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प्रतिरोध की प्रतीक अरुंधति रॉय:क्या वर्तमान शासक समाज को प्रतिरोध शून्य’ बनाना चाहता है?

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रामशरण जोशी 

विश्वविख्यात प्रतिरोध की प्रतीक लेखिका अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ केस चलेगा या नहीं, वे दण्डित होंगी या नहीं, इसका फैसला तो न्यायिक प्रक्रिया से ही तय होगा। समाज और शासन की दृष्टि में अदालती फैसला कैसा रहता है, इस पर टिप्पणी फैसला आने के बाद ही की जा सकती है। लेखिका और सामाजिक-सांस्कृतिक एक्टिविस्ट रॉय के विरुद्ध 14 साल पुराने प्रकरण को कब्र से उखाड़कर ज़िंदा करने की कोशिश शासकों के मंसूबों व इरादों पर सवाल ज़रूर खड़ा कर देती है।

बुनियादी सवाल यह है कि क्या देश का वर्तमान शासक लोकतंत्र को ‘विपक्ष मुक्त और समाज को प्रतिरोध शून्य’ देखना व बनाना चाहता है? रॉय -प्रकरण में कानूनी प्रकरण अपनी जगह है, जिसका सीधा संबंध राज्य के चरित्र से है। लेकिन इसके समानांतर उतना ही महत्वपूर्ण मुद्दा है समाज, देश, राष्ट्र और लोकतान्त्रिक संस्थाओं को जीवंत रखने के लिए सक्रिय प्रतिरोध का अस्तित्व। प्रतिरोध का जन्म शून्य में नहीं होता है, ठोस भौतिक परिस्थितियां उसे जन्म देती हैं। इन परिस्थितियों का रिश्ता मानव द्वारा निर्मित राज्य की विभिन्न संस्थाओं की चाल -चरित्र -चेहरे से रहता है। इन संस्थाओं से अपेक्षा की जाती है कि उनका समाज या नागरिक के साथ व्यवहार विभेद-विषमता रहित और न्यायपूर्ण व्यवहार रहे। जब इस व्यवहार में विकृतियां – विसंगतियां पैदा होने लगती हैं, तब इन्हें दूर करने या राज्य नियंताओं को जगाने के लिए ‘सक्रिय प्रतिरोध’ जन्म लेने लगता है। इस प्रतिरोध के सूत्रधार सामान्य वर्ग भी होता है, और उसके उन्नत-परिष्कृत रूप चिंतक व सृजनकर्मी भी होते हैं।

इतिहास साक्षी है, प्रतिरोध समाज व सभ्यता को गति देता है। प्रतिरोध मनुष्य के प्रकृति- ब्रह्माण्ड का एक अभिन्न अंग है। यह सार्विक और सर्वकालिक है। प्रतिरोध का अस्तित्व मिथकीय महाकाव्यों में भी प्रतिबिंबित होता है, और इतिहास का सहयात्री भी रहा है। कल्पना करें, यदि प्रतिरोध नहीं होता तो क्या कौरव -पाण्डव युद्ध होता; प्रतिरोध की अनुपस्थिति में चन्द्रगुप्त मौर्य व अशोक जैसे सम्राट दिखाई देते; प्रतिरोध ने ही महावीर स्वामी, बुद्ध, अक्क महादेवी, कबीर, नानक, मीरा को जन्म दिया है। जीसस और मोहम्मद भी प्रतिरोध के पुंज थे।

एथेंस की गलियों में सत्य को गुंजित करने वाले प्रतिरोधी सुकरात को कौन भूल सकता है? क्या कोपरनिकस, गैलीलियो, जियार्दो ब्रूनो जैसे प्रतिरोधी वैज्ञानिकों को भुलाया जा सकता है? क्या लिंकन ,भगत सिंह, महात्मा गाँधी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला आदि भी तो प्रतिरोध-संतान थे। इटली के चिंतक, लेखक और एक्टिविस्ट अंतोनियो ग्राम्शी का प्रतिरोध दर्शन इस सदी में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पिछली सदी में था। वास्तव में, इतिहास में जितने भी ‘मुक्ति संग्राम’ हुए हैं वे सभी प्रतिरोध की पराकाष्ठा या प्रतिरोध की उच्चतम अवस्था थे। क्या भारत में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम ‘विराट जन प्रतिरोध’ नहीं था?

