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संस्कृति का जन्म भूगोल से और इतिहास का संस्कृति से

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 पुष्पा गुप्ता

     _‘सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भूगोल से पैदा होती है।’ – उसने कहा था।_

     ‘ज्योग्राफी हमारी शारीरिक संरचना को बनाती है, यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन कल्चर को भी बनाती है यह समझ नहीं आता है।’ मेरा प्रत्युत्तर था.

         ‘इसमें क्या मुश्किल है? हमारा खान-पान, रहने औऱ पहनने का तरीका, तीज-त्योहार-उत्सव में फर्क वह जगह पैदा करती है, जहाँ हम रहते हैं।’, वह कहती है।

      ‘यार ऐसा नहीं है, हमारी सांस्कृतिक पहचान हमें दूसरों से अलग करती हैं।’ मेरा जबाब था।

‘ये तो बाद की सीढ़ी है। पहली सीढ़ी तो भूगोल है न?’, वह कहती है।

     ‘समझा नहीं। ठीक से समझाओ!’

   ‘देखो मुसलमान गर्मियों में भी इफ्तार खजूर से करते हैं, जबकि हमने जाना है कि खजूर की तासीर गर्म होती है और कुछ साल पहले तो हमारे यहाँ सर्दियों को छोड़कर खजूर मिलता भी नहीं था।’

‘तो?’

     ‘तो ये कि सांस्कृतिक इस्लाम की जड़ें अऱब में है। चूँकि वहाँ खजूर उपलब्ध फल है, इसलिए दुनिया भर में जहाँ भी वे हैं और उन्हें खजूर उपलब्ध हैं वे इसे अपनी परंपरा की तरह इससे इफ्तार करेंगे।’, वह समझाती है।

‘महान आत्मा, वो लोग रूढ़ है, यहाँ का मुसलमान यहीं पैदा हुआ और बड़ा हुआ है। उसमें से बहुत से शायद कभी अरब गए ही न हो, या जा ही न पाएं फिर भी अरब में ही वे अपनी जड़ों की तलाश करते हैं। ये बड़ा अजीब है?’, मेरे कहने में कड़वाहट उतर आती है।

       ‘ये पूर्वाग्रह है। मेरी नानी राजस्थान से हैं, हम जिस जगह रहते हैं, वहाँ हर चीज उपलब्ध है। फिर भी खास त्योहार पर वे कैर-सांगरी की माँग करती है। यहाँ कितनी भी महँगी हो, उनका त्योहार कैर सांगरी के बिना पूरा नहीं होता है। जबकि यहाँ उसकी जरूरत नहीं है। यह राजस्थान के रेगिस्तान में पैदा होने वाली सब्जी है, जिसे खाना वहाँ के लोगों की मजबूरी है।

      अब यहाँ जबकि हर तरह की सब्जी मिलती हैं, वे कैर-सांगरी की माँग करती है। ऐसा सिर्फ मुसलमानों के साथ ही नहीं होता है, हर उस समुदाय के साथ होता है जो प्रवासी होकर कहीं और जाकर बसते हैं।’, वह समझाती है।

   ‘लेकिन यह तो जिद है न?’

   ‘यह जिद नहीं है, यह सामूहिक पहचान है, जिससे हम किसी समूह के सदस्य कहलाते हैं। इसे तुम अपनी जड़ें भी कह सकते हो।’

      ‘क्या यह हमेशा ऐसा ही होता है? खान-पान की आदतें तो समझ आई, लेकिन बाकी चीजों को कैसे प्रभावित करता है?’

      ‘हमारा पहनावा भी उसी का हिस्सा है। साउथ में गर्मी पड़ती है, इसलिए वहाँ के लोग वेष्टि पहनते हैं। राजस्थान में गर्मी पड़ती है तो वहाँ धोती-कुर्ता और साफा… मोटा साफा सिर को वहाँ की गर्मी से बचाता है।’, वह कहती है।

    ‘ये तो आदमियों का पहनावा है, औरतों का तो एक ही जैसा है दोनों जगह?’

‘उसकी वजह यह है कि संस्कृति के निर्माण के दौर में घर ही महिलाओं का कार्यक्षेत्र था, उन्हें बाहर धूप में नहीं निकलना होता था।’, वह कहती है।

‘और बुर्का?’

‘वह कहती है गर्मी उसका बड़ा कारण है। अऱब में शेख भी थोब पहनते हैं, वह भी उसी तरह का लंबा और ढीला-सा लिबास होता है।’ 

     ‘फिर यूरोप तो ठंडा है वहाँ महिलाएँ शॉर्ट स्कर्ट्स क्यों पहनती हैं?’,  

    ‘ये आधुनिक यूरोप का बदलाव है। मध्यकालीन यूरोप में महिलाओं का पहनावा मुख्यतः लंबी बाँहों का लंबा गाउन जैसा ही हुआ करते थे। पुरुष तो कोट-पेंट पहनते ही हैं, क्योंकि वहाँ सर्दी ज्यादा पड़ती है। इतना ही नहीं हमारे पर्व, उत्सव, अनुष्ठान, धर्म, साहित्य, संगीत सब कुछ हमारे भूगोल से ही प्रभावित होते हैं।’

      मोहतरमा, ‘पर्व, उत्सव, धर्म तो हमारी पौराणिकता से आते हैं यार इसमें भूगोल कहाँ से आ गया?’

