वक्फ बिल का राजनीतिक असर क्या होगा ? बीजेपी के लिए तो वही जो वह 11 साल से कर रही है, देश में आग लगाने की कोशिश में और पेट्रोल डालना. लेकिन अभी तक तो देश का बड़ा हिस्सा इन कोशिशों पर पानी डाल रहा है और इसीलिए बीजेपी एक के बाद एक नया फितना फैलाती जा रही है. तो बीजेपी का फायदा, या नहीं फायदा एक पुरानी लाइन है. इसमें कुछ नया नहीं है. नया है वक्फ बिल का वह राजनीतिक असर जो कई क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य खतम कर सकता है.

शकील अख्तर
भाजपा और उसकी सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियों टीडीपी, जेडीयू, पासवान की पार्टी, जितिनराम मांझी की पार्टी, जयंत चौधरी की पार्टी में कुछ फर्क था. इसलिए उन्हें वह वोट भी मिलता था जो बीजेपी को अपनी विभाजन और नफरत की राजनीति के कारण नहीं मिलता था. मगर अब इन पार्टियों ने वह फर्क मिटा दिया. वक्फ बिल का समर्थन करके वह पूरी तरह बीजेपी जैसे हो गए हैं. यह वह बिल है जिसे पूरा विपक्ष मुस्लिम विरोधी बता रहा है. मुस्लिम का अपमान करने उन्हें परेशान करने वाला. मुस्लिम का सबसे बड़ा संगठन पर्सनल ला बोर्ड भी यही कह रहा है.
अभी तक मुसलमानों का बड़ा वोट नीतीश कुमार, चन्द्रबाबू नायडू, चिराग पासवान, जयंत चौधरी को मिलता था. मिलता तो पहले भाजपा को भी था. मगर जब उसने अपने दो नेताओं मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज खान मंत्री से भी और सांसदी से भी हटा दिया तो वह कम हो गया. कम इसलिए कह रहे हैं कि अभी भी व्यक्तिगत कई भाजपा के उम्मीदवारों को लोकसभा और विधानसभाओं में मुस्लिम वोट मिलता है.
यह एक बड़ा मजेदार तथ्य है कि भाजपा चाहे लाख कितनी ही कोशिश कर ले उसके नेता साफ शब्दों में कह दें कि हमें मुस्लिम वोट नहीं चाहिए ! मगर फिर भी यह भारत है मिली जुली संस्कृति वाला गंगा जमनी तहजीब का देश, यहां वैसा जहर नहीं फैल सकता जैसा भाजपा चाहती है. भाजपा के जो नेता उम्मीदवार निजी संबंध रखेंगे वह कुछ न कुछ वोट भी पाएंगे.
आज की भाजपा चाहती है वह धीरेन्द्र शास्त्री की तरह अलग हिन्दू गांव बसा दे मगर देश की 64 प्रतिशत जनता उसके खिलाफ है. और जो 36 प्रतिशत वोट वह लेकर गई अभी 2024 के चुनाव में उसमें कुछ मुसलमान का भी वोट है. भाजपा अगर न माने तो कम से कम यह तो मानेगी की मुख्तार नकवी और शाहनवाज का तो वोट है.
धीरेन्द्र शास्त्री कहते है कि गांव में एक भी गैर हिन्दू नहीं होगा. अभी यह बताना शेष है कि एक हजार आबादी का जो वे गांव कह रहे हैं उसमें हिन्दु आबादी के हिसाब से जितना प्रतिशत दलित है, ओबीसी है, आदिवासी है उसको तो उस अनुपात में जगह मिलेगी या उन्हें भी नहीं. पूरा मनुवाद लागू होगा. दक्षिण टोला ! दक्षिण टोला मतलब गांव के बाहर दक्षिण दिशा में जहां दलितों को बसाया जाता है. दक्षिण इसलिए की हवा का आखिरी छोर. हवा भी उन्हें छूकर इधर न आए.
मजेदार होगा यह. संविधान और कानून के पहलू तो छोड़ दीजिए लेकिन हिन्दुओं में भी किन हिन्दुओं को जगह मिलेगी ? यह देखना बहुत दिलचस्प होगा. नीतीश के अति पिछड़ा, अति दलित को घुसने भी दिया जाएगा ? चिराग पासवान के पासवानों को ? और जितनराम मांझी जो कहते हैं हम चुहा मारकर खाते हैं उनके समाज को ?
खैर तो यह धीरेन्द्र शास्त्री जो भाजापा के नए बाबा हैं ने हिन्दू विदइन हिन्दू कर दिया है. नफरत और विभाजन की विचारधारा का यही परिणाम होता है कि वह बांटता चला जाता है. और अंतिम स्थिति पितृसत्तात्मकता तक आती है, जहां कमाने वाला पिता ही परिवार का सर्वोसर्वा होता है. एकमात्र निर्णय लेना वाला और बाकी सब परिवार में उसके हिसाब से चलते हैं. अंतिम विभाजन और बिल्कुल स्पष्ट.
