सनत जैन
सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा से संबंधित मामलों में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए के दुरुपयोग पर गंभीर चिंता जताई है। कानून की यह धारा विवाह के बाद महिलाओं को उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाई गई थी। इस कानून का महिलाओं द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है। विशेष रूप से तलाक, विवाह के पश्चात पति-पत्नी में विवाद, नारी स्वतंत्रता, समान अधिकार और संपत्ति के मामलों में इस कानून का उपयोग पति, ससुराल पक्ष को प्रताड़ित और ब्लैकमेल करने के लिए किया जा रहा है।
धारा 498-ए का मुख्य उद्देश्य पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाना था। उन्हें ससुराल पक्ष के अत्याचार से बचाने के लिए यह संशोधन किया गया था। पिछले कई वर्षों में अदालतों में ऐसे हजारों मामले सामने आये हैं, जहां महिलाओं ने इस धारा का दुरुपयोग कर ससुराल पक्ष का उत्पीड़न किया है। इस कानून के तहत झूठी शिकायत करके ससुराल पक्ष को ब्लैकमेल किया जाता है।
पति और उसके परिवार वालों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल भिजवाने की धमकी दी जाती है। मामला सुलझाने के लिए लाखों रुपए की वसूली ससुराल पक्ष से की जाती है। बॉम्बे हाईकोर्ट सहित आधा दर्जन हाईकोर्ट तथा देश की हजारों ट्रायल कोर्ट ने इस कानून के दुरुपयोग को लेकर समय-समय पर फैसले दिए हैं। कई मामलों में महिलाओं ने पति, उसके बुजुर्ग माता-पिता, यहां तक कि परिवार के बीमार सदस्य, जो बिस्तर से उठ नहीं सकते हैं, पति की बहन और उसके बहनोई को भी इस धारा के तहत झूठे आरोपों में फंसाने के कई मामले सामने आ चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल में दिए गए आदेश में स्पष्ट किया है, कि इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं। कोर्ट ने कहा, जब तक झूठे मामले दायर कराने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी, परिवार टूटते रहेंगे।
अदालतों और समाज के सभी पक्षों को इस कानून का दुरुपयोग ना हो, इसके लिए संवेदनशीलता और सतर्कता रखने की आवश्यकता है। न्यायालय ने यह भी कहा, कि पति और उसके परिवार के खिलाफ झूठे आरोप लगाए जाते हैं, तो वह भी कानूनी रूप से न्यायालयीन कार्रवाई कर सकते हैं। भीड़ तंत्र के दबाव में आकर सरकार इस तरह के विशेष कानून बना देती है। जिसकी जरूरत ही नहीं होती है। भारतीय दंड संहिता में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के चाहे वह महिला हो या पुरुष सभी को समान अधिकार भारतीय दंड संहिता में हैं। तब इस तरह के विशेष अधिकार बनाने की कोई जरूरत नहीं है। महिलाएं कमजोर वर्ग की होती हैं। उन्हें समय पर तत्काल न्याय मिलना चाहिए। इसके लिए जांच एजेंसियों और प्रशासन की भूमिका और जिम्मेदारी बड़ी होती है। जिम्मेदारी से बचने के लिए जांच एजेंसियां और सरकार इस तरह के कानून बनवाकर वाहवाही लूटती हैं। जल्द ही उसके दुष्परिणाम सामने आ जाते हैं। इस तरह के विशेष कानून बनाने से अपराध कम होने के स्थान पर और तेजी के साथ बढ़ते हैं। पिछले तीन दशक का अनुभव यही बताता है।
निर्भया के बाद सरकार ने कई कड़े कानून यौन अपराधों को रोकने के लिए बनाए, लेकिन अपराध कम होने के स्थान पर और बढ़ गए। जांच एजेंसियां और प्रशासन यदि ठीक तरीके से काम नहीं करेगा। तो अपराधों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है। प्रशासन और जांच एजेंसियों की जिम्मेदारी तय करने की जरूरत है। सरकार की भी नागरिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। सरकार कानून बनाकर अपना पल्ला झाड़ लेती है। सुप्रीम कोर्ट जिसे संविधान ने सभी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक बनाया है। भीड़तंत्र के दबाव में सरकार यदि इस तरह के कानून बनाती है तो न्यायपालिका को समीक्षा करने का अधिकार है। यदि कानून का दुरुपयोग हो रहा है तो सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट भी यदि पर-पदेश कुशल बहुतेरे की तरह उपदेश देने लगती है। तब नागरिकों में निराशा उत्पन्न होती है। इस कानून के बनने से पति-पत्नी का दांपत्य जीवन तेजी के साथ टूट रहे हैं। इसकी पीड़ा महिलाओं को ही झेलनी पड़ रही है। पहले ससुराल पक्ष और बाद में मायके पक्ष से महिलाएं प्रताड़ित की जा रही हैं। पति-पत्नी और परिवार जनों के बीच समय-समय पर कुछ नाराजी पनपती है। वह विश्वास, समर्पण और परिवार जनों के हस्तक्षेप से सुलझ जाती है। जब से महिलाओं के लिए यह विशेष अधिकार दिए गए हैं। उसके बाद से महिला और मायके पक्ष के लोगों ने इसे कमाई का एक जरिया बना लिया है। दांपत्य जीवन अब पहले की तरह नहीं रहे। नई युवा पीढ़ी जरा-जरा सी बात पर अलग होकर अकेले रहना चाहती है। 498-ए उन महिलाओं के लिए ब्रह्मास्त्र हो गया है। जिसके कारण परिवार बड़ी तेजी के साथ टूट रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करें, ऐसी आशा की जाती है।