द, जिसके लिए प्रत्येक मनुष्य संघर्ष करता है। यह अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है या एक ही। यह यह एक विचारणीय प्रश्न है। और यदि यह अलग-अलग है तो किसे सफल माना जाये? इसका निर्धारण तो तभी हो सकता है जब उसका कोई पैमाना हो। ठोस, द्रव, गैस इत्यादि का तो हमें पैमाना प्राप्त है जिससे हम यह कह देते हैं कि ये वस्तु इतनी है परन्तु ये कैसे निर्धारित हो कि कोई व्यक्ति अपने जीवन में कितना सफल हुआ या सबसे अधिक सफल कौन हुआ?_
प्रतियोगिता से भरे वर्तमान समय में व्यक्ति का व्यक्ति से मूल्यांकन करने में इस सफलता शब्द का प्रयोग बहुत होने लगा है और उसके मूल्यांकन का आधार मुख्य रूप से धन अर्जित करना के अर्थों में ही लिया जाता है। क्या सभी मनुष्यों का लक्ष्य धन अर्जित करना ही होता है? यदि कोई व्यक्ति ऐसा सोच रखता है तो शायद उस व्यक्ति का ज्ञान संकुचित ही हो क्योंकि वे उन व्यक्तियों को नहीं जान पाये जो धन को मात्र साधन रूप में ही प्रयोग किये, धन को कभी अपना अन्तिम लक्ष्य नहीं बनाया।
सीधे रूप में अगर इस प्रकार समझा जाये कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है ये सार्वजनिक प्रमाणित है।
*सफलता का क्या अर्थ है?*
सामान्यतः व्यक्ति के इच्छा युक्त मन के लक्ष्य की प्राप्ति ही सफलता है। इस प्रकार किसी बच्चे का लक्ष्य मिठाई प्राप्त करना हो और वह उसे प्राप्त करे ले तो उसे सफल माना जायेगा। अब अगर दो बच्चों की तुलना की जाये जिनका लक्ष्य मिठाई ही प्राप्त करना हो। यदि दोनों प्राप्त करते हैं तो दोनों सफल। यदि एक ही प्राप्त करता है तो एक सफल और दूसरा असफल। लेकिन दोनों के यदि लक्ष्य अलग-अलग हों और दोनों प्राप्त करें तो दोनों सफल।
यदि एक ही प्राप्त करता है तो एक सफल और दूसरा असफल। लेकिन यहाँ एक बात और आती है कि यदि दोनों का लक्ष्य अलग-अलग हैं तो दोनों में कोई प्रतियोगिता नहीं हो सकती और दोनों के सफल होने में समय सीमा भी अलग-अलग होंगी।
सभी व्यक्ति का सफल होने का लक्ष्य एक ही होता है या अलग होते हैं या उम्र के साथ लक्ष्य सदैव बदलते रहते हैं, इस पर भी विचार करना आवश्यक है।
बचपन से लेकर मरने तक जब उम्र के साथ इच्छायें बदलती रहती हैं तब लक्ष्य एक कैसे हो सकता है इस प्रकार यह भी सिद्ध है कि अनेक इच्छाओं में मनुष्य सफल भी होता है और असफल भी। वह मनुष्य सदैव अपने जीवन को भ्रम में ही रखता है जो अपनी किसी लक्ष्य के सफल हो जाने पर अपने को संसार का सबसे सफल व्यक्ति मानने लगे और ऐसे व्यक्ति से भी अपनी तुलना करने लगे जो उसके लक्ष्य के विषय से सम्बन्धित भी नहीं था।
