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अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण : जवाब भी दे सुप्रीम कोर्ट

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संविधान पीठ के निर्णय को शंका की दृष्टि से नहीं देखते हुए भी हमारे जेहन में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उभर सकता है कि उपवर्गीकरण से पहले क्या देश की उन जातियों के साथ आरक्षण को लेकर अन्याय होता रहा है, जिनका उपवर्गीकरण करने की बात कही जा रही है? क्या उन्हें इससे पहले आरक्षण से जबरन बाहर धकेला जाता रहा है?जाहिर तौर पर हमारे पास इसके पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं हैं। हमारा मानना है कि यदि मजहबी सिखों और वाल्मिकी समुदाय के लोगों के साथ आरक्षण देने में भेदभाव होता रहा है तो यह निर्णय जायज कहा जा सकता है। लेकिन यदि कोई भेदभाव नहीं हुआ है तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि तब वह कौन-सी परिस्थितियां बनीं कि इस निर्णय की जरूरत पड़ी?

द्वारका भारती 

देश में आरक्षण का मुद्दा आज फिर चर्चा में है। इस क्रम में कल 21 अगस्त, 2021 को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया गया, जिसका असर देश के उत्तर भारत के कई राज्यों के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखा गया। महत्वपूर्ण यह कि इस बार यह चर्चा किन्हीं आरक्षण विरोधियों या आरक्षण के पक्षधरों द्वारा आरंभ किए गए किसी आंदोलन के कारण नहीं, बल्कि गत 1 अगस्त, 2024 को पंजाब सरकार बनाम देविंदर सिंह मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय की पीठ द्वारा दिए गए चर्चित निर्णय के कारण हो रहा है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुसूचित जाति के कोटे में ही उपवर्गीकरण करते हुए देश के अतिदलितों को अलग से आरक्षण दिया जा सकता है।

यह मानना ठीक नहीं होगा कि इस निर्णय में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके ऊपर अंगुली नहीं उठाई जा सकती।

हमने स्पष्ट रूप में देखा है कि सात जजों की इस संविधान पीठ में एक न्यायाधीश ऐसे भी हैं, जिनकी राय शेष छह जजों से कुछ अलग रही। इनका नाम है न्यायाधीश जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी। इन्होंने बहुमत से अपनी असहमति दर्शाते हुए कहा है कि– जब ईवी चिनैय्या मामले में संविधान पीठ ने पूर्व में दिए गए सारे न्यायादेशों के आधार पर, जिनमें इंद्रा साहनी का मामला भी शामिल था, न्यायालय का महत्वपूर्ण समय व संसाधन व्यय करने के बाद सुलझा लिया गया था, फिर से उसी न्यायादेश को और वह भी बिना किसी कारण के दुबारा प्रश्नवाचक बनाना तथा देविंदर सिंह मामले में तीन जजों की पीठ द्वारा बड़ी पीठ को हस्तगत नहीं किया जाना चाहिए था।

जस्टिस त्रिवेदी आगे स्पष्ट करती हैं कि संविधान में मौजूद हर शब्द का अर्थ है। संविधान के अनुच्छेद-341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की राष्ट्रपति की सूची में राज्य सरकार द्वारा बदलाव नहीं किया जा सकता। आगे वे स्पष्ट करती हैं कि इस सूची में उपवर्गीकरण करना सूची में छेड़छाड़ करने से कम नहीं होगा।

शेष छह जजों की राय भिन्न-भिन्न है, लेकिन उसके अर्थ यही हैं कि उपवर्गीकरण हो जाए तो यह संविधान-सम्मत होगा।

संविधान पीठ के इस निर्णय में जो बात मुख्य तौर पर उभर कर सामने आई है, वह यह है कि सात में चार जजों ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्गों में क्रीमीलेयर की पहचान सुनिश्चित करने पर ज्यादा जोर दिया है। इनमें हमें जस्टिस बी.आर. गवई की टिप्पणी को भी देखना होगा। वे कहते हैं कि अधिक पिछड़े समुदायों को अधिक तरजीह देना और विकास के उचित अवसर प्रदान करना राज्य का कर्त्तव्य होता है। इसके आगे की टिप्पणी इससे भी महत्वपूर्ण है, इसमें बहुत-सी चीजें स्पष्ट होंगी। वे कहते हैं– एससी/एसटी वर्ग में कुछ ही लोग आरक्षण का उपयोग करते हैं तो क्या सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती? इसका उत्तर हां में है। सरकार ऐसा कर सकती है। चिनैय्या के मामले में दिया गया निर्णय गलत है। उस मामले में यह तर्क दिया गया था कि राज्य सरकार आरक्षित कोटे में उपवर्गीकरण कर अलग से अतिदलितों को आरक्षण दे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसके विरुद्ध यह कहते हुए निर्णय देती है कि राज्य सरकार को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है।

