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असम और पश्चिम बंगाल के बागानों की चाय गरम मगर मजदूरों की जेब ठंडी

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दिलीप लाल

असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों को इन दिनों राजनीतिक पार्टियां वादों से लुभाने में लगी हैं। पश्चिम बंगाल में लगभग 150 और असम में लगभग 900 छोटे-बड़े चाय बागान हैं। इनमें लगभग 60 लाख लोग काम करते हैं। इतना बड़ा वोट बैंक होने के नाते राजनीतिक पार्टियों का इनके पास आना स्वाभाविक है।

इन मजदूरों का कहना है कि नेता वादे करके भूल जाते हैं। हर बार चुनाव के समय आते हैं, आश्वासन देते हैं, पर हमारी हालत जस की तस रहती है। इनके पास न तो रहने का अच्छा ठिकाना है, न पानी का इंतजाम। न तो ये अपने बच्चों को स्कूल भेज पाते हैं और न ही इनके लिए हॉस्पिटल का अच्छा इंतजाम है। ये जिसे क्वार्टर कहते हैं, सुनकर लगता है कि यहां सभी तरह की सुविधाएं होंगी। पर जानकर हैरानी होती है कि ये खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। इनमें शौचालय का इंतजाम नहीं है। इन मजदूरों के बच्चे अपने माता-पिता के संघर्ष को देखकर जीते हैं, और फिर इन्हीं चाय बागानों में इनकी पीढ़ियां खप जाती हैं। इनके बच्चों के लिए आसपास स्कूल की व्यवस्था नहीं है। स्कूल तक पहुंचने के साधन भी इनके पास नहीं होते। अक्सर बच्चे माल ढुलाई के लिए आए वाहनों पर लटककर स्कूल जाते हैं। कई बार दुर्घटना के शिकार होकर उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। इनकी इस समस्या को देखने वाला कोई नहीं है। कुछ इलाकों में सरकारी हॉस्पिटल हैं, तो वहां डॉक्टर ही नहीं आते।

पश्चिम बंगाल के उत्तरी क्षेत्र के जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग, अलीपुर जैसे इलाकों में अंग्रेजों के समय में आकर बसे इन चाय मजदूरों की पीढ़ियां आज काम कर रही हैं। इनमें नेपाली और नागपुर से आए आदिवासी ज्यादा हैं। ये पढ़े-लिखे नहीं हैं, लिहाजा इनसे काम लेने वाले हर स्तर पर इनका शोषण करते हैं। शराब इनकी बड़ी कमजोरी है, जिसके चलते इनसे काम लेने वाले इन्हें आसानी से बरगला लेते हैं। ये चावल को काफी दिनों तक रखकर उसे सड़ा देते हैं और उससे शराब बनाते हैं, जिसे ये ‘हंड़िया’ कहते हैं। पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी कि बीरपाड़ा और डालगांव चाय बागानों में काम करने वाले काफी मजदूरों के लीवर में सूजन की बीमारी है।

पहले चाय बागान स्थानीय जमींदारों के थे। चाय बागान के जमींदारों की माली हालत जब खराब होने लगी, तो गुजरात, राजस्थान, दिल्ली के थैलीशाह ये बागान लीज पर लेने लगे। आजादी के बाद बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां चाय के व्यापार से जुड़ गईं। चाय का व्यवसाय सुधर गया, लेकिन इन मजदूरों की हालत नहीं सुधर पाई है। इनकी पीढ़ियां इन्हीं चाय बागानों में पहले की तरह ही परेशान हैं। हमारे देश में चाय की खपत सबसे ज्यादा है और उत्पादन के लिहाज से यह दुनिया में दूसरे नंबर पर है। पहले स्थान पर चीन है। अपने देश से जितनी चाय निर्यात की जाती है, उसका लगभग 52 फीसद उत्पादन असम में होता है। हालांकि पिछले साल कोरोना की वजह से 18 प्रतिशत कम निर्यात हुआ। हमारे यहां की चाय का सबसे ज्यादा निर्यात ईरान और रूस में होता है। पिछले साल कोरोना के चलते इन्होंने कम चाय आयात की, जिसका असर चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों पर भी पड़ा।

चुनाव के दौरान जब इन मजदूरों की न्यूनतम दैनिक मजदूरी का मुद्दा उठा, तो असम की बीजेपी सरकार ने उसे बढ़ाकर 318 रुपये करने का ऐलान किया। वहीं असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों और उनके बच्चों के कल्याण के लिए आम बजट में 1,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी असम के चाय बागान में पहुंचीं, तो उन्होंने वादा किया कि राज्य में उनकी सरकार बनी तो न्यूनतम दैनिक मजदूरी 365 रुपये कर दी जाएगी। चुनाव घोषणा से पहले वर्ष 2020 के आखिर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वर्ष 2021 के लिए ‘चा (चाय) सुंदरी’ योजना लॉन्च की। इसके तहत पश्चिम बंगाल के चाय बागान में काम करने वाले 750 परिवारों को घर देने का ऐलान किया। सवाल उठता है कि क्या चुनाव के बाद भी इन मजदूरों की समस्या का ख्याल हमारे राजनेताओं को रहेगा?

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