उदाहरण स्वरूप, किसी युवा का लक्ष्य एक लड़की को पाना हो सकता है। और उसे पा ले तो अपने को संसार का सबसे सफल व्यक्ति समझने लगता है। ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि लक्ष्य न प्राप्त करने पर आत्महत्या तक हुयी है। जबकि भगवान श्री कृष्ण तक ने भी शारीरिक प्रेम को जीवन में साथ उतारने को अन्तिम लक्ष्य नहीं माना। मनुष्य की छोटी-छोटी इच्छाएँ बनती रहती है और उसको प्राप्त करने में सफलता और असफलता होती रहती हैं। परन्तु जो मनुष्य दूरदर्शी होते हैं वे अपने पूरे वर्तमान जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं। और उस एक लक्ष्य के सामने कोई भी लक्ष्य नहीं होता न ही कोई इच्छा।
*सफल होने के बाद क्या होता है?*
यह भी जानने योग्य है। इस स्थिति का अनुभव लेने के लिए यह जानना जरूरी है कि पहाड़ के सबसे ऊँचे स्थान पर पहुँचने के बाद क्या हो सकता है? व्यक्ति वहीं रहे या वहीं से गिर कर घायल हो जाये या मर जाये या नीचे उतर कर निष्क्रिय सामान्य जीवन जीये या नीचे उतर कर उस अंहकार या घमण्ड में जीवन भर रहे कि वह वहाँ तक पहुँच चुका है और वह सबसे सफल है क्योंकि उस लक्ष्य रूपी ऊँचाई के बाद अब कोई लक्ष्य नहीं होता।
क्या मनुष्य का व्यक्तिगत लक्ष्य के अलावा कोई सामूहिक लक्ष्य भी होता है? इस पर भी विचार करना आवश्यक है। सनातन और पुनर्जन्म सिद्धान्त से इस संसार की सभी गति तंरगाकार होते हुए भी एक चक्र में चल रहा है। इस प्रकार उस चक्र में मनुष्य का क्षणिक जीवन एक कड़ी मात्र है।
ये शरीर जो दिख रहा है उसे स्थूल शरीर कहा जाता है और मृत्यु के उपरान्त इच्छा युक्त मन को सूक्ष्म शरीर तथा इच्छा मुक्त मन को आत्मीय शरीर कहते हैं। आत्मीय शरीर केन्द्र है और सूक्ष्म व स्थूल उसके चक्र हैं। मनुष्य योनि का विकास उध्र्व गति की ओर हुआ है अर्थात् जल से थल, थल से शरीर, फिर संसाधन/अर्थ, फिर मानसिक, और पूर्ण और अन्तिम में आध्यात्मिक केन्द्रित मन। यही वह पैमाना है जिससे स्वयं की तुलनाकर जाना जा सकता है कि मैं कितना सफल हुँ? ये वह मार्ग है जिसे तय करने का सार्वभौम नियम है चाहे मनुष्य को इसका ज्ञान हो या न हो।
जो जितना इस मार्ग में बढ़ता है वह उतना ही सफल है और जो नीचे गिरता है वह उतना ही असफल होता है। सफल होने से ही अच्छे समाज का विकास और असफल होने से खराब समाज का विकास होता है क्योंकि पुनर्जन्म तो सूक्ष्म शरीर का ही होता है। शरीर पालना और पीढ़ी आगे बढ़ाना तो सभी जीवों का काम है। फिर उनमें और मनुष्य में क्या अन्तर? अगर ऐसी बात नहीं तो पं0 दीनदयाल उपाध्याय जी के इस विचार-”मनुष्य पशु नहीं है केवल पेट भर जाने से वह सुखी और संतुष्ट हो जायेगा। उसकी जीवन यात्रा ”पेट“ से आगे ”परमात्मा“ तक जाती है। उसके मन उसकी बुद्धि और उसकी आत्मा का भी कुछ तकाजा है।“ का क्या अर्थ होगा?