दरअसल 2006 में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने यह विधेयक लाकर फैसला किया था कि राज्य में एससी/एसटी कैटेगरी के तहत मिलने वाले आरक्षण में से पचास प्रतिशत सीटें पहली प्राथमिकता के तहत वाल्मिकी और मजहबी सिखों (पंजाब की चूहड़ा जाति से सिख धर्म में धर्मांतरित होनेवाले लोग) को दी जाएगी। इसके पहले यह प्रावधान 5 मई, 1975 को तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे ज्ञानी जैल सिंह सरकार द्वारा सर्कुलर जारी कर किया गया था। कैप्टन अमरिंदर सिंह हुकूमत के इस निर्णय के विरुद्ध पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। सुनवाई के बाद 2010 में हाई कोर्ट ने निर्णय को रद्द कर दिया। 

हाई कोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ़ पंजाब सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। याद रहे कि हाई कोर्ट ने अपने फैसले में राज्य सरकार को कई सुझाव भी दिए थे। इन सुझावों में क्रीमीलेयर पर भी अंगुलियां उठाई गई थीं। लेकिन हम देखते है कि सुप्रीम कोर्ट के सात में से चार जजों की दृष्टि में क्रीमीलेयर महत्वपूर्ण रही है, जिन्होंने कहा कि इनकी पहचान करके आरक्षण के दायरे से बाहर करने की नीति पर काम किया जाना चाहिए। 

अनुसूचित जाति में अलग से कोटा बनाने का विचार कब और कैसे आया? यदि हम इसे अतीत में खंगालें तो पाते हैं कि यह किसी प्रकार के सामाजिक चिंतन का प्रतिफल नहीं है, बल्कि बाद में राजनीति के गर्भ से निकला। हम देखते हैं कि अलग आरक्षण का विचार डॉ. आंबेडकर के सामाजिक चिंतन के आधार में कहीं भी शामिल नहीं है। उन्होंने आरक्षण का कहीं भी इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं किया है और न ही इसे दूसरी दृष्टि से देखा है।

बाद के दिनों में ज्ञानी जैल सिंह हुकूमत के सर्कुलर को कानूनी स्वरूप प्रदान करने के लिए सियासी हलके में कुछ बयार जरूर उठे। यह बात 1986-89 की है। तब सरदार बूटा सिंह इसके केंद्र में थे, जो केंद्रीय गृहमंत्री भी थे। सरदार बूटा सिंह पंजाब की मजहबी सिख (रायसिख) समुदाय से संबंध रखते थे और मार्क्सवादी से कांग्रेसी बने थे। वे वर्ष 2004-06 के दौरान राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पद पर भी रहे।

1980 के दशक में अलग से आरक्षण की मांग जोर पकड़ती हुई देखी जाती है। पंजाब के कई दलित संगठन उनके साथ सुर में सुर मिलाते देखे गए थे। इसके पहले ही 1964 में तब भारतीय वाल्मिकी धर्म समाज का भी उदय हो चुका था। इस संगठन की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। हम यह नकार नहीं सकते कि ज्ञानी जैल सिंह की उपरवर्णित पहल के बाद मजहबी सिखों और वाल्मिकी समुदाय के बीच अलग आरक्षण का विचार बलवती हो चुका था।

इस दौरान एक और बड़ा बदलाव यह भी हुआ कि इन समुदायों से आनेवाले कर्मचारियों का एक खेमा बन चुका था, जिसने अलग आरक्षण के विचार को नई धार दी थी। जाहिर तौर पर यहां राजनीति का भी अपना अलग महत्व रहा है। कांग्रेस इस मामले में उपरी तौर पर निरपेक्ष देखी जाती है, लेकिन उसमें शामिल कई मजहबी या वाल्मिकी नेता इस मुद्दे पर अलग राय रखते देखे जाते हैं।

दूसरी ओर इस बीच हुआ यह कि अनुसूचित जातियां विशेषकर चमार जाति शिक्षा के महत्व को पहचान कर नौकरियों के सिलसिले में काफी आगे बढ़ गई थीं। लेकिन दूसरी जातियां शिक्षा में पिछड़ जाने के कारण उतना आगे नहीं बढ़ सकीं। इसके कारण यह विचार हवा में उभरता भी है कि चमार जाति के लोग अनुसूचित जाति का सारा आरक्षण हड़प जा रहे हैं।

जमीनी स्तर पर बात करें तो उपरी तौर पर पंजाब के अनुसूचित जातियों में सामाजिक तौर पर विद्वेष तीखे नहीं दिखाई देते। लेकिन सारा आरक्षण हड़प जाने की भावना ने अलग आरक्षण के विचार को पुख्ता तो किया ही था। इसके साथ राजनीति के कारण भी जुड़े हुए थे।

यहां हमें यह भी देखना होगा कि 1984 में बहुजन समाज पार्टी का उदय होता है, जिसमें पंजाब के मजहबी सिख, वाल्मिकी नेता काफी संख्या में जुड़ते हैं। इनमें जालंधर के देवी दास नाहर जैसे प्रभावशाली नेता का नाम लिया जा सकता है। तब तक हम अलग आरक्षण का विचार प्रभावी रूप में नहीं देखते हैं। यदि यह प्रभावी होता तो निश्चित तौर पर बहुजन समाज पार्टी में भी यह विचार अवश्य उठता।

