प्रो. मोहम्मद सज्जाद
एक विश्वविद्यालय इंसानियत-पसन्दी, सहिष्णुता, तर्क, तरक़्क़ी, तसव्वुर की उड़ान और सच की खोज का प्रतीक होता है। वह इनसे भी ऊँचें आदर्शों की ओर इंसानियत के बढ़ते कदमों की पहचान है। अगर विश्वविद्यालय अपनी ज़िम्मेदारियों को सही से निभाएं तो इस देश और मुल्क के लोगों का बहुत भला होगा। लेकिन अगर वही तालीमी इदारे कट्टरता और छोटे-मोटे स्वार्थों को साधने का मंज़र बन जाएं तो उस देश और उसके आवाम की तरक्की कैसे होगी?”जवाहरलाल नेहरू
दो महीने पहले भाजपा के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने वक़्फ़ एक्ट (कानून)1955 में संशोधन करने के लिए एक बिल सामने रखा। बिल में कई खामियां और कमियां हैं। जाहिर है हंगामा बरपा हुआ! अख़बारों और रिसालों से लेकर सोशल मीडिया और यूट्यूब तक कई जानकारों में लोगों को बिल के बारे में शिक्षित करने की होड़ लगी है। पहले ख़बरें सुनाई जाती थीं लेकिन अब वो समझाई जाती हैं। अख़बारों के पन्ने मामले के सेक्युलर जानकारों से लेकर थेअलोजियन तबके तक के “ओपिनियन” लेखों से पटे पड़े हैं। इन सबके बीच जिन भी कारणों से सही लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी टीचर्स ऐसोसिएशन (अमूटा) इस मुद्दे पर चर्चा करने की ख़ातिर अपनी जनरल बॉडी मीटिंग या कोई सत्र नहीं बुला पायी थी। आख़िरकार22 सितंबर 2024 को अमूटा ने एक बैठक बुलाई। विश्वविद्यालय में आम भावना बिल के ख़िलाफ़ देखते हुए कोई भी यही उम्मीद करता कि इस बिल के विरोध में और इसे नकारने के लिए राजनीतिक रणनीति तैयार करने पर सब एक साथ होंगे। उम्मीद यही थी कि इस खास पहलू पर ही अधिक मंत्रणा होगी।
अफ़सोस ऐसा न हुआ। केवल दो लोगों को बोलने दिया गया। उनके भाषण उबाऊ और बोझिल थे। ऐसा लग रहा था कि बोलने वाले मीटिंग में बैठे दूसरे अकादमिकों को स्कूल के बच्चों की तरह देख रहे थे जिन्हें मुद्दें की एबीसी समझनी पड़े। अपने सहयोगियों के साथ ऐसा व्यवहार सुनने वालों में कई लोगों को नागवार गुज़र रहा था। बोलने वाले दोनों लोग शायद यह मान बैठे थे कि सभी सुनने आए अकादमिकों के पास कहने को कुछ भी ख़ास नहीं है। बात और बिगड़ी जब बहुत देर तक बोलने के बाद भी दोनों ने एक और सत्र की माँग उठाई। उन्हें कुछ और बातें जोड़नी थीं क्योंकि वह रह गई थीं। सत्र की अध्यक्षता कर रहे व्यक्ति ने उन्हें एक और मौक़ा दिया। फिर इस बात की अनदेखी हुई कि सुननेवालों में भी कोई कुछ कह सकता है या मुद्दें पर दूसरी बातें जोड़ सकता है। बोल सकने वाले लेकिन मौक़ा न पाने वाले इन कई अकादमिकों में यह लेखक भी शामिल था जो एएमयू फैकल्टी में सबसे पहले अपने कॉलम के सहारे वक़्फ़ बिल पर हस्तक्षेप कर चुका था। लेखक ने प्रस्ताव किया था कि एक ड्राफ्ट बिल को जगजाहिर किया जाए ताकि लोगों की समझ और उनकी सहमति या असहमति को सामने रखते हुए सभी तबकों को साथ लेकर चला जा सकते। इसमें विपक्षी दलों के साथ सरकार की सहयोगी पार्टियां भी शामिल होतीं।