*सफलता विशेषज्ञता (Specialist) नहीं, ज्ञातग्यता (Generalized):*
जब दुनिया बीसवीं सदी के समाप्ति के समीप थी तब वर्ष 1995 ई0 में कोपेनहेगन में सामाजिक विकास का विश्व शिखर सम्मेलन हुआ था। इस शिखर सम्मेलन में यह माना गया कि- “आर्थिक विकास अपने आप में महत्वपूर्ण विषय नहीं है, उसे समाजिक विकास के हित में काम करना चाहिए। यह कहा गया कि पिछले वर्षों में आर्थिक विकास तो हुआ, पर सभी देश सामाजिक विकास की दृष्टि से पिछड़े ही रहे।
जिसमें मुख्यतः तीन बिन्दुओं-बढ़ती बेरोजगारी, भीषण गरीबी और सामाजिक विघटन पर चिन्ता व्यक्त की गई। यह स्वीकार किया गया कि सामाजिक विकास की समस्या सार्वभौमिक है। यह सर्वत्र है, लेकिन इस घोर समस्या का समाधान प्रत्येक संस्कृति के सन्दर्भ में खोजना चाहिए।” इसका सीधा सा अर्थ यह है कि व्यक्ति हो या देश, आर्थिक विकास तभी सफल होगा जब बौद्धिक विकास के साथ मनुष्य के गुणवत्ता में भी विकास हो।
पं0 दीनदयाल उपाध्याय का विचार :
कम्युनिस्टों के नारे “कमाने वाला खायेगा”-यह नारा यद्यपि कम्युनिस्ट लगाते है। किन्तु पूंजीवादी भी इस नारे के मूल में निहित सिद्वान्त से असहमत नहीं हैं। यदि दोनों में झगड़ा है तो केवल इस बात का कि कौन कितना कमाता है, कौन कितना कमा सकता है। पूंजीवादी साहस और पूंजी को महत्व देते हैं तो कम्युनिस्ट श्रम को। पूंजीवादी स्वयं के लिए अधिक हिस्सा माँगते हैं और कम्युनिस्ट अपने लिए। यह नारा अनुचित, अन्यायपूर्ण और समाजघाती है। हमारा नारा होना चाहिए- “कमाने वाला खिलायेगा और जो जन्मा है वह खायेगा।” खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है कमाने की पात्रता शिक्षा से आती है। यदि केवल कमाने वाला ही खायेगा तो बच्चों, बूढ़ों, रोगियों और अपाहिजों का क्या होगा? “कमाने वाला खायेगा” का दृष्टिकोण आसुरी और “कमाने वाला खिलायेगा” का विचार मानवीय है।
समाजिकता और संस्कृति का मापदण्ड समाज में कमाने वाला द्वारा अपने कर्तव्य के निर्वाह की तत्परता है। अर्थव्यवस्था का कार्य इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना है। मात्र धन कमाने के साधन तथा तरीके बताना-पढ़ाना ही अर्थव्यवस्था का कार्य नहीं है। यह मानवता बढ़ाना भी उसका काम है कि कर्तव्य भावना के साथ कमाने वाला खिलाये भी। यहाँ यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि वह कार्य दायित्व की भावना से करें न कि दान देने या चंदा देने की भावना से। पूंजीवादी व्यवस्था ने केवल अर्थपरायण मानव का विचार किया तथा अन्य क्षेत्रों से उसे स्वतन्त्र छोड़ दिया तो समाजवादी व्यवस्था केवल “जाति वाचक मानव” का ही विचार करती है। उसमें व्यक्ति की रूचि, प्रकृति गुणों की विविधता और उसके आधार पर विकास करने के लिए कोई स्थान नहीं है इन दोनों अवस्थाओं-व्यवस्थाओं में मनुष्य के सत्य और उसकी पूर्णता को नहीं समझा गया।
