अग्नि आलोक
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तन्त्र, वशीकरण और नर~बलि

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डॉ. विकास मानव

      _तंत्र क्या है? तन्त्र को समझने के लिए इसमें उतरे बिना,डूबे बिना कोई कुछ बता नहीं सका।अगर हम सतही और सार्वजनिक स्तर पर देखें तो एक व्यवस्था जिसमें शारीरिक /मानवीय शक्तियों का उपयोग करके लक्ष्य का संधान किया जाता है।_

       बिना जाने समझे या प्रयोग किये भी हम दैनिक जीवन के स्तर पर अनेक प्रकार से तन्त्र को जी रहे हैं । पर जैसे कि हर तत्व के स्थूल व सूक्ष्म रूप होते हैं तन्त्र को भी हम उसी प्रकार से समझेंगे। स्थूल स्तर पर हर वह क्रिया जिससे जीवन और वातावरण में कुछ व्यवस्था बनाई जा रही तन्त्र है। फिर चाहे वह घर में सुगंध या गृह सज्जा क्यों न की जा रही हो।

       *शूक्ष्म स्तर पर तंत्रार्थ :*

 सूक्ष्म स्तर पर तन्त्र की व्याख्या के लिए हम स्वयं को एक इकाई मानकर इस पर अध्ययन करेंगे।

       कोशिकाओं और उत्तकों से बना हमारा यह शरीर जन्म के साथ ही स्वयं में उसी ब्रह्म तत्व को धारण करके आता है जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है अतः वो सारी बनावटें वो ऊर्जा हममें मौजूद होती हैं जो इस सृष्टि या प्रकृति में मौजूद होती है । किंतु सामान्यतः मानव न  तो अपने शरीर के प्रति जागरूक है न ही इसमें मौजूद ब्रह्म की अपार शक्तियों के विषय में।

      तन्त्र मानव को अत्यंत सहजता से उस  विषय की समझ पैदा करता है और स्वयं के अंदर मौजूद अपार शक्तियों की जागृति में सहायक होता है। देखा जाए तो तन्त्र या तन के शक्ति के विस्तारीकरण को  जीवन का धर्म ही माना जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि यह मानव के संकुचित दृष्टिकोण को विस्तृत करता है कि शरीर की इकाई से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्मांड में प्रतिक्षण समान रूप से क्रिया और प्रतिक्रिया घट रही है तो जो आप करेंगे उस कार्य का फल ही द्विगुणित त्रिगुणित होकर आपको प्राप्त होगा।

अतः मानव को प्रतिपल सजग होकर जीने की चेष्टा में संलग्न होना चाहिए और यथासंभव वही बीजारोपण करना चाहिए जिसका फल प्राप्त करना चाहते हैं।

       तन्त्र की सूक्ष्मता में हम यह पाते हैं कि प्रकृति में मौजूद प्रत्येक कण अपने आप में एक ऊर्जा को धारण कर रहा है और तदनुसार कार्यरत है। यही हाल हमारे शरीर के आंतरिक संरचना का है।बाह्य रूप से एक सांचे में ढला यह शरीर अंदरूनी तौर पर कई अंगों ,नाड़ियों और कशेरुको का समूह है और हर इकाई की एक अपनी ऊर्जा है जो ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्म अंश ही है  ।किंतु इनकी संरचना में कुछ ऐसे बनावट हैं जिन्हें हम ऊर्जा पॉइंट्स या चक्र कह सकते हैं ,इन चक्रों या ऊर्जा पॉइंट्स  में सम्बंधित अंग क्षेत्रों की महत्तम ऊर्जा पाई जाती है और ये क्रमशः सूक्ष्म नाड़ियों द्वारा आपस में सम्बद्ध रहते हैं।