सह अकादमिकों को बच्चा समझना
एक नज़रिया यह भी हो सकता है कि लंबे भाषण देने वाले दोनों लोगों ने अगर अपने ही सहयोगी अकादमिकों को बच्चों की तरह समझा तो इसमें उनकी क्या ही गलती है। अतीत में इस लेखक ने यूनिवर्सिटी की एग्जीक्यूटिव कौंसिल पर अपनी बात को साफ़गोई से कहने के लिए कि वह कुछ ही शिक्षकों का मठ बना हुआ है, “इंसेस्टुअस क्लब” का इस्तेमाल किया। हम इस जुमले का अनुवाद करके इसकी स्पष्टता खोना नहीं चाहते। आम पाठक समझ जाएगा कि ऐसा जुमला सगे-संबंधियों या नज़दीक तरीन अज़ीज़ों की गोलबंदी के लिए इस्तेमाल होता है।
इसे पहले-पहल 6 मार्च 2023 को एक कॉलमनिगार ने इस्तेमाल में लाया था। उन्होंने लिखा था कि एएमयू की “कार्यकारिणी, अकादमिक कौंसिल और कोर्ट एक “इंसेस्टुअस क्लब” हैं जहाँ हर कोई किसी न किसी का कुछ न कुछ है।” 10 मार्च 2023 को इस लेख का प्रतिवाद लॉ के एक प्रोफ़ेसर और लॉ यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर ने किया था। यह लेखक अक्टूबर – नवंबर 2023 में एएमयू के वाइस चांसलर पद के लिए गठित पैनल में भी थे। उनके पूरे जवाबी लेख में बहुत सी बातों पर आपत्ति ज़ाहिर की गई थी पर इस “यौन – उक्ति” पर उन्हें कोई ऐतराज़ न था। कार्यकारिणी के वे सदस्य जो मेरे इस्तेमाल में लाए गए इस जुमले(उक्ति) पर छाती पीटने लगे वो निश्चित तौर पर इस कॉलम और उसके जवाबी लेख से अनजान होने का दावा नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि इस मुद्दे से संबंधित वाद -विवाद सिलसिलेवार तरतीब से ThePrint.In तथा Rediff.com एवं अन्य पोर्टलों पर 2023 के दौरान आते रहे। यहाँ यह जोड़ देना आवश्यक है कि एएमयू आधिकारिक जाँच कमेटी रिपोर्ट, 1961 में भी इस जुमले का एक पर्याय – “ब्लाइंड इनब्रीडिंग” (भर्ती में) का प्रयोग किया गया है।
तब से (6 मार्च 2023 से) अब तक एएमयू कार्यकारिणी की दर्जनों बैठकें हो चुकी हैं। कार्यकारिणी के इन चार या कहा जाए कार्यकारिणी के किसी भी सदस्य ने इस जुमले को ले कर कोई नाराज़गी नहीं दर्ज की। इसीलिए उनकी चुप्पी को उनकी मंजूरी और इस जुमले के प्रति उनके समर्थन के रूप में देखा जा सकता है।
इस लेखक ने इस जुमले का इस्तेमाल एक फ़ेसबुक पोस्ट में किया। कुछ कार्यकारिणी सदस्यों ने फ़ेसबुक और एएमयू शिक्षकों के AMU Faculty 1 नामक व्हाट्सऐप ग्रुप पर इसे ले कर कोई आपत्ति नहीं की। अगर वो ऐसा करते तो डिक्शनरी के सहारे उनकी मदद करके उनकी मुश्किलों का हल ढूँढ लिया जाता। बल्कि उन्होंने बदले की भावना से इस लेखक को डराने-धमकाने की कोशिश की। इस लेखक के ख़िलाफ़ छुप छुपाकर वाईस-चांसलर के यहाँ शिकायत दर्ज की गई। शिकायत करने वाले शायद इस लेखक का हाथ मरोड़कर उसका मुँह बंद करना चाहते थे। उस शिकायतनामे पर दस्तख़त करने वाले चार में से दो लोग यह कबूल भी चुके हैं। ऑक्सफोर्ड ऐडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी में इंसेस्टुअस क्लब का अर्थ एक ऐसे समूह के रूप में दिया गया है जिसके सदस्यों का आपस में नज़दीकी संबंध हो और जिसमें समूह से बाहर के किसी व्यक्ति को शामिल न किया जाए। अर्थ और स्पष्ट करने के लिए शब्दकोश में उक्ति का वाक्य में प्रयोग करके भी दिखाया गया है। यह वाक्य अपने मूल में अंग्रेज़ी में ही यहाँ उद्धृत करना ज़्यादा बेहतर होगा – “the incestuous atmosphere of media discourse” जिससे इसका अर्थ और साफ़ होता है।
हम शिक्षकों ने अपने बीच से चार सदस्यों को विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी में हमारा प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना है ताकि उनके माध्यम से वाइस चांसलर से हमारी अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा हो सके। इसके उलट वे हमें ही सज़ा दिलाने और अकादमिक आज़ादी को छीनने वाइस चांसलर के दरवाजे पर दस्तक देने पहुँच जाते हैं। इनमें से एक सदस्य ने मेरे पास आ कर मुझसे कहा कि उसे ऐसी किसी चीज़ पर दस्तख़त नहीं करने चाहिए थे। मैंने उनसे पूछा कि अब अपनी भूल का अहसास होने के बाद क्या वह यह शिकायत वापस लेने के विषय में सोचेगा? उन्होंने मना कर दिया।
मुझे उम्मीद है कि वाइस चांसलर सवालों के घेरे में रहे इस जुमले के शाब्दिक एवं बृहद दोनों अर्थों को समझेंगी और शिकायत को उसी अनुसार देखेंगी।
शिक्षकों के बताए गए व्हाट्सऐप ग्रुप (जिसमें लगभग सभी सदस्य मुसलमान हैं) का “संस्थापक एडमिन” भी उन चार कार्यकारिणी सदस्यों में से एक है। लंबे समय से एक पाकिस्तानी भी इस ग्रुप का हिस्सा था। जब ये बात मेरी नज़र में आई और मैंने इसका पुरज़ोर विरोध किया था तो “संस्थापक एडमिन” की ओर से सफाई आई कि ऐसा “अनजाने में” हो गया। इस पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि यदि उन्हें (कार्यकारिणी के सदस्यों को) बात – बात पर वाइस चांसलर से शिकायत करने की आदत है तो मैं इस बात (पाकिस्तानी सदस्य वाली) की ओर वाइस चांसलर, सरकार और साथ ही मीडिया की तवज्जो क्यों न दिलाऊँ। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।
इतना ही नहीं उन चार में से एक कार्यकारिणी सदस्य ने तो मुझे शब्दकोश से लाभान्वित न होने की सलाह दी। उनका कहना था कि मुझे इतिहास पढ़ाने तक ही अपना ध्यान केंद्रित रखना चाहिए [जबकि वो गणित पढ़ाने के अलावा परिसर में कार्यकारिणी के माध्यम से राजनीति भी करेंगे, तबलीग़ी जमात संबंधी गतिविधियाँ भी करेंगे और ड्रामा क्लब में भी सक्रिय रहेंगे]। इन महाशय ने आगे मुझसे जाति- संबंधित सामग्री पढ़ाने, उस पर चर्चा करने तथा उसका मुद्दा उठाने से भी गुरेज़ करने को कहा। अपनी अशिष्टता का परिचय देते हुए इन्होंने बिना ये जाने कि एएमयू ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया है, कार्यकारिणी(और फलस्वरूप उसके सदस्यों, जिनमें से एक ये भी हैं) से पहले “सम्माननीय” उपसर्ग लगाने के लिए बड़ा ज़ोर दे कर कहा।