खैर इस पर सरकार और बीजेपी सोचेगी ? अभी बात वक्फ बिल और नीतीश, नायडू, पासवान, मांझी और जयंत चौधरी की राजनीति खत्म होने पर.
नायडू और जयंत की परीक्षा में अभी देर है. नीतीश पासवान मांझी का इम्ताहन सिर पर है. बिहार का चुनाव होने वाला है. 17 – 18 प्रतिशत मुसलिम वोट है. उसका बड़ा हिस्सा इन तीनों को मिलता है. अभी लोकसभा में नीतीश के 12 पासवान के 5 और मांझी का 1 सांसद है. विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने वाली लालू की आरजेडी को यहां मुसलमान वोटों की मदद से ही नीतीश ने केवल चार सीटों पर सीमित कर दिया था.
बिहार चुनाव से पहले नीतीश पासवान मांझी का एक्सपोज होना (असली रंग में आना) विपक्ष के लिए बड़ा राजनीतिक फायदा हो सकता है. विधानसभा चुनाव जो इस साल के अंत में होना है अब स्पष्ट राजनीतिक विभाजन के साथ होगा. एक तरफ बीजेपी और दूसरी तरफ बीजेपी के नफरत और विभाजन के देश तोड़क अजेंडे के खिलाफ लड़ने वाली इंडिया गठबंधन की पार्टियां. बीच की पार्टियां खतम.
जिसे नफरत के पक्ष में ही वोट देना होगा वह नीतीश, पासवान, मांझी को क्यों देगा ? अगर असली नफरत वाली पार्टी वहां नहीं है तो वह या तो वोट नहीं देगा या नोटा को देगा या मोहब्बत की तरफ चला जाएगा. पिछले विधानसभा चुनाव 2020 में जेडीयू को 16.83 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार उन्हीं पर खतरा है. मुसलमान बुरी तरह बंटा था. आरजेडी नंबर एक पार्टी बनी थी सीटों में भी 75 लेकर और वोट प्रतिशत में भी अव्वल थी 23. 11 के साथ. मगर सरकार नहीं बना सकी थी.
इस बार शायद ऐसा न हो. मुसलमान वोट अब नहीं बंटेगा और मुसलमान के साथ नीतीश का जो अति पिछड़ा, अति दलित वोट हो वह भी अब नीतीश की राजनीति खतम होता देखकर उनके साथ नहीं जाएगा. स्पष्ट विभाजन होगा जिसे बीजेपी पसंद नहीं है उसे अब बीजेपी नीतीश पासवान मांझी की तरफ नहीं भेज सकती, वह सीधा आरजेडी कांग्रेस लेफ्ट के गठबंधन की तरफ जाएगा.
यह सीधी लड़ाई नीतीश पासवान मांझी को तो खतम करेगी ही बीजेपी के बिहार में अपने पहले मुख्यमंत्री बनने के सपने को भी खतम कर देगी. और बिहार हार कर बीजेपी बंगाल जहां अगले साल चुनाव होना है वहां जीतने के बारे में सोच भी नहीं सकती.
बीजेपी के लिए आदर्श स्थिति यह थी कि वह बिहार जीत कर बंगाल जाते. मगर पता नहीं किसने बीजेपी को यह वक्फ बिल लाने और उस पर नीतीश पासवान मांझी को बेनकाब करने का सुझाव दिया. मगर जो भी हो उसने इन अवसरवादी पार्टियों की राजनीति तो खतम की ही बीजेपी का भी इस बार बिहार जीतने का सपना चकनाचूर कर दिया.
नफरत की विभाजन की एक सीमा होती है. लगता है वह आ गई. ऐसे बिल पर जिसके नाम में ही मुस्लिम वक्फ हो भाजपा के लिए पास करवाना मुश्किल पड़ जाए तो आप समझ सकते हैं कि अब राजनीति किस तरह बदल रही है.
भाजपा ने मुस्लिम को इतना संदेह के घेरे में लाने का प्रयास किया, हर चीज पर सवाल उठाए मगर इसके बावजूद अगर लोकसभा में 288 के मुकाबले 232 सांसद और राज्यसभा में 128 के मुकाबले 95 सासंद इस बिल के विरोध में खड़े होते हैं तो आप समझ सकते हैं कि अगर किसी आर्थिक या आम लोगों की जिन्दगी से जुड़े दूसरे मामले पर वोटिंग होती है तो बीजेपी और विपक्ष का यह अंतर कितना मिट सकता है.
मोदी 11 साल से इसमें लगे थे कि लोग मुस्लिम के नाम से ही परहेज करने लगें मगर यह देश के बहुसंख्यकों ने ही बताया कि वह इस तरह की विकृत सोच के कितने खिलाफ हैं. बिल के विरोध में आने वाले ज्यादातर वोट हिन्दू सांसदों के ही हैं.
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