        तन्त्र को हम योग क्रिया की वह विधि समझ सकते हैं जिससे इन ऊर्जा पॉइंट्स को आपस में योग कराया जाता है ।क्योंकि किसी भी ऊर्जा पॉइंट्स पर रुकी ऊर्जा सम्बंधित अंग या अंग क्षेत्र को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है ।और मानव का जीवन संतुलन खोने लगता है तो हम स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि तन्त्र वह क्रियाविधि है जिसके द्वारा न्यूनतम और निम्नतम स्तर पर की ऊर्जा को वृहद बनाकर उच्च स्तर के ऊर्जा पॉइंट की ओर भेजा जाता है।

        तन्त्र की पूर्णता से सभी चक्र या ऊर्जा पॉइंट्स के एकसार होने पर मानव मस्तिष्क का धनात्मक और ऋणात्मक पक्ष का  संयोग होता है जिसे कोई ऑर्गेज़्म ,कोई शिव शक्ति मंडल  कहता है। तो जितनी मात्रा और परिमाण में और जितने अंतराल को साधते हुए ऊर्जा का सप्लाई उच्च केंद्रों में होगा और उसे रोका जाएगा उतना ही ऑर्गेज़्म लंबा और सुखद होगा तथा  यह अवस्था सुख के साथ एक आनन्द जनित शून्यता लाएगी।

 यह शून्यता की प्राप्ति ही साधनाओं के मूल में कई प्रकार से विद्यमान है और यही हर साधक का लक्ष्य है क्योंकि बिना इसके किसी भी उद्देश्य (बीज) का रोपण नहीं हो सकता। तन्त्र सहज योग है क्योंकि यह दैनिक जीवन की शैली में है ,आमोद -प्रमोद, लेन-देन,क्रिया-प्रतिक्रिया ,छेदन-प्रतिच्छेदन यह अनवरत ब्रह्मांड और संसार में घटित हो रहा।

       और तन्त्र हमें इन सभी क्रियाओं के प्रति सजग होकर  क्रियाशील होने  की दृष्टि प्रदान करता है । कुछ लोग तन्त्र को बस दैहिक क्रिया (सेक्स)से जोड़ कर देखते हैं पर यदि हम सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो पाते हैं कि तन्त्र तन द्वारा संचालित और सम्पादित क्रिया होने के बावजूद सिर्फ सेक्स नहीं है बल्कि उससे उच्चतम उद्देश्य लिए ऊर्जा योग या चक्र योग है जिसमें हम अपनी शरीर के प्राथमिक चक्रों से उच्च चक्रो की ओर इसी सेक्स ऊर्जा /काम ऊर्जा (रेतस) के सहयोग से बढ़ते हैं।

       तो हम तन्त्र को चक्र योग या चक्रार्चन की क्रिया कह सकते हैं ,किंतु जब चक्रों की या ऊर्जा पूंजों की बात करते हैं तब  शरीर की स्थिति के अनुसार चक्र और उनके स्थिति और गुण /दोष की  भी व्याख्या अनिवार्य हो जाती है।

क्रमशः  निम्नस्तर से उच्चतम स्तर तक बढ़ने के क्रम में  9 चक्र माने गए हैं जिनमें 7 हमारे शरीर और 2 शरीर के बाहर सूक्ष्म शरीर में स्थित माने जाते हैं। अतः मुख्य रूप से 7 चक्र की ही स्थिति और अर्चन की बात तंत्रयोग में की जाती है :

1. मूलाधार -ळं

2.स्वाधिष्ठान -वं

3.मणिपुर  -रं

4.अनाहत -यं

5.विशुद्धाख्य -हं

6.आज्ञा चक्र – ॐ

7.सहस्रार (त्रिकुटी)-ॐ

         इनमें से 5 चक्रों की स्थिति गर्दन तक और 2 चक्र आज्ञा और सहस्रार की स्थिति गर्दन से ऊपर मानी गयी है ।इन चक्रों को एकसार और किये बिना योग की पूर्णता कभी हासिल नहीं की जा सकती।