मैं उनके इस तर्क को राइट विंग विचारधारा की उन कोशिशों की तरह देखता हूँ जो मतदाताओं का अराजनीतीकरण करती है। अतः मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उनसे जुआन लिंज़ की किताब Totalitarianism And Authoritarian Regimes (2001) के हवाले से गुफ़्तगू की। यह पुस्तक तर्क देती है कि निरंकुशता, मानसिकता(mentality) पर निर्भर करती है क्योंकि वह तर्कसम्मत ढंग से सोचने – समझने के बजाए भावनात्मक रवैये को तरजीह देती है जो अलग -अलग परिस्थितियों में गैर-क्रमबद्ध और अनियमित प्रतिक्रियाएं प्रदान करता है। अतः आम जनता को अतार्किकता में फंसा कर और उनके अराजनीतिकरण द्वारा निरंकुशतावाद और व्यक्ति पूजा(जिसमें जोड़ता चलूँ खुद को “सम्माननीय” कहलवाने वाले भी व्यक्ति – पूजा के प्रकार में शामिल हैं) को मजबूत किया जाता है। ऐसे व्यक्ति यह बात भूल जाते हैं कि सम्मान प्राप्त किया जाता है उसकी माँग नहीं की जाती। मेरी इच्छा है कि काश! कोई ऐसा प्रावधान होता जिसके द्वारा ऐसे प्रतिनिधियों का नाम वापस लेने की कोई शक्ति मिल पाती। एक और चुने हुए प्रतिनिधि (जो कि अमूटा के जॉइंट सेक्रेटरी हैं) ने शिक्षकों को वक़्फ़ के मुद्दे पर बैठक में आमंत्रित करते हुए एक धमकी भरा संदेश वितरित किया। इस संदेश का मफ़हूम यह था कि एएमयू शिक्षकों में से जो भी 1970- 80 के दशकों में हिंदुस्तानी मुसलमानों की खामियों (जातीय और लैंगिक मुद्दों पर पिछड़ेपन और दकियानूसी रवैये) पर बात करता है और क़ौम से आत्मनिरीक्षण कर नव -हिंदुत्व के उदय के संभावित कारण खोजने की बात करता है, उनके नज़दीक वह “पीड़ित को दोषी” ठहरा रहा है और इसलिए वह क़ौम का खलनायक है। अतः सिर्फ वही शिक्षकों को बैठक में आने को ले कर आदेश दे सकते हैं। एएमयू जैसे एक मुसलमान बाहुल्य परिसर में जो भी अकादमिक एक स्वतंत्र (पढ़ें मुख्तलिफ़) दृष्टिकोण रखता है, उसे निर्वाचित प्रतिनिधि पहले ही “क़ौम का गद्दार” कह कर बदनाम कर देते हैं।
दक्षिणपंथ में प्रतिस्पर्धात्मक उग्रवाद की मौजूदगी को देखते हुए इस प्रकार के उकसावे और असहिष्णुता द्वारा ऐसे मुद्दों पर मुख्तलिफ़ राय रखने वाले अंदरूनी अकादमिकों (परिसर के परिप्रेक्ष्य में अंदरूनी) की जान को भी खतरा हो सकता है।
यदि ऐसा है तो ऐसा ही सही, जो बिंदु मैं रेखांकित करना चाहता हूँ वे निम्नलिखित हैं –
- या तो वक़्फ़ के मुद्दे पर सबसे अधिक समय तक बोलने वाले वे दोनों आत्मभोग से ग्रस्त वक्ता अपने सह -अकादमिकों को स्कूली बच्चा समझ कर शिक्षाशास्त्र का सबसे सरलीकृत तरीका अपनाने में बिल्कुल ठीक थे।
- या ये दोनों वक्ता इतने आत्म – आसक्त और आत्ममुग्ध थे कि अपने सहयोगियों के लिए बात कहने की जगह और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी विरोध हेतु रणनीति बनाने का तरीका ही नहीं बना पाए।
