डरबन सिंह
ऐतिहासिक तौर पर देखा जा सकता है कि पूंजी के लिए प्रजातंत्र ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाली वस्तु रहा है. जब तक उपयोगी हो उसको बरतो, जरूरत पड़े तो ठोंक-बजा कर दुरुस्त करो और तब भी काम न बने तो सैन्य व शस्त्र बल से उसे ठिकाने लगा दो. प्रजातंत्र को ठिकाने लगाने की ज्यादातर मिसालें संकटों (जो उसकी संरचना में निहित है) से निपटने के जरिए के तौर पर ही सामने आई है.
पिछले कुछ वर्षों से खासकर 1998 के बाद से भारतीय संसदीय प्रजातंत्र (राजनैतिक तंत्र) को गठबंधन सरकारों के द्वारा दोध्रुवीय शक्ल दिये जाने की मुहिम लगातार तेज होती जा रही है. 2014 के बाद से तो लगता है कि लोकसभा चुनावों के मद्देनजर समूचे पूंजीतंत्र ने मानो अपने सब संस्थान, सीबीआई, ई डी, फिक्की और मीडिया गिरोह इस मुहिम में झोंक दिये हैं. आखिर समस्त पूंजीतंत्र के राजनैतिक परिदृश्य को दोध्रुवीय शक्ल देने के पीछे मंशा क्या है ?
अब सांसदों द्वारा नहीं बल्कि जनता द्वारा प्रधानमंत्री मंत्री तय किया जा रहा है. सांसद होने का मतलब दल या प्रधानमंत्री मंत्री का बंधुआ मजदूर होना भर रह गया है. संसद में अब समाज सेवकों, विद्वानों, विचारकों, चिंतकों जरूरत नहीं रह गयी है, क्यूंकि पूंजी का इनसे जन्म से बैर रहा है, उनकी जगह अब गुंडे, अपराधी, मवाली, नचनियां गवनियां, भांड़ – भंड़ुओं ने ले लिया है, जिनकी मेरिट सिर्फ इतना भर है कि वे येन केन प्रकारेण चुनाव जीतन वाले हों. चुनाव जीतना ही उनकी मेरिट है. संसदीय गरिमा, नैतिकता, चरित्र, शिक्षा, ज्ञान से इनका कोई मतलब नहीं.
संसद इनकी उपस्थिति में मछली बाजार बनकर रह गयी है, जिसकी सडांध घर बैठे साफ-साफ देखी जा सकती है. जनता भी इसी सड़ांध की आदि हो चुकी है और गांधी, नेहरू, अंबेडकर, पटेल की जगह पूंजीपतियों के नौकर मोदी, शाह की सरपरस्ती में प्रजातंत्र को सींच रही है. महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी को भूलकर ‘मंदिर वहीं बनायेंगे’ का नारा बुलंद कर रही है.
सतही तौर पर लग सकता है कि जिस ‘अमेरिकी स्वप्न’ पर सवार होकर नव-उदारवाद की बयार का आनंद अपना पूंजीतंत्र उठा रहा है, दोध्रुवीय संसदीय प्रजातंत्र भी उसी का एक हिस्सा है. इसलिए उसके इस उपक्रम को उसकी स्वाभाविक परिणति मात्र मान लेना चाहिए. लेकिन इस कपट-कुटिल पूंजीतंत्र का ऐसा भोलापन आसानी से हजम नहीं होता.
पूंजी, पूंजीवाद और प्रजातंत्र के बीच ऐतिहासिक रूप से एक जैविक रिश्ता रहा है और प्रजातंत्र को अपनी जरूरतों के अनुरूप ढालने की महारत पूंजीवाद ने जाहिर रूप से हासिल कर रखी है. साथ ही संकट की विकट परिस्थितियों से निपटने के लिये पूंजीवाद द्वारा ‘प्रजातंत्र’ को कुर्बान कर तानाशाही और फासिस्ट निजामों का सहारा लेने की नजीरों से भी इतिहास पटा पड़ा है.
कुल मिलाकर इतिहास की इबारत साफ बताती है कि पूंजीवाद और जनतंत्र के लंबे रिश्ते में पूंजी को अपनी बरक्कत के लिए प्रजातंत्र की पीठ पर सवार होने का हुनर बखूबी हासिल रहा है. लेकिन कभी ‘पूंजी’ ने प्रजातंत्र को अपने ऊपर सवार होने दिया हो, उसकी मिसाल नहीं मिलती.
नेहरू के जमाने मे भी टाटा, बिड़ला जैसे पूंजीपतियों का देश के विकास में योगदान था लेकिन टाटा, बिड़ला की हैसियत नेहरू के पीठ पर हाथ रखने की नहीं थी. क्यूंकि नेहरू भले ही एक गरीब देश के प्रधानमंत्री रहे हो लेकिन वे विश्व स्तर के नेता थे. आज तो दो कौड़ी के नये पैदा पूंजीपति अंबानी, अडानी तो प्रधानमंत्री को चपरासी की तरह यूज कर रहे हैं.
आज का प्रधानमंत्री अडानी, अंबानी की बीबियों को ही भारत माता समझ रहे हैं. देश की संपत्ति, संस्थान जो बहुत ही मुश्किल से बनाये गये हैं, को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है. देश की जनता को अन्न खिलाने वाला लाखों की संख्या में किसान दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में अपने घरों से बाहर सड़कों पर रात में सोकर आंदोलन के लिये मजबूर किया जा रहा है. इससे बड़ा प्रजातंत्र का कोढ़ क्या हो सकता है ! कारपोरेट की गुलाम फासीवादी निजाम का बदसूरत चेहरा खुलकर सामने आ चुका है.
इस देश में नेहरू सरकार के बाद से शुरू होकर बीसवीं सदी के अंतिम दशक के दौर में ही यह खुलकर स्पष्ट हो चुका था कि संसदीय प्रजातंत्र पूंजी के फलने-फूलने का अभेद्य कवच है. अपने उद्भव और प्रारंभिक विकास के दौर में पूंजीतंत्र ने प्रजातंत्र के कवच का भरपूर इस्तेमाल किया, लेकिन जल्द ही ‘वैश्विक मंदी’ के शिकंजे में आये पूंजीतंत्र ने इस ‘कवच’ को उतार फेंकने और अपने पुनरोत्थान के लिये ‘फासिज्म’ का रास्ता चुनने से परहेज नहीं किया.
ऐतिहासिक तौर पर देखा जा सकता है कि ‘पूंजी’ के लिए ‘प्रजातंत्र’ इस्तेमाल करो और ‘फेंको’ वाली वस्तु रहा है. जब तक उपयोगी हो उसको बरतो, जरूरत पड़े तो ठोंक-बजा कर दुरुस्त करो और तब भी काम न बने तो सैन्य व शस्त्र बल से उसे ठिकाने लगा दो. प्रजातंत्र को ठिकाने लगाने की ज्यादातर मिसालें संकटों (जो उसकी संरचना में निहित है) से निपटने के जरिए के तौर पर ही सामने आई हैं.
दूसरे विश्व युद्ध और फासिस्ट ताकतों की पराजय के बाद ‘प्रजातंत्र’ की लहर पर लगाम लगाना आसान न था. पूंजीतंत्र को बदले हुए हालात में अपने विस्तार के लिए नए तरीकों की दरकार तो थी ही, साथ में पूंजीवाद के विकल्प के रूप में उभरते एक ‘समाजवादी ब्लॉक’ से प्रतिस्पर्धा की नई चुनौती का सामना भी करना था. संभवतः ‘कल्याणकारी प्रजातंत्र’ की अवधारणा का विकास इन्हीं परिस्थितियों की देन थी और पूंजी के फलने-फूलने के अभेद्य कवच ‘प्रजातंत्र’ की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा के लिये यह आवश्यक भी था.
लेकिन यह मंत्र भी पूंजीवाद की नैया को बहुत दूर तक खेने में कामयाब न था. ‘बाजार का संकट’ जो पूंजीवाद का एक निहित चारित्रिक गुण है, उसकी आवृत्ति लगातार घटती जा रही थी. जो संकट दस-पांच साल में आया करता था वह धीरे-धीरे 24X7 (चौबीसों घंटे, सातों दिन) का बनता जा रहा था. इसी अंदेशे में ‘पूंजीतंत्र’ के पूर्णकालिक विचारकों ने उस अवधरणा का विकास प्रारंभ किया, जिसे हम आज नव-उदारवाद या भूमंडलीकरण के नाम से जानते हैं.
इसके विकास के लिये लातिन अमेरिका को प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किया गया. पिछली शताब्दी के सातवें दशक में नव-उदारवादी तिकड़मों का प्रयोग करने के लिए ‘सत्ता परिवर्तन, रिजीम चेंज’ की रणनीति का प्रयोग किया गया. इसके बाद इसी रणनीति का प्रयोग तमाम और देशों में किया गया.
जिन लोगों ने पेप्सी और कोक दोनों का सेवन किया होगा, वे बता पायेंगे कि दोनों के स्वाद में दस फीसद से ज्यादा का फर्क न होगा. ठीक इसी तरह दो-ध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में भी दो मुख्य पार्टियों के बीच का फर्क भी शायद दस फीसद से ज्यादा का नहीं रहता और वह भी विचारधरा और कार्यक्रम के आधार पर आधारित न होकर कार्यपद्धति पर अधिक आधारित होता है. साथ ही किसी तीसरे प्रतिद्वंद्वी या नव-उदारवाद विरोधी दलों के लिए संसदीय प्रक्रिया में कोई जगह नहीं बचती और मतदाता अपने को असहाय पाता है.
नव-उदारवादी धरा के लातिन अमेरिकी परीक्षण के साथ-साथ जिन देशों में इन नीतियों को अमली जामा पहनाया गया, वे रीगन की अध्यक्षता में अमेरिका और थेचर के नेतृत्व में ब्रिटेन थे. यह दोनों देश ‘पूंजी’ के अभेद्य कवच- ‘जनतंत्र’ के आधिकारिक मुखौटे और दो-ध्रुवीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सुपर मॉडल भी हैं.
इस तरह बीसवीं सदी की महामंदी के दौर में फासीवाद का सहारा लेने वाले पूंजीतंत्र के सामने इस सदी के चिर-स्थायी संकट से निपटने के लिए खुलेआम फासीवादी तौर-तरीकों का इस्तेमाल राजनैतिक और पूंजी की दीर्घकालीन जरूरतों के हिसाब से फायदे का सौदा नहीं दिखाई दिया. इसलिए जनतांत्रिक और खासतौर पर संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्थाओं के पर कतरना और उन्हें दो-ध्रुवीय शक्ल देना ही नायाब रास्ता सुझाई दिया.
दो-ध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे ऐसी दो पूंजीपरस्त पार्टियों की हवा बना कर होता है, जिनकी वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक यात्रा अमूमन अलग होती है. वे एक दूसरे पर लगातार प्रचारात्मक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो चलाये रखते हैं लेकिन ‘नव-उदारवादी’ प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की मूल व्यवस्थाओं पर साथ खड़े होने से गुरेज नहीं करते.
उनके बीच का फर्क पेप्सी और कोका कोला के बीच के फर्क जैसा होता है और उनके बीच की प्रतिस्पर्धा और झगड़े भी उन दोनों कंपनियों की प्रतिस्पर्धा की तर्ज पर ही होते हैं और नतीजे भी एक जैसे ही निकलते हैं. यानी कि किसी भी तीसरे प्रतिद्वंद्वि का सफाया और भोजन-पानी व्यापार पर दो अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व, जिसके शायद तमाम निवेशकों का पैसा दोनों ही कंपनियों में लगा होगा.
अमेरिका की दो-ध्रुवीय राजनैतिक व्यवस्था में अभी हाल में हुए चुनावों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है. युद्ध-विरोधी जन-आंदोलन रहे हों या अन्य तरह का जन-उभार, चुनावों पर उनका कोई असर नहीं पड़ पाता. सत्ता हमेशा रिपब्लिकन से डेमोक्रेट और डेमोक्रेट से रिपब्लिकन के बीच झूलती रहती है और पूंजीतंत्र की सेवा करती है.
हमारे संसदीय प्रजातंत्र में भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है. पिछले तीन दशकों में धीरे-धीरे कुछ ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, जिसमें दो पूंजीपरस्त पार्टियां- कांग्रेस और बीजेपी दो ध्रुवों के रूप में स्थापित की गईं. बीजेपी अपने पूर्वजन्म, जनसंघ के जमाने से ‘मुक्त व्यापार’ की झंडाबरदार रही और अमेरिका तथा इजरायल को भारत का स्वाभाविक मित्र मानने वाली पार्टी रही है. लेकिन पांच से अधिक साल तक सत्ता में रहने के बावजूद अपने इस वैचारिक एजेंडे को वह ज्यादा मूर्त रूप नहीं दे सकी.
आज कोई भी स्पष्ट देख सकता है कि ‘मुक्त व्यापार’ की नीतियों और उनका विस्तार करने का सेहरा कांग्रेस के ही सिर बंधा हुआ है. भारत की विदेशनीति को अमेरिकापरस्त और इजरायलपक्षीय बना देने की कवायद भी कांग्रेस के नेतृत्व ने ही बखूबी अंजाम दी है. वैचारिक विरासत और ऐतिहासिक भूमिकाओं की भिन्नता के बावजूद वर्तमान गवाह है कि ‘संघ परिवार’ के इन दोनों सपनों को कांग्रेस ने अपनी धरोहर को दरकिनार कर अंजाम दिया है.
बीजेपी के भारत को एक ‘हार्डस्टेट’, पुलिसिया राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के सपने को भी साकार करने में पिछले दस वर्षों का कांग्रेसी शासन बड़ी शिद्दत से लगा हुआ दिखाई देता है. दस फीसद का जो फर्क बताया जाता है, इन दोनों के बीच वह ‘सांप्रदायिकता’ के मामले को लेकर है. सन 2004 तक यह फर्क कुछ हद तक दिखता था लेकिन उसके बाद के पिछले दस वर्षों के आचरण ने इसे भी धूमिल कर दिया है.
कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकारों का रिकार्ड ‘सांप्रदायिकता’ के मोर्चे पर अत्यंत निराशाजनक रहा है. पूर्व के जघन्य सांप्रदायिक अपराधें/नरसंहारों पर कार्रवाई करने की मंशा या संकेत भी कांग्रेस सरकार ने नहीं दिये. इन वर्षों में हुए सांप्रदायिक हमलों और घटनाओं में कांग्रेस शासन ने कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया. भविष्य में सांप्रदायिकता को सीमित रखने के लिये कानून बनाने की चर्चा तो चली लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व ने इस मुद्दे पर वह तत्परता नहीं दर्शायी जो उसने ‘भारत-अमेरिका परमाणु समझौते’ या ‘खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश’ के मुद्दे पर दिखाई. और परिणाम इसी सांप्रायिकता की उभार के रथ पर चढ़कर बीजेपी दिल्ली पर काबिज है.
फिर भी समूचा पूंजीतंत्र, उसके संस्थान और उसका मीडिया कांग्रेस और बीजेपी को संसदीय राजनीति के दो-ध्रुवीय के रूप में स्थापित करने और किसी तीसरे की संभावनाओं को जड़ से खारिज करने में ओवरटाइम लगा हुआ है. पिछले दो दशकों में एनडीए और यूपीए, क्रमशः बीजेपी और कांग्रेस रूपी खंबों पर तने दो तंबुओं की तरह स्थापित हुए हैं.
संसदीय व्यवस्थाएं इस तरह से अनुकूलित हैं कि सत्ता के खेल में बने रहने के लिए अन्य पार्टियों के लिए इन दोनों तंबुओं में से एक में घुसना अनिवार्य हो गया है. इसी के चलते पिछले दो दशकों से इन दोनों में से कोई भी पार्टी खुद की सरकार बनाने के लिए चुनाव में नहीं उतारती बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने के लिए चुनाव लड़ती है और सरकार बनाने का न्योता प्राप्त करना उसका उद्देश्य होता है. एक बार वह मिल जाने के बाद अन्य दलों का उसके तंबू में शामिल होना स्वतः ही शुरू हो जाता है. इस तरह संसदीय राजनीति में दो-ध्रुवीय प्रवृत