प्रतिरोध से ही इतिहास आगे बढ़ता है। प्रतिरोध की अनुपस्थिति में समाज गतिहीन बन जायेगा। मनुष्य की कल्पनाशीलता कुंद हो जाएगी। यह ज़रूरी नहीं है कि प्रतिरोध अपने समय में लोकप्रिय रहे, बहुमत उसे पसंद करे और इतिहास में उसे तुरंत मान्यता मिले। जब एथेंस में बहुमत से सुकरात को विषपान के द्वारा मृत्यु दण्ड दिया गया था, तब किसी ने सोचा था कि बहुमत का फ़ैसला ग़लत था। उसी बहुमत को कुछ वर्ष बाद अपने फैसले पर पछतावा हुआ और आज सुकरात विश्व में ‘सत्य -पुंज’ बन गए हैं। यही बात मध्ययुग में चर्च और गैलीलियो -टकराव पर लागू होती है। करीब ढाई सौ वर्ष बाद वेटीकन ( कैथोलिक चर्च मुख्यालय ) को गैलीलियो की आत्मा से क्षमा याचना करनी पड़ी और स्वीकार करना पड़ा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।अंग्रेज़ी सरकार की दृष्टि में रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी ‘आतंकवादी’ थे, जबकि जनता की नज़रों में वे स्वतंत्रता सेनानी थे।

सारांश में,यह ज़रूरी नहीं है की पार्टियां ,सरकारें और संस्थाएं अपने फैसलों में हमेशा सही ही होती हैं। क्योंकि वे सभी मानव निर्मित व संचालित होती हैं। राज्य के नियंता दैविक नहीं होते हैं। इस सत्य के अपवाद न दक्षिण पंथी हैं, न वामपंथी और न ही मध्यमपंथी। अतः काफी हद तक प्रतिरोध का चरित्र ‘सत्ता निरपेक्ष ’ होता है। वर्तमान शासकों के लिए प्रतिरोध ‘फ़ालतू’ का तत्व है। यही वज़ह है कि स्कूली पाठ्यक्रमों से प्रतिरोध की घटनाओं को हटाया जा रहा है। विद्यार्थियों के लिए साम्प्रदायिक हिंसा या दंगों का ज्ञान ज़रूरी नहीं रह गया है; बाबरी मस्ज़िद क्यों गिराई गई; गुजरात के दंगे क्यों हुए; हड़तालें क्यों होती हैं जैसी घटनाओं के विवरण ज़रूरी नहीं रह गए हैं।

प्रतिरोध क्यों, कैसे और कहां होते हैं, ऐसे सवाल गोल होते जा रहे हैं। राज्य नहीं चाहता है कि विद्यार्थी प्रतिरोध की चेतना से लैस रहें। यदि उनमें यह चेतना अंकुरित होने लगेगी तो वे राज्य व शासक वर्ग के चरित्र और कार्यशैली पर सवाल खड़े करने लगेंगे। इसलिए दक्षिण अमेरिका के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिक्षा शास्त्री पाओलो फ्रेरे ने शिक्षा को ‘ मुक्ति की प्रक्रिया’ कहा है। शासक वर्ग हमेशा शिक्षा के माध्यम से जनता पर राज्य करता आया है। इसलिए उन्होंने प्रतिरोध समृद्ध संवाददात्मक व प्रश्न प्रेरक शिक्षा की पद्धति को विकसित किया था। इस पद्धति में प्रतिरोध के लिए पर्याप्त स्पेस है।

लेखिका अरुंधति रॉय ने कश्मीर के सम्बन्ध में क्या कहा था? उनका कथन कितना सही और कितना राष्ट्र या देश विरोधी है? निश्चित ही, इन सवालों पर अदालत में बहसें होंगी और होनी भी चाहिए। लेकिन, राज्य की दृष्टि और व्यक्ति या लेखिका की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में साम्यता रहे,यह ज़रूरी नहीं है। यह ठीक है कि राज्य की ज़िम्मेदारी देश-राष्ट्र की रक्षा की होती है, लेकिन सच्चे चिंतक और सृजक ‘सत्ता निरपेक्ष’ होते हैं। शासक वर्ग की दृष्टि सीमित होती हैं और ‘सत्ता सापेक्ष’ रहती है।
सवाल किया जा सकता है कि चौदह वर्ष पुराने प्रकरण को उठाने की आज क्या ज़रूरत आन पड़ी है? क्या रॉय आतंकी हैं? क्या आतंकवाद की पोषक हैं? क्या किसी संगठन की सरगना हैं? क्या जयचंद- मीरज़ाफर की तरह गद्दार हैं? क्या वे बगावत के लिए लोगों को उकसा रही हैं?