- या उनकी मंशा ही यही थी कि इस सत्र के परिणामस्वरूप किसी ठोस रणनीति पर काम ही न हो सके जो कि इस मुद्दे पर एक विस्तृत विचार – विमर्श द्वारा ही संभव था (हालांकि उन दोनों के प्रति न्यायपूर्ण रहते हुए सोचा जाए तो इस बात की संभावना बहुत कम है)।
सभा में मौजूद सह -अकादमिकों के हस्तक्षेप के पश्चात एक मसौदा (ड्राफ्ट बिल) तैयार करने की ओर ध्यान वापस लाया गया तथा बैठक में उपस्थित अन्य अकादमिकों द्वारा इसका समर्थन किया गया(हालांकि बैठक में उपस्थिति कम ही थी)।
क़ौम का विराग
एक दिलचस्प पहलू यह है कि क़ौम के शिक्षित एलिट अब जाके भाजपा की सत्ता से लड़ने का प्रण ले रहे हैं। जबकि क़ौम के आम लोग पिछले कई हफ़्तों से वक़्फ़ बिल के विरुद्ध सड़कों पर आ चुके हैं। एक -दो अपवादों को छोड़ कर ऐसा मालूम होता है कि एएमयू की शिक्षक बिरादरी अपना विरोध दर्ज कराने मैदान में बहुत देर से आई है। ये दिखलाता है कि क़ौम के आम लोगों और उसके शिक्षित संभ्रांत उच्च वर्ग के बीच अंतर की खाई कितनी गहरी है।
इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये एलीट लोग क़ौम के आम तबके को तो सत्तारूढ़ शक्तियों के विरुद्ध कमर कसने के लिए उकसाते हैं लेकिन खुद बहुत शातिराना मौकापरस्ती से काम लेते हैं। अब अक्टूबर – नवंबर 2023 के एएमयू के वाइस चांसलर(वी.सी.) के मनोनयन के परिणामों को ही देख लीजिए। अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों से इतर एएमयू अपना वी.सी. अपने ई.सी. (कार्यकारिणी) एवं कोर्ट [दोनों ही संस्थाओं में अंदरूनी(इंटरनल्स) का भारी दबदबा रहता है] द्वारा मनोनीत करता है। इस विशिष्ट समूह (ई.सी. एवं कोर्ट) ने अंदरूनी फैकल्टी सदस्यों को मनोनीत कर दिया। पिछले वी.सी. भी न सिर्फ अंदरूनी संकाय से थे बल्कि पिछली कुछ पीढ़ियों से इसी शहर में रह रहे थे। अंततः वह उत्तर – प्रदेश विधान परिषद में भाजपा विधायक और सत्तारूढ़ पार्टी के उपाध्यक्ष रूप में विराजमान हुए। यह अप्रत्याशित अंतःप्रजनन या इनब्रीडिंग (अक्टूबर – नवंबर 2023) इतनी खुल्लमखुल्ला तथा पक्षपातपूर्ण थी कि कुछ ऐसे अंदरूनी शिक्षक जो वी.सी. बनने के तलबगार थे, सीधे इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुँच गए।
एएमयू के भीतरी लोग भली-भाँति जानते हैं कि मनोनीत हुए वी.सी. पद के संभावित उम्मीदवारों अथवा उनके आश्रयदाताओं में से कौन भाजपा – आर. एस. एस के पक्ष में अंग्रेज़ी दैनिकों में लेख लिख कर अपनी मौकापरस्ती का प्रदर्शन कर रहा है।
एएमयू में अंदरखाने मौजूद लोग ये भी भली – भाँति जानते हैं कि एएमयू शिक्षकों में से कौन भाजपा के मुस्लिम विधायक के साथ मिल कर 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार कर रहा था। एएमयू के शिक्षकों के बीच सोशल मीडिया पर ऐसे कार्यक्रमों के वीडियोज़ का खूब आदान – प्रदान हुआ था। अंदरुनी लोगों को यह भी ठीक-ठाक स्पष्टता से मालूम है कि ई.सी. सदस्यों में से कौन से सदस्य (एएमयू ई.सी. के शिक्षकों एवं शिक्षक- प्रशासकों में से) और उनके हवारी सत्तारूढ़ पक्ष की ओर झुके हुए व्यक्ति के वी .सी. पद की उम्मीदवारी के पक्ष में थे।