       ‘थोड़ा गौर करो। हमारे सारे पर्व-त्योहारों के पीछे पौराणिक कथा जरूर होती है, लेकिन उसके साथ एक बड़ा कारण फसल भी होती है, चाहे तो पोंगल हो, होली हो या फिर दिवाली। पूर्वी भारत के त्योहार अलग होते हैं, क्योंकि वहाँ की जमीन और जलवायु शेष भारत से एकदम ही अलग होती है। दूसरे हर भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के अपने स्थानीय त्योहार होते हैं, वे भी कहीं-न-कहीं फसल औऱ मौसम से जुड़े होते हैं। कहीं पढ़ा था कि कुछ अध्ययन यह कहते हैं कि क्रिसमस का संबंध ईसा मसीह के जन्म से नहीं है। यह बाद में जोड़ा गया है, यह किसानों का कोई त्योहार है।’, वह स्पष्ट करती है। ‘पता है कभी-कभी तो शक होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमें सिर्फ भूगोल ही तो नहीं चलाता है?’

‘ऐसा कैसे कह सकती हो यार… मतलब तुम यह कहना चाहती हो कि इंसान के पास उसकी कोई प्राकृतिक विशिष्टता नहीं होती है। तो फिर कोई फिजिकल, मेंटल, इंटेलेक्चुअल?’

वह कहती है ‘मुझे शक है!’

‘कैसे?

  “यूरोप की भौतिक प्रगति औऱ हमारा धर्म-दर्शन और अरबी आक्रामकता…!”  

    तो क्या यह सब भी भूगोल से ही निर्मित होता है?’

    ‘पक्का तो नहीं कह सकती हूँ लेकिन बहुत सोचने पर ऐसा लगता है कि हाँ, यह सब भी हमारे भूगोल से ही संचालित होता है।’

‘तुम्हारी बात पर मुझे शक है।’, 

‘वह कहती है, मैं भी श्योर नहीं हूँ, लेकिन मैं ऐसा सोचती हूँ।’

‘क्या?’

   ‘यही कि हमारी भौगोलिक स्थितियाँ इस दुनिया में हमारी शारीरिक संरचना, सांस्कृतिक विकास, आर्थिक व्यवस्था और दुनिया में हमारी भूमिका तय करती है।’

‘मुझे समझ नहीं आया।’

       ‘मेरी एक हाइपोथीसिस है कि दुनिया के उन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा कबीलाई संघर्ष हुए हैं, जहाँ खेती करने लायक जमीन, पानी के स्रोत औऱ खेती की जलवायु अपेक्षाकृत कम हैं। जैसे स्कैंडेनेविया और अरब देश। इसलिए वे हरदम इसकी तलाश में रहे। हमारे जैसे देश में जहाँ खेती लायक जमीन, नदियाँ और खेती लायक जलवायु है, वहाँ अपेक्षाकृत कम संघर्ष हुए हैं। यही वजह है कि हमारा दर्शन मृत्यु और ब्रह्म जैसे गूढ़ विषय पर विचार करता है।’, वह कहती है।

     ‘ऐसा नहीं है यार, ये दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा भी क्या भूगोल की देन है जो चंगेज खान को थी या फिर सिकंदर को?’

       _‘यह बहुत उलझा हुआ है, भूगोल संस्कृतियों का निर्माण करता है औऱ संस्कृतियाँ फिर इतिहास बनाती है। संघर्षरत संस्कृतियों के नायक योद्धा हुआ करते हैं, क्योंकि वे युद्धों में अपने साहस, युद्ध कौशल और रणनीति से जीत हासिल करते हैं। हमारे नायक कृष्ण, बुद्ध, नानक हो सकते हैं, राम भी… याद रहे कि राम हमारे नायक इसलिए नहीं है कि वे योद्धा रहे हैं, इसलिए हैं कि वे आदर्श पुत्र, आदर्श राजा, आदर्श भाई और बहुत हद तक आदर्श पति भी रहे हैं, गाँधी भी हमारे नायक हैं, क्योंकि उन्होंने भी अहिंसा और समन्वय की बात कही थी। इस लिहाज से हमारी संस्कृति के नायक उन संस्कृतियों के नायक से अलग होंगे जिन संस्कृतियों का इतिहास संघर्षों से भरा हुआ है।’_

   वह अपनी बात पूरी करती है।

    {चेतना विकास मिशन)

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