सरकार ने कतिपय पत्रकारों को जेलों में डाला( न्यूज़ क्लिक के सम्पादक पुरकायस्थ और उनके साथी) और आला अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें छोड़ दिया। ऐसे भी प्रकरण हुए हैं जिनके अंतर्गत नागरिकों को बरसों तक जेलों में सड़ाया और बाद में अदालत ने उन्हें निर्दोष घोषित कर दिया था। तब क्या यह माना जाए कि राज्य के संचालक अपराधी हैं और उन्हें भी दण्डित किया जाना चाहिए? मेरी दृष्टि में, रॉय-प्रकरण के माध्यम से भाजपा शासित सत्ता जहां अपनी पुरानी राज्य आतंकी फ़ितरत को जारी रखने का सन्देश देना चाहती है, वहीं वह कश्मीर मुद्दे को नए ढंग से सुलगाये रखना चाहती है। छद्म रूप से वह रॉय-प्रकरण के माध्यम से समाज में ‘ध्रुवीकरण’ की प्रक्रिया को भी जारी रखने की कोशिश कर रही है।

भाजपा चाहेगी कि कांग्रेस सहित विपक्ष को इस प्रकरण पर घेरा जाए और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ के नैरेटिव को ज़िंदा रखा जाए। क्योंकि इस नैरेटिव ने  दिल्ली के चुनावों में कमाल भी दिखाया है;  दिल्ली में कांग्रेस प्रत्याशी और जेएनयू के पूर्व छात्र नेता कन्हैया कुमार की हार व भाजपा के उम्मीदवार की जीत हुई। इस दृष्टि से रॉय-प्रकरण ध्रुवीकरण के लिए नायाब शस्त्र सिद्ध हो सकता है।

ताज़ा चुनावों में भाजपा की 63 सीटों का घटना और बनारस से प्रधानमंत्री मोदी की जीत के मार्जिन में भी तीन लाख से अधिक वोटों की गिरावट ‘विकलांग जीत‘ के समान है। भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान इस हादसे को सह नहीं पा रहा है। वह अब ऐसे ‘मुर्दा मुद्दों’ की तलाश में रहेगी जिन्हें कब्र से उखाड़ कर फिरसे उनमें जान फूंक कर ‘ध्रुवीकरण -संस्कृति’ को चलायमान रखा जा सके। हो सकता है, रॉय -प्रकरण इस रणनीति का अभिन्न हिस्सा हो! इसके माध्यम से भाजपा जनता और सिविल सोसाइटी की प्रतिक्रिया जानना चाहती हो! लेकिन, भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान को याद रखना चाहिए कि किसी भी विचार को क़ैद करके उसकी हत्या नहीं की जा सकती। भाजपा स्वयं अपनी मातृ संस्था का ही उदाहरण से सीखे। संघ पर भी प्रतिबंध लग चुके हैं। क्या संघ की विचारधारा का खात्मा हो सका है ? क्या हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद व नाज़ीवाद विचार विलुप्त हुए हैं ?

आज भी इसके नए नए संस्करण देखने को मिलते हैं। अमेरिका और पश्चिम के विकसित देश भी इस मानव विरोधी विचारधारा से कम -अधिक ग्रस्त हैं। इसलिए, अरुंधति रॉय के प्रकरण के कई आयाम हैं, सिर्फ क़ानूनी ही नहीं है। इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। सरकार किसी भी दल की रहे, सत्ताधीशों को प्रतिरोध की सत्ता ललकारती ही रहेगी। इतिहास साक्षी है, प्रतिरोध को जितना दबाया गया है वह फिरसे राख के ढेर को चीर कर समकालीन सत्ता से टकराया है। भाजपा सत्ता ने ऑब्जेक्टिव विरोधियों पर उपकार ही किया है, प्रतिरोध की अग्नि को बुझने नहीं दिया है!

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