थोड़े में बात इतनी है कि इन एलीट लोगों का एक हिस्सा पहले ही सत्तारूढ़ भाजपा के साथ मिल चुका है किंतु यही समूह ठीक इसी समय आम अवाम को भाजपा से लड़ते रहने और इस नफरतपूर्ण प्रतिशोधात्मक सरकार द्वारा प्रतिहिंसा झेलने के लिए उकसाता है। ज़ाहिर है इस तरह का रवैया इन मौका परस्त अभिजातों को सत्तारूढ़ पार्टी के समक्ष सौदेबाजी के लिए थोड़ी और सहूलियत प्रदान करता है। ऐसी दयनीय स्थिति तुरंत कार्रवाई की मांग करती है जिसमें ई.सी. के स्वरूप में परिवर्तन परम आवश्यक है जो कि किसी भी प्रकार का प्रस्ताव बिना उसके आर्थिक परिणाम, न्यायिकता और सरकार या यू.जी.सी. (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) के अनुल्लंघनीय नियमों का ख़्याल किए पारित कर देती है।
मसलन एएमयू के स्कूलों में भर्ती के लिए इन्होंने केंद्रीय विद्यालय संगठन के नियमों को पूरी तरह उलट दिया है ( केवीएस में केवल 30% भाग साक्षात्कार का और 70% लिखित परीक्षा का होता है)। इसके विपरीत एएमयू के स्कूलों में 70% अंक साक्षात्कार के तथा 30% अंक लिखित परीक्षा के होते हैं। निश्चित रूप से ऐसा “अपने” उम्मीदवारों को लाभान्वित करने के लिए किया जाता है जो अस्थाई तौर पर पहले से ही बड़ी मात्रा में वर्षों से कार्य करते आ रहे होते हैं। इसी तरह कुछ प्रभावशाली कर्मचारियों ने नियमित तौर पर 2004 में कार्यरत होने के बावजूद (यहां तक कि उस पद की विज्ञप्ति भी 2004 के बाद आई थी जो उनके नई पेंशन योजना का पात्र होने की संभावना को और सुदृढ़ करती है) स्वयं को ओल्ड पेंशन स्कीम के अंतर्गत पात्र दिखाया हुआ है। सरकार के लेखापरीक्षा एवं वित्तीय विभाग को इस पर एक विस्तृत जांच बिठानी चाहिए। प्रश्न-पत्र निर्धारण (पेपर सैटिंग) एवं आकलन तक के स्तर पर परीक्षा प्रणाली असुरक्षित एवं गड़बड़ी से जूझ रही है किंतु परीक्षा नियंत्रक(कंट्रोलर ऑफ एग्ज़ामिनेशन) लंबे समय से अपने पद पर कायम है। नियम यह है कि यूनिवर्सिटी के प्रशासनिक पदों पर जो कार्यकाल निर्धारित एवं वैधानिक हैं प्रत्येक पांच वर्ष पर विज्ञप्ति द्वारा भरे जाएं। वित्तीय गड़बड़ियों समेत कई ऐसी अनियमितताएं हैं जिनकी विस्तृत और गहरी जांच स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा होनी अत्यंत आवश्यक है। इस तरह के प्रशासकीय शिक्षकों की संपत्ति एवं धन की बहुत बारीकी से जांच करने की आवश्यकता है। क़ौम के आम लोगों के सामने सवाल यह है कि यदि उनका शिक्षित एवं संभ्रांत अभिजात एएमयू के वी.सी. पर इतना दबाव बनाने में नाकाम है कि वह इन हवारियों को हटाकर एएमयू प्रशासन में तब्दीली ला सके तो क्या ऐसे कमज़ोर और लाचार लोगों से तत्कालीन सत्ता के विरुद्ध नई दिल्ली में वक़्फ़ बिल 2024 वापस लेने के लिए ज़रूरी साहस जुटा पाने की उम्मीद की जा सकती है?
