अग्नि आलोक
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आधारभूत चिंतन : पुरुष समंदर है, स्त्री समर्पण

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 दिव्यांशी मिश्रा

       _पुरुष का प्रेम समुंदर सा होता है..गहरा, अथाह..पर वेगपूर्ण लहर के समान उतावला। हर बार तट तक आता है, स्त्री को खींचने, समुंदर अब शांत है, उछाल कम है, स्त्री उसके पास है।_

      स्त्री मचल उठती है इतना प्रेम देख प्रतिदान के लिए, वो उड़कर बादल बन जाती है, अपना प्रेम दिखाने को तत्पर हो वो बरसने लगती है, पहले हल्की हल्की, समुंदर को अच्छा लगता है वो भी बहने लगता है, कभी कभी वेग से उछलता है प्रेम पाकर, फिर शांत हो जाता है। 

       _स्त्री बरसती रहती है लगातार झूमकर दो दिन, तीन दिन, बहुत दिन तक। मगर अब पुरुष से इतना प्रेम समेटना मुश्किल होने लगता है..अंदर अथाह प्रेम होने पर भी समुंदर को ऊपर से शांत रहना है क्यूँकि उसे सब देखना है, आते जाते जहाज, उगता डूबता सूरज, तट पर लोग(पुरुष की ज़िम्मेदारियाँ)।_

        मगर स्त्री प्रेम के उन्माद में बरस रही है, अंदर तक घुलने को व्याकुल.. लेकिन जब अंदर उमड़ते घुमड़ते ख़्यालों के कारण सुनामी आने के डर से, समुंदर से संभलता नहीं, तो वो रुकने कहता, किसी और देश जाने कहता।

 प्रेम में समर्पित स्त्री को रोकना असंभव है, जब देखती है कि समुंदर अब नहीं चाहता तो वो दर्द के आवेग में बरसती है पास बुलाने को, स्त्री के आँसू ख़तरनाक होते हैं, बाढ़ आने लगती, पुल टूटने लगते, पानी घरों में जाने लगता, सब तहस नहस होने लगता।

      _फिर धीरे धीरे बादल ख़त्म होने लगते हैं, आँसू सूख जाते हैं, सूखा, अकाल आ जाता है, स्त्री पत्थर हो जाती है।_

        पर स्त्री का स्वभाव समर्पण है, वो फिर किसी समुंदर किनारे खड़ी कर दी जाती है, एक नई लहर आवेग में आती है, स्त्री बचती है पर फिर बह जाती है समर्पित होने के लिए अंदर तक.

     {चेतना विकास मिशन}

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