पंजाब की बात करें तो अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 32 प्रतिशत मानी जाती है। इनमें चमार जाति (रविदासिया, रामदसिया, रामगढ़िया आदि) के बाद मजहबी सिखों की संख्या सबसे ज्यादा है। लेकिन मजहबी सिखों का बड़ा हिस्सा (अनुमानित तौर पर करीब 70 प्रतिशत) गांवों में रहता है। इनमें अधिकतर खेत-मजदूर हैं तथा एक तरह से जमींदारों के बंधुआ मजदूर हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘सीरी’ कहा जाता है। इस समुदाय के कुछ लोग साफ-सफाई का काम भी करते हैं। ऐसे ही शहरों में रहनेवाले वाल्मिकी समुदाय के लोग ही अधिकतर सफाई का काम करते हैं। ये शहरी वाल्मिकी राजनीति के तौर पर अपनी तेज समझ रखते हैं, लेकिन इनका संबंध आजकल ज्यादातर हिंदूवादी विचारधारा से देखा जाता है। राजनीतिक खेमेबंदी के आधार पर कहें तो कभी भाजपाई तो कभी-कभी ये कांग्रेसी मंचों पर भी देखे जाते रहे हैं।

हम इससे कतई इंकार नहीं कर सकते हैं कि यदि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के आधार पर अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण किया गया तो शहरों में ही प्रभाव अधिक देखा जाएगा।

अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या इस अदालती फैसले से अनुसूचित जाति में सामाजिक संबंधों पर कोई प्रभाव देखने को मिलेंगे? इसका उत्तर यही है कि शायद इससे राजनीतिक समीकरण बदलें, लेकिन सामाजिक समीकरणों पर ज्यादा प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा। इसका बड़ा कारण यह है कि हम मानें या न मानें, लेकिन आज भी अनुसूचित जातियों के मुहल्ले अलग-अलग ही होते हैं। उनके बीच रोटी-बेटी का संबंध न के बराबर है। लेकिन इसके बावजूद उनके बीच आपसी मनमुटाव बहुत कम देखने को मिलते हैं। इसकी वजह यह भी कि हिंदुओं के ‘अछूत’ शब्द की पीड़ा इनके बीच साझी है।

दूसरी बात यह भी कि पढ़े-लिखे, नौकरी-पेशा वाले मजहबी सिख और वाल्मिकी अपने पुरानों मुहल्लों को अलविदा भी कह रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के बाद कई विशेषज्ञों ने यह खदसा (अंदेशा) भी जाहिर किया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अब समूह के स्तर पर एक नहीं रह जाएगा। उनके भीतर वर्गों के आधार पर राजनीति शुरू होगी, जिसके कारण उनके संख्याबल का दुरुपयोग भी हो सकता है।

दरअसल आरक्षण प्रारंभ से ही उन लोगों की आंखों की किरकिरी रही है, जिन्हें यह लगता है कि इस आरक्षण ने उनके तमाम अधिकारों पर डाका डाला है। इस प्रकार की घृणा का एक रूप हमने मंडल कमीशन के 1990 के आरक्षण विरोधी आंदोलन में देखा है। हालांकि इस कमीशन का अनुसूचित जातियों से कोई संबंध नहीं था, लेकिन तमाम घृणा का लावा इन पर भी उछाला गया था।

आखिरी बात यह कि प्रत्येक क्षेत्र में सरकारी नौकरियां एकदम नदारद हैं। देश का नवयुवक वर्ग खाली हाथ है। वह बाहरी देशों की सरहदों को नाप रहा है। इस हाल में भी यह आरक्षण यह आश्वासन तो देता ही है कि वे भारत की शासन-व्यवस्था में हिस्सेदारी रखते हैं।

बहरहाल, संविधान पीठ के निर्णय को शंका की दृष्टि से नहीं देखते हुए भी हमारे जेहन में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उभर सकता है कि उपवर्गीकरण से पहले क्या देश की उन जातियों के साथ आरक्षण को लेकर अन्याय होता रहा है, जिनका उपवर्गीकरण करने की बात कही जा रही है? क्या उन्हें इससे पहले आरक्षण से जबरन बाहर धकेला जाता रहा है?

जाहिर तौर पर हमारे पास इसके पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं हैं। हमारा मानना है कि यदि मजहबी सिखों और वाल्मिकी समुदाय के लोगों के साथ आरक्षण देने में भेदभाव होता रहा है तो यह निर्णय जायज कहा जा सकता है। लेकिन यदि कोई भेदभाव नहीं हुआ है तो यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि तब वह कौन-सी परिस्थितियां बनीं कि इस निर्णय की जरूरत पड़ी?

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