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि क़ौम के आम लोगों को क़ौम के जागरुक लोगों द्वारा सावधान किया जाए कि उनके शिक्षित एवं संभ्रांत अभिजातों का एक बड़ा जत्था उन्हें कमज़ोर, अकेला और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण उन्हें लाचार छोड़कर भगवा ताकतों से जा मिला है। फेलिक्स पाल (2020) ने पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के मुसलमान अभिजातों के एक वर्ग के मौकापरस्ती के साथ भगवाई संस्थानों में चले जाने का दस्तावेज़ीकरण किया है। समय आ गया है कि एएमयू का शिक्षक संगठन तथा समुदाय मौके के अनुरूप काम करते हुए अपने सदस्यों को एक करे। उन्हें सक्रिय रूप से ऐसी रणनीति के निर्माण में भाग लेना होगा जो न सिर्फ वक़्फ़ संशोधन बिल के विरोध के लिए आगे आए बल्कि अभिजातों द्वारा समुदाय से बनाई गई बेवफाई भरी दूरी के विस्तृत परिणाम की ओर भी मुख़ातिब हो।
केवल सभी भागों की आवाज़ स्वीकार कर तथा एक सच्चे विमर्श की स्थापना करके ही हम बहुसंख्यकवादी सत्ता को प्रभावी ढंग से चुनौती दे पाएंगे। संकटग्रस्त क़ौम का जीवन एवं आत्म- सम्मान तथा देश की स्वाभाविक बहुलता इसी बात पर निर्भर करती है।
एएमयू के खुद के वक़्फ़-विरोधी कारनामे
एएमयू पर स्वयं भी वाक़िफ़ों (यानी भूमि अनुदान तथा संपत्ति के दाता जो वक़्फ़ अथवा धर्मदाय अनुदान की व्यवस्था या स्थापना करते हैं) के नाम एवं पहचान मिटाने के प्रयासों में लिप्त होने के आरोप लगे हैं। मिसाल के तौर पर यह बात भली-भाँति पता है कि विख्यात भौतिक वैज्ञानिक वली मोहम्मद, जो एमएओ कॉलेज के अंतिम प्रधानाचार्य भी थे (जब 1920 में कॉलेज यूनिवर्सिटी में तब्दील हो गया) और जो लखनऊ यूनिवर्सिटी के भौतिक विभाग के संस्थापक भी थे उन्होंने एएमयू के लिए वक़्फ़ की व्यवस्था की थी। इनमें से एक तो बहुत महंगी जमीन है जिस पर छात्रों का आवासीय हाल बना हुआ है। हॉल का नामकरण नदीम तारीन के नाम पर हुआ है जिन्होंने छात्रों के आवासीय हाल के निर्माण के लिए धनराशि एकत्रित की। दुर्भाग्य वश के वाक़िफ़/ दान देने वालों के नाम गुमनामी की गर्त में है। हमें बताया गया है कि एएमयू हेतु निर्मित इस प्रकार की वक़्फ़ जमीनें और संपत्तियां हैं जिनमें वाक़िफ़ों के नाम या तो पहचाने नहीं गए हैं या अनजान हैं।
दूसरी तरह कहा जाए तो इस तरह के घटनाक्रमों एवं भूमि अतिक्रमण के भ्रष्टाचारों (जो राज्य- प्रशासन, वक़्फ़ बोर्ड तथा समाज के भीतर के प्रभावशाली लोगों द्वारा किए गए हैं) ने आम मुसलमान में अविश्वास पैदा कर दिया है। वक़्फ़ भूमि एवं संपत्तियों से लोगों में जुड़ाव का घोर अभाव है। यह आम लोगों में आवश्यक रोष उत्पन्न होने के अभाव में उन्हें वक़्फ़ बिल 2024 के विरुद्ध संगठित न हो पाने की ओर धकेल देगा। इससे अनुमानित होता है कि सत्ता पर उतना दबाव ही न पड़ेगा जितना आवश्यक है। मैंने अपने निबंधों में ऐसी ही दलीलें दी हैं कि क्यों और कैसे तात्कालिक सरकार हमारे श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का खलनायकीकरण यानी (विलेनाइज़ेशन) करने में सफल रही। भारतीय समाज के सामने आई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों में हमारे उच्च संस्थानों की प्रासंगिकता पर प्रश्न करते हुए मैंने यह विचार प्रस्तुत किया था कि सामाजिक तौर पर प्रासंगिक शोधों एवं शिक्षण के अभाव ने हमारे इन प्रतिष्ठित संस्थानों से समाज का मोह भंग कर दिया है।