एक व्यवस्था उसे स्वार्थी, अर्थपरायण, संघर्षशील, प्रतिस्पर्धी, प्रतिद्वन्दी और मात्स्यन्याय प्रवण प्राणी मानती है तो दूसरी उसे व्यवस्थाओं और परिस्थितियों का दास बेचारा और नास्तिक-अनास्थामय प्राणी। शाक्तियों का केन्द्रिकरण दोनों व्यवस्थाओं में अभिप्रेत है। अतएव पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों ही अमानवीय व्यवस्थाएँ हैं। धन का अभाव मनुष्य को निष्करूण और क्रूर बना देता है। तो धन का प्रभाव उसे शोषक सामाजिक दायित्व निरपेक्ष, दम्भी और दमनकारी। भारत और विश्व की समस्याओं का समाधान और प्रश्नों का उत्तर विदेशी राजनीतिक नारों या वादों (समाजवादी, पूंजीवादी आदि) में नहीं अपितु स्वयं भारत के सनातन विचार परम्परा में से उपजे हिन्दूत्व अर्थात् भारतीय जीवन दर्शन में है। केवल यही एक ऐसा जीवन दर्शन है जो मनुष्य जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नही बाँटता उसके सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर उसका विचार करता है। यह समझना भारी भूल होगी कि हिन्दूत्व वर्तमान वैज्ञानिक उन्नति का विरोधी है।
आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिक का प्रयोग इस पद्धति से होना चाहिए कि वे हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पद्धति के प्रतिकूल नहीं, अनुकूल हो। हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य धर्मराज्य, जिसे गाँधी जी रामराज्य कहा करते थे, लोकतन्त्र, सामाजिक समरसता और राजनीतिक आर्थिक शक्तियों के विकेन्द्रियकरण का होना चाहिए। आप इसे हिन्दूत्ववाद, मानवता अथवा अन्य कोई भी नया “वाद” या किसी भी नाम से पुकारें किन्तु केवल यही ही भारत की आत्मा के अनुकूल होगा। यही देशवासियों में नवीन उत्साह संचारित कर सकेगा। विनाश और विभ्रन्ति के चौराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम करेगा।
-पं0 दीनदयाल उपाध्याय कुल मिलाकर जो व्यक्ति या देश केवल आर्थिक उन्नति को ही सर्वस्व मानता है वह व्यक्ति या देश एक पशुवत् जीवन निर्वाह के मार्ग पर है-जीना और पीढ़ी बढ़ाना। दूसरे रूप में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है और ये सार्वजनिक रूप से सभी के सामने प्रमाणित है। पूर्णत्व की प्राप्ति का मार्ग शारीरिक-आर्थिक उत्थान के साथ-साथ मानसिक-बौद्धिक उत्थान होना चाहिए और यही है ही।
इस प्रकार भारत यदि पूर्णता व विश्व गुरूता की ओर बढ़ना चाहता है तब उसे मात्र कौशल विकास ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय बौद्धिक विकास की ओर भी बढ़ना होगा। बौद्धिक विकास, व्यक्ति व राष्ट्र का इस ब्रह्माण्ड के प्रति दायित्व है और उसका लक्ष्य है। सफलता का नाम विशेषज्ञता (Specialist) नहीं, बल्कि ज्ञता (Generalized) है, ये ज्ञता (Generalized) ही राष्ट्रीय बौद्धिक विकास है।
जो व्यक्ति या देश केवल आर्थिक उन्नति को ही सर्वस्व मानता है वह व्यक्ति या देश एक पशुवत् जीवन निर्वाह के मार्ग पर है-जीना और पीढ़ी बढ़ाना। दूसरे रूप में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जिनका लक्ष्य धन रहा था वे अपने धन के बल पर अपनी मूर्ति अपने घर पर ही लगा सकते हैं परन्तु जिनका लक्ष्य धन नहीं था, उनका समाज ने उन्हें, उनके रहते या उनके जाने के बाद अनेकों प्रकार से सम्मान दिया है और ये सार्वजनिक रूप से सभी के सामने प्रमाणित है। पूर्णत्व की प्राप्ति का मार्ग शारीरिक-आर्थिक उत्थान के साथ-साथ मानसिक-बौद्धिक उत्थान होना चाहिए और यही है ही। इस प्रकार भारत यदि पूर्णता व विश्व गुरूता की ओर बढ़ना चाहता है तब उसे मात्र कौशल विकास ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय बौद्धिक विकास की ओर भी बढ़ना होगा।
