कर्नाटक की छात्रा तबस्सुम शेख ने 12वीं की बोर्ड परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया है। अप्रैल के महीने में हिंदुस्तान के लोग लगभग हर साल इसी तरह की सुर्खियां देखते हैं कि लड़कियों ने लड़कों को पछाड़ा या बोर्ड में लड़कों से आगे रही लड़कियां, आदि आदि। लेकिन तबस्सुम का मामला कुछ अलहदा है, उन्होंने बोर्ड में पहला स्थान हिजाब विवाद के बीच हासिल किया है। पाठक जानते हैं कि कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर बड़ा विवाद खड़ा हुआ, जिसके लिए अदालत का दरवाजा भी खटखटाया गया। कर्नाटक की भाजपा सरकार ने पिछले साल की शुरुआत में शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर पाबंदी लगा दी थी, क्योंकि यह एक धार्मिक लिबास है और सरकार इसे स्कूल-कॉलेज के ड्रेस कोड के अनुरूप नहीं मानती। लेकिन फिर भी कई लड़कियों ने हिजाब पहनना नहीं छोड़ा, तो उन्हें कक्षा में बैठने की अनुमति ही नहीं दी गई। कुछ जगहों पर हिंदुत्व के प्रचारक युवा केसरिया गमछा पहनकर विरोध करने लगे। हिजाब पहनी मुस्लिम छात्राओं को भयभीत करने के लिए जय श्रीराम के नारे भी कुछ जगहों पर लगे।
हाईकोर्ट ने भी शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने की इजाज़त नहीं दी। सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ कई लड़कियों ने अपील दायर की, तबस्सुम भी उन्हीं में से एक थी। बहुत सी लड़कियों ने हिजाब न पहनने के कारण कक्षाओं में जाना छोड़ दिया और कई का तो साल भी बर्बाद हो गया, क्योंकि वे परीक्षा नहीं दे पाईं। लेकिन तबस्सुम के पिता ने उन्हें समझाया कि कानून का पालन करना चाहिए और शिक्षा बच्चों के लिए किसी भी चीज से अधिक महत्वपूर्ण है। तबस्सुम ने उनकी नसीहत पर अमल करते हुए हिजाब के ऊपर शिक्षा को चुना और उम्दा अंक लाकर अव्वल स्थान प्राप्त किया।
तबस्सुम की यह सफलता की कहानी अब टीवी चैनलों से लेकर कई बड़े अखबारों में छाई हुई है। कोई लड़की तमाम विवादों के बीच अगर अच्छे से पढ़कर पहला स्थान हासिल करे, तो वह वाक़ई अन्य विद्यार्थियों के लिए मिसाल है। क्योंकि बहुत से बच्चे सारी सुख-सुविधाओं और संसाधनों के बावजूद पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते हैं, अपनी काबिलियत का सही इस्तेमाल नहीं करते हैं। लेकिन तबस्सुम की सफलता की कहानी जिस तरह सुनाई-दिखाई जा रही है, उसे बहुत बारीकी से देखें तो कहानी के पीछे कोई और ही कहानी नज़र आएगी। लगभग हर जगह यही बताया जा रहा है कि तबस्सुम ने हिजाब के ऊपर शिक्षा को चुना। तो क्या यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए कि हिजाब और शिक्षा को एक पलड़े में रखा कैसे गया। किसने ऐसा करने दिया। किसी बच्ची को दोनों में से किसी एक को चुनना पड़े, ऐसी नौबत क्यों आई। अगर तबस्सुम में हिजाब में रहती, तो क्या उसकी मेधा पर कोई असर पड़ता। या हिजाब न पहनने के कारण उसकी बौद्धिक क्षमता इतनी बढ़ गई कि वह सीधे प्रथम स्थान पर आ गई। तबस्सुम शुरु से मेधावी और मेहनती दोनों रही होगी, तभी उसने इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल की। तबस्सुम के अच्छे अंक देखकर तो यह विचार भी आता है कि उसकी तरह और भी दूसरी लड़कियां ऐसी प्रतिभाशाली होंगी, लेकिन उन्होंने हिजाब और शिक्षा में हिजाब को चुना, तो वे परीक्षा ही नहीं दे पाईं।
तबस्सुम का साक्षात्कार लेने वाले कई पत्रकारों ने उनसे कई सवाल किए होंगे, लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इस्लाम का पालन करने वाली छात्राओं के सामने इस तरह विकल्प चुनने की नौबत क्यों आई। हिजाब पहनना या न पहनना किसी की व्यक्तिगत पसंद होनी चाहिए और यह पैमाना हर धर्म और हर नागरिक के लिए होना चाहिए। तभी व्यक्तिगत आज़ादी का अधिकार कायम रहेगा। यह सही है कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और शिक्षा संस्थानों में किसी भी धर्म को बढ़ावा दिए जाने वाली गतिविधियों को करना नैतिक रूप से सही नहीं है। मगर कितने ही विद्यालयों में प्रार्थना के बाद गायत्री मंत्र उच्चारित किया जाता है। सरस्वती की मूर्ति अनेक शैक्षणिक परिसरों में है, क्योंकि उन्हें ज्ञान की देवी माना जाता है। बोर्ड के विद्यार्थियों को परीक्षा का दाखिला पत्र मिलने के वक्त यज्ञ और हवन करवाने की परिपाटी कई विद्यालयों में है। यह सब बरसों-बरस होते आया है और इस पर कोई विवाद, कोई हंगामा नहीं हुआ। क्योंकि भारत की तहजीब ऐसी ही है। मगर हिजाब पहनने पर जिस तरह का विवाद खड़ा हुआ और इस पर राजनीति हुई, उससे न जाने कितनी बच्चियों के पढ़ने और बढ़ने के सपने कुचल दिए गए हैं। तबस्सुम ने अपने सपने को बचाने के लिए अपनी हिजाब पहनने की इच्छा को छोड़ा, क्या यह सही हुआ, यह सवाल समाज को ईमानदारी से खुद से करना चाहिए।
किसी भी परीक्षा में प्रथम आना मायने रखता है, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि शिक्षा के सरोकार पूरे हो रहे हैं या नहीं, हम किन मायनों में शिक्षित हो रहे हैं, शिक्षा हासिल करके हमारी सोच का दायरा व्यापक हो रहा है, या हम संकीर्ण विचारों की तंग गलियों में ही विचरण कर रहे हैं। भारत में कबीर और रैदास जैसे संत कवियों की परंपरा रही है, जो जुलाहे या मोची का काम करते हुए अपनी उदार सोच और व्यापक दृष्टिकोण के साथ सड़ी-गली रुढ़ियों को चुनौती देते रहे। जबकि आज के हिंदुस्तान में कई नामी-गिरामी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और अन्य उच्च शिक्षित लोग हैं, जो अब भी धर्म और जाति के नाम पर नफ़रत फैलाने में लगे हैं, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जगह अंधविश्वासों को बढ़ावा देते हैं।
तबस्सुम की उपलब्धि हर तरह से खास है, और यह ख़ास बनी रहेगी, अगर अपने भावी जीवन में तबस्सुम किसी भी तरह की संकीर्णता को नकार कर उदार, प्रगतिशील सोच अपनाएंगी।
देशबन्धु में संपादकीय.
*(आज तबस्सुम और उसके पिता की इस तरह की सोच ही आज हिंदूवादी कट्टरपंथी संकीर्ण ताकतों को सही जवाब दे सकती है।)
(ऐसी संकीर्ण ताकतों से सवाल यदि दम है तो सिक्खों से उनके बाल पगड़ी और कटार हटवा कर देखें?)