क़ौम के शिक्षित वर्ग तथा आम लोगों के बीच इतना अधिक अलगाव एक संजीदा चुनौती पेश करता है। उमर खालिदी (2010) ने इसे रेखांकित करते हुए गंभीर मगर सही आरोप मढ़ा है- “1950 से 2010 तक भारतीय मुसलमानों पर हुए(शोध) प्रकाशन से ये साफ़ ज़ाहिर है कि भारतीय मुसलमानों पर बृहत्तर साहित्य में एएमयू के तीन संकायों (राजनीति विज्ञान विभाग, समाजशास्त्र विभाग एवं अर्थशास्त्र विभाग) ने मिल कर बहुत कम योगदान दिया है।” बेशक उन्हें भारतीय राज्य अथवा सरकार ने तो मुसलमान समुदाय पर ऐसे शोध करने से रोका नहीं था।
इसके अलावा जैसा कि डैनियल स्ट्रुप्पा कहते हैं – “विश्वविद्यालय हमारे समाज का एक लघु रूप है जो भिन्न मतों, भिन्न विचारधाराओं, भिन्न अनुभवों तथा भिन्न सामाजिक परिवेशों को दर्शाता है। यूँ तो विश्वविद्यालय समुदाय की यही बात मुझे अत्यंत प्रिय है किंतु इसके साथ ही यह सच्चाई भी अयां है कि हमारे समुदायों के भीतर पूर्वाग्रह भी हैं: हम अपने समाज की बुराइयों से बचे हुए या मुक्त नहीं हैं।”
इस समस्या को देखते हुए हमारे दौर में शैक्षणिक समुदाय(ऐकिडैमिया) के सामने सबसे बड़ी चुनौती है समाज के बाकी हिस्सों के साथ असरदार और कारगर तरीके से जुड़ना, ताकि एकजुट होने के प्रयास किए जा सकें जो अभी हो रहे लोकतांत्रिक पतन को रोकने के लिए अत्यंत आवश्यक है। एएमयू के बहुत से प्रभावशाली शिक्षक और उनके हवारी इस समय इस बात को समझने से क़ासिर नज़र आ रहे हैं क्योंकि या तो वह मुस्लिम सांप्रदायिकता के जाल में फंस चुके हैं या फिर मौकापरस्ती के साथ हिंदू दक्षिणपंथ के साथ मिल गए हैं या फिर यह दोनों ही कार्य एक साथ कर रहे हैं। आश्रय-वितरण (यानी कृपा का बंटवारा) तथा ग्राहकवाद (यानी एक दूसरे पर किसी न किसी तरह की निर्भरता) एएमयू के शासकीय ढाँचे में बहुत गहरे पैठा हुआ है। इस हद तक कि कुछ शिक्षक तो निर्लज्जता से 10 -12 या उससे भी अधिक वर्षों से चुनिंदा प्रशासनिक पदों पर विराजमान हैं! इनमें से कुछ जो एक साथ तीन शासकीय पदों का भार लिए हुए हैं अपने शिक्षण के साथ समझौता करते हैं और अपने शोध- कार्य को तो पूरी तरह तिलांजलि दे चुके हैं। इनका प्रभुत्व इतना अधिक और गहरा है कि एक के बाद एक आते वी.सी. भी यूनिवर्सिटी प्रशासन में उन्हें नए चेहरों के साथ तब्दील करने में नाकाम रहे हैं। ज़ाहिर है स्थानीय/अंदरूनी वी.सी. तो उन्हें बदल पाने का दम ही नहीं रखते।
लेखक इतिहास विभाग, एएमयू से सम्बद्ध हैं। अनुवाद भावुक का है, समीक्षा शान कश्यप ने की है।
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