बौद्धिक विकास, व्यक्ति व राष्ट्र का इस ब्रह्माण्ड के प्रति दायित्व है और उसका लक्ष्य है।
राष्ट्र के पूर्णत्व के लिए पूर्ण शिक्षा निम्नलिखित शिक्षा का संयुक्त रूप है-
*(अ). सामान्यीकरण (Generalisation) :*
शिक्षा ज्ञान के लिए- यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का बौद्धिक विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय सुख में वृद्धि होती है।
*(ब).विशेषीकरण (Specialisation)*
शिक्षा – कौशल के लिए- यह शिक्षा व्यक्ति और राष्ट्र का कौशल विकास कराती है जिससे व्यक्ति व राष्ट्रीय उत्पादकता में वृद्धि होती है।
*(स). सत्य नेटवर्क (REAL NETWORK):*
शिक्षा समाज में प्रकाशित होने के लिए – क्योंकि कोई भी क्यों न हो उसे स्वयं अपना परिचय (BIO-DATA) देना पड़ता है तभी उसके अनुसार समाज उसका उपयोग करता है।
वर्तमान समय में विशेषीकरण की शिक्षा, भारत में चल ही रहा है और वह कोई बहुत बड़ी समस्या भी नहीं है। समस्या है सामान्यीकरण शिक्षा की। व्यक्तियों के विचार से सदैव व्यक्त होता रहा है कि-मैकाले शिक्षा पद्धति बदलनी चाहिए, राष्ट्रीय शिक्षा नीति व पाठ्यक्रम बनना चाहिए। ये तो विचार हैं। पाठ्यक्रम बनेगा कैसे?, कौन बनायेगा? पाठ्यक्रम में पढ़ायेंगे क्या? ये समस्या थी। और वह हल की जा चुकी है। जो भारत सरकार के सामने सरकारी-निजी योजनाओं जैसे ट्रांसपोर्ट, डाक, बैंक, बीमा की तरह निजी शिक्षा के रूप में “पुनर्निर्माण-सत्य शिक्षा का राष्ट्रीय तीव्र मार्ग” द्वारा पहली बार इसके आविष्कारक द्वारा प्रस्तुत है। जो राष्ट्र निर्माण का व्यापार है।
व्यापार का एक आधार : www.64inch.com
प्रत्येक मनुष्य के लिए 24 घंटे का दिन और उस पर आधारित समय का निर्धारण है और यह पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर है कि वह इस समय का उपयोग किस गति से करता है। उसके समक्ष तीन बढ़ते महत्व के स्तर है -शरीर, धन/अर्थ और ज्ञान। इन तीनों के विकास की अपनी सीमा, शक्ति, गति व लाभ है। जिसे यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है :
*01. शरीर आधारित व्यापार*
यह व्यापार की प्रथम व मूल प्रणाली है जिसमें शरीर के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे सबसे कम व सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है। परन्तु यह कम धन कमाने के लिए अधिक लोगों को अवसर तथा अधिक धन कमाने के लिए कम लोगों को अवसर प्रदान करता है। अर्थात् शरीर का प्रत्यक्ष प्रयोग कर अधिक धन कमाने का अवसर कम ही लोगों को प्राप्त होता है।
यह प्रकृति द्वारा प्राप्त गुणों पर अधिक आधारित होती है। जो एक अवधि तक ही प्रयोग में लायी जा सकती है। क्योंकि शरीर की भी एक सीमा होती है। उदाहरण स्वरुप-किसान, मजदूर, कलाकार, खिलाड़ी, गायक, वादक, पहलवान इत्यादि। जिसमें अधिकतम संख्या कम कमाने वालों की तथा न्यूनतम संख्या अधिक कमाने वालों की है। शरीर आधारित व्यापारी हमेशा धन व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में शरीर की उपयोगिता अधिक तथा धन व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
*02. धन/अर्थ आधारित व्यापार*
यह व्यापार की दूसरी व मध्यम प्रणाली है जिसमें धन के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है। इससे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास धन होता है। उदाहरण स्वरुप-दुकानदार, उद्योगपति, व्यापारी इत्यादि। धन आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व ज्ञान आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में धन की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व ज्ञान की उपयोगिता कम होती है।
03. ज्ञान आधारित व्यापार– यह व्यापार की अन्तिम व मूल प्रणाली है जिसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा व्यापार होता है।
इससे सबसे अधिक धन कमाया जा सकता है और उन सभी को अवसर प्रदान करता है जिनके पास ज्ञान होता है।
उदाहरण स्वरुप-विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय एवं अन्य शिक्षा व विद्या अध्ययन संस्थान, शेयर कारोबारी, बीमा व्यवसाय, प्रणाली व्यवसाय, कन्सल्टेन्ट, ज्ञान-भक्ति-आस्था आधारित ट्रस्ट-मठ इत्यादि। ज्ञान आधारित व्यापारी हमेशा शरीर व धन आधारित व्यापारियों पर निर्भर रहते हैं। इस व्यापार में ज्ञान की उपयोगिता अधिक तथा शरीर व धन की उपयोगिता कम होती है।
शरीर के विकास के उपरान्त मनुष्य को धन के विकास की ओर, धन के विकास के उपरान्त मनुष्य को ज्ञान के विकास की ओर बढ़ना चाहिए अन्यथा वह अपने से उच्च स्तर वाले का गुलाम हो जाता है। बावजूद उपरोक्त सहित इस शास्त्र से अलग विचारधारा में होकर भी मनुष्य जीने के लिए स्वतन्त्र है।
परन्तु अन्ततः वह जिस अटलनीय नियम-सिद्धान्त से हार जाता है उसी सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को ईश्वर कहते हैं और इसके अंश या पूर्ण रूप को प्रत्यक्ष या प्रेरक विधि का प्रयोग कर समाज में स्थापित करने वाले शरीर को अवतार कहते हैं। तथा इसकी व्याख्या कर इसे व्यक्ति में स्थापित करने वाले शरीर को गुरू कहते हैं।
मनुष्य केवल प्रकृति के अदृश्य नियमों को दृश्य में परिवर्तन करने का माध्यम मात्र है। इसलिए मनुष्य चाहे जिस भी विचार में हो वह ईश्वर में ही शरीर धारण करता है और ईश्वर में ही शरीर त्याग देता है, इसे मानने या न मानने से ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसी प्रकार है जैसे कोई किसी देश में रहे और वह यह न मानने पर अड़ा रहे कि वह उस देश का नहीं है या कोई स्वयं को यह समझ बैठे कि मेरे जैसा कोई ज्ञानी नहीं और यदि हो भी तो मैं नहीं मानता।
उदाहरणस्वरूप ये जान लेना कि ये सब ट्रेन दिल्ली जाती है, “ज्ञान” है और यदि दिल्ली जाना है तो उस पर बैठना “कर्मज्ञान” है। दिल्ली जाना भी है और नहीं बैठना है इसके जिम्मेदार स्वयं हो, कोई दूसरा नहीं। हाँ, दिल्ली जाने वालों को ट्रेन की जानकारी देने वाला व्यपार कर सकते हो।
www.64inch.com व्यापार और शिक्षा का व्यापार :
जहाँ भी, कुछ भी आदान-प्रदान हो रहा हो, वह सब व्यापार के ही अधीन है। व्यक्ति का जितना बड़ा ज्ञान क्षेत्र होता है ठीक उतना ही बड़ा उसका संसार होता है। फलस्वरूप उस ज्ञान क्षेत्र पर आधारित व्यापार का संचालन करता है इसलिए ही ज्ञान क्षेत्र के विस्तार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ही व्यापारी है और वही दूसरे के लिए ग्राहक भी है। यदि व्यक्ति आपस में आदान-प्रदान कर व्यापार कर रहें हैं तो इस संसार-ब्रह्माण्ड में ईश्वर का व्यापार चल रहा है और सभी वस्तुएँ उनके उत्पाद है। उन सब वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा है जिसके व्यापारी स्वयं ईश्वर है, ये सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त है।
शिक्षा क्षेत्र का यह दुर्भाग्य है कि जीवन से जुड़ा इतना महत्वपूर्ण विषय “व्यापार”, को हम एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं कर सकें। इसकी कमी का अनुभव उस समय होता है जब कोई विद्यार्थी 10वीं या 12वीं तक की शिक्षा के उपरान्त किसी कारणवश, आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। फिर उस विद्यार्थी द्वारा पढ़े गये विज्ञान व गणित के वे कठिन सूत्र उसके जीवन में अनुपयोगी लगने लगते हैं। यदि वहीं वह व्यापार के ज्ञान से युक्त होता तो शायद वह जीवकोपार्जन का कोई मार्ग सुगमता से खोजने में सक्षम होता।
प्रत्येक व्यापार के जन्म होने का कारण एक विचार होता है।
पहले विचार की उत्पत्ति होती है फिर उस पर आधारित व्यापार का विकास होता है। किसी विचार पर आधारित होकर आदान-प्रदान का नेतृत्वकर्ता व्यापारी और आदान-प्रदान में शामिल होने वाला ग्राहक होता है। “रामायण” ,“महाभारत” ,“रामचरितमानस” इत्यादि किसी विचार पर आधारित होकर ही लिखी गई है। यह वाल्मिीकि, महर्षि व्यास और गोस्वामी तुलसीदास का त्याग है तो अन्य के लिए यह व्यापार का अवसर बना।
ज्ञान के वर्तमान और उसी ओर बढ़ते युग में व्यापार के तरीके भी बदल रहें हैं। ऐसी स्थिति में स्वयं को भी बदलते हुये अपने ज्ञान को बढ़ाना होगा अन्यथा प्रतियोगिता भरे जीवन के संघर्ष में पिछे रह जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा। वर्तमान समय में गाँवों तक भी कम्प्यूटर व इन्टरनेट की पहुँच तेजी से बढ़ रही है।
कम्प्यूटर व इन्टरनेट केवल चला लेना ही ज्ञान नहीं है। चलाना तो कला है। कला को व्यापार में बदल देना ही सत्य में ज्ञान-बुद्धि है। हम कम्प्यूटर व इन्टरनेट से किस प्रकार व्यापार कर सकते हैं, इस पर अध्ययन-चिंतन-मनन करना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में भारत रत्न एवं पूर्व राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे.अब्दुल कलाम का कथन पूर्ण सत्य है कि- “नवीनता के द्वारा ही ज्ञान को धन में बदला जा सकता है।”
प्रत्येक मनुष्य के लिए 24 घंटे का दिन और उस पर आधारित समय का निर्धारण है और यह पूर्णतः मनुष्य पर ही निर्भर है कि वह इस समय का उपयोग किस गति से करता है। उसके समक्ष तीन बढ़ते महत्व के व्यापार के स्तर हैं- 1. शरीर आधारित व्यापार, 2. धन/अर्थ आधारित व्यापार और 3. ज्ञान आधारित व्यापार। इन तीनों के विकास की अपनी सीमा, शक्ति, गति व लाभ है।
शरीर के विकास के उपरान्त मनुष्य को धन के विकास की ओर, धन के विकास के उपरान्त मनुष्य को ज्ञान के विकास की ओर बढ़ना चाहिए अन्यथा वह अपने से उच्च स्तर वाले का गुलाम हो जाता है।
दुनिया बहुत तेज (फास्ट) हो गई है। मनुष्य की व्यस्तता बढ़ती जा रही है। सभी को कम समय में बहुत कुछ चाहिए। तो ऐसी शिक्षा की भी जरूरत है जो कम समय में पूर्ण शिक्षित बना दे। एक व्यक्ति सामान्यतः यदि स्नातक (ग्रेजुएशन) तक पढ़ता है तो वह कितने पृष्ठ पढ़ता होगा और क्या पाता है? विचारणीय है।
एक व्यक्ति इंजिनियर व डाक्टर बनने तक कितना पृष्ठ पढ़ता है? यह तो होती है कैरियर की पढ़ाई इसके अलावा कहानी, कविता, उपन्यास, फिल्म इत्यादि के पीछे भी मनुष्य अपना समय मनोरंजन के लिए व्यतीत करता है। और सभी एक चमत्कार के आगे नतमस्तक हो जाते हैं तो पूर्ण मानसिक स्वतन्त्रता और पूर्णता कहाँ है? विचारणीय विषय है। ऐसे व्यक्ति जिनका धनोपार्जन व्यवस्थित चल रहा है वे ज्ञान की आवश्यकता या उसके प्राप्ति की आवश्यकता के प्रति रूचि नहीं लेते परन्तु वे भूल जाते हैं कि ज्ञान की आवश्यकता तो उन्हें ज्यादा है जिनके सामने भविष्य पड़ा है और उन्हें आवश्यकता है जो देश-समाज-विश्व के नीति का निर्माण करते हैं। ऐसे आधार की आवश्यकता है जिससे आने वाली पीढ़ी और विश्व निर्माण के चिन्तक दोनों को एक दिशा प्राप्त हो सके।
वे जो मशीनवत् लग गये हैं वे जहाँ लगे हैं सिर्फ वहीं लगे रहें, आखिर में वे भी तो संसार के विकास में ही लगे हैं उन्हें न सही उनके बच्चों को तो ज्ञान की जरूरत होगी। जिसके लिए वे एक लम्बा समय और धन उनपर खर्च करते हैं। गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि का बहुत कुछ कारण ज्ञान, ध्यान, चेतना जैसे विषयों का मनुष्य के अन्दर अभाव होने से ही होता है। मनुष्य जीवन पर्यन्त रोजी-रोटी, धनार्जन इत्यादि के लिए भागता रहता है परन्तु यदि मात्र 6 महीने वह ज्ञान, ध्यान, चेतना जैसे विषयों पर पहले ही प्रयत्न कर ले तो उसके सामने विकास के अनन्त मार्ग खुल जाते हैं। ज्ञान, ध्यान, चेतना की यही उपयोगीता है जिसे लोग निरर्थक समझते हैं।
बचपन से अनेक वर्षों तक माता-पिता-अभिभावक अपने बच्चों के विद्यालय में धन भेजते हैं, बच्चा वहाँ से कौन सा सामान लाता है, विचारणीय विषय है? बच्चा वहाँ से जो लाता है उस सामान का नाम है-“शिक्षा” और वह जहाँ से लाता है, वह है-“शिक्षा का व्यापार केन्द्र”। इस प्रकार अलग-अलग शिक्षा और विद्या के व्यापार केन्द्र, आज के और आने वाले समय में विकास की ओर अग्रसर ज्ञानयुग में चल और खुल रहे हैं। बहुत से विद्यार्थी अलग-अलग व्यापार के साथ “पढ़ो और पढ़ाओ” वाले व्यापार में भी जाते हैं जो मनुष्य के धरती पर रहने तक चलता रहेगा। इस क्रम में जब तक परीक्षा में नकल होते रहेंगे तब तक शिक्षा व्यापार तेजी से विकास करता रहेगा और साथ ही जब तक सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाते रहेंगे, सरकार पर बेरोजगारी का बोझ बढ़ता रहेगा और सरकार रिक्त पदों की भर्ती वाला व्यापार करती रहेगी।
(चेतना विकास मिशन)