         जिस प्रकार मधुमक्खी के छत्ते में से शहद प्राप्त करने के लिए  उसके पकने या पूर्णता का इंतजार किया जाता है उसीप्रकार चक्रों में मौजूद ब्रह्म ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए तन्त्र की क्रिया द्वारा इनकी अग्नि को बढ़ाया जाता है जिससे  इनके अंदर के विकार सतह पर आते हैं और अन्यान्य विधियों द्वारा उन्हें सही किया जाता है। जो स्थान क्रिया द्वारा रिक्त हो जाती है उसका स्थान ब्रह्मांड की सूक्ष्म ऊर्जाएं उसी प्रकार ग्रहण कर लेती हैं जिसप्रकार गर्म वायु के ऊपर उठने पर उसका स्थान ठंढी हवा ले लेती है।

इस प्रकार हम यह देखते हैं कि तन्त्रक्रिया में स्थान की ऊर्जा का भी बहुत ही गहरा असर  पड़ता है। 

किंतु यहाँ यह समझना जरूरी है कि क्या तन्त्र सिर्फ चक्रयोग मात्र है या इससे विशेष कार्य भी सिद्ध होते हैं  क्या यह पूर्ण योग के द्वारा संतुष्टि प्रदाता मात्र है या विशिष्ट उद्देश्य पूर्ति में भी सहायक होता है ?

       तो सत्यता यह है कि तन्त्र की क्रिया के साथ जब उचित मन्त्र अर्थात मानसिक निर्देश और पूर्ण विश्वास यानी मानसिक आस्था का समावेश होता है तब ब्रह्मांड का हर कार्य आकर्षित होकर पूर्णता को प्राप्त करता है।इसपर तन्त्र क्रिया द्वारा लक्ष्य का संधान किया जाता है । तन्त्र मानता है कि ब्रह्मांड से लेकर यह मानव शरीर एक ऊर्जा पिंड ही है जिसमें तादात्म्य स्थापित करके किसी भी कार्य या घटना को अंजाम दिया जा सकता है।इसलिए तन्त्र की सूक्ष्म क्रियाओं में मस्तिष्क ऊर्जा का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है और  ऊर्जा के रूप परिवर्तन ,केंद्रीकरण ,विकेंद्रीकरण स्थान्तरण या  विस्थापन द्वारा अनेक लक्ष्य को पूर्ण किया जाता है।

सरल शब्दों में हम तन्त्र को  ऊर्जा नियमन की मानसिक वैज्ञानिक प्रक्रिया कह सकते हैं।

        तन्त्र जादू टोना या चमत्कार है. ये सिर्फ़ भ्रांति है।

*वशीकरण :*

        वशीकरण या आकर्षण एक पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया है  जिसका वर्णन अथर्ववेद में पाया जाता है ।तन्त्र की उच्च क्रियाओं में वशीकरण को माना गया है।

       साधरणतः हम जिस स्थूल शरीर को जानते या देखते हैं यह अपने साथ एक इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फील्ड  से घिरा होता है जिसे हम सूक्ष्म शरीर या कारण शरीर कह सकते हैं।

         ध्यानयोग या तन्त्र साधना द्वारा या मंत्रों की ऊर्जा के संघनन से  मनुष्य में यह क्षमता उत्पन्न हो जाती है कि वह अपने से कमतर इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फील्ड वाले व्यक्ति की मानसिक ऊर्जा का स्वयं में आकर्षण कर सके।    

           निरन्तर अभ्यास द्वारा ही वशीकरण को साधा जाता है। कई मन्त्र ऐसे होते हैं जिनके निरन्तर जप करने से प्रबल वशीकरण शक्ति प्राप्त होती है।

         वशीकरण यंत्र भी इसी टेक्नोलॉजी पर बने होते हैं जो सम्बंधित  वशीकरण देव शक्तियों की ऊर्जा से सिद्ध होते हैं।

        किंतु इसका प्रयोग मन को सकारात्मक दिशा में प्रेरित के लिए ही करना चाहिए अन्यथा प्रयोगकर्ता पर भी  तन्त्र शक्ति का पलटवार होता है और उसकी माया छिन्न भिन्न हो जाती है।  

*यौगिक और आवश्यक है नर~बलि :*

         नर-बलि आध्यात्मिक ज्ञान के संदर्भ में जानना आवश्यक है, क्योंकि व्यक्ति आध्यात्मिक साधना के माध्यम से ही अतीन्द्रिय चक्रों को जगाने की चेष्टा कता है।

नर शब्द दो वर्णों, ‘न’ और ‘र’ से बना है। ‘न’ अनंत  और ‘र’ अग्नि तत्व के क्रमशः द्योतक हैं।  बली का अर्थ है वह जिसके पास उपयोग के लिए  ‘अनंत-अग्नि’ की आध्यात्मिक शक्ति है।

       अनंत महर्लोक से शुरू होता है, हृदयस्थ अनाहत चक्र से और शिर में स्थित सहस्रार के ऊपर तक इसका बोध होता है, ध्यान-योगी को।  ध्यान-योगी अपने जीव भाव का महर्लोक में त्याग कर देता है और उसका चैतन्य आत्मा, भावनाओं और भौतिक जगत, काल और स्थान के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।

         महर्लोक तक पहुँचने के लिए, योगी किसी सक्षम  आध्यात्मिक गुरु के सक्रिय मार्गदर्शन में निरंतर विभिन्न योग क्रियाएँ व साधना करता है। इस दीक्षा की समयावधि लगभग 12 वर्षों की होती है, जो कि राशि चक्र में बृहस्पति ग्रह के एक चक्कर के बराबर है। बृहस्पति  मोक्ष के ज्ञान का कारक ग्रह है।

अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र में स्थित है।  अधिकांश साधक इसे सक्रिय करने में असमर्थ होते हैं और केवल मूलाधार तथा स्वाधिष्ठान चक्रों में ही उलझे रहते हैं।  भागीरथ प्रयत्न की आवश्यकता होती है मणिपुर चक्र में प्रवेश करने और उसकी अग्नि का उपयोग अनाहत चक्र, महर्लोक में आगे बढ़ने के लिए।

       मणिपुर से अनाहत चक्र की ओर जाने वाली सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करने के लिए भौतिक विषयों से मानसिक त्याग और वैराग्य के साथ दृढ़ इच्छाशक्ति ही एकमात्र उपाय है।

       सुषुम्ना नाड़ी में मांस से बनी बहुत सी रुकावटें हैं, जिन्हें मणिपुर चक्र की आंतरिक अग्नि से ‘जला’ देना पड़ता है।  यह जीवित मानव मांस को जलाने के समान है और इस प्रक्रिया में योगी को अपने भीतर उसी मांस के जलने की गंध आती है।

      यह सुषुम्ना नाड़ी को अवरुद्ध करने वाली रीढ़ की हड्डी के भीतर स्वयं के मांस को जलाने के लिए नर-बलि का भौतिक रूप है।  एक बार जब नर-बलि की जाती है और सुषुम्ना खुल जाती है, ध्यान-योगी की चेतना अनाहत चक्र में प्रवेश करती है।  यह चक्र मुंड में अग्नि के पारदर्शी लाल रंग के रूप में दिखाई देता है।

सभी आध्यात्मिक सिद्धियाँ ध्यान-योगी के लिए उपलब्ध होती हैं, जब उसकी चेतना, सभी भावों से मुक्त हो जाती है और चैतन्य आत्मा प्रकट होता है।  इसे शास्त्रों में भवसागर का अतिक्रमण भी कहा गया है।

       नर ही नारायण बन जाता है।  पुरुष स्वयं प्रकृति का स्वामी बन जाता है।  स्व-आत्मा को परम-आत्मा बनने की क्षमता प्राप्त होती है, अगर यह निष्काम भाव की स्थिति में सहस्त्रार की यात्रा जारी रखता है।

       इस प्रकार, नर-बलि आध्यात्मिक ज्ञान के आयाम में प्रवेश करने और अग्नि-अनंत की आध्यात्मिक शक्ति, तथा नारायण की उपाधि का लाभ उठाने के लिए आध्यात्मिक योग की एक अनिवार्य क्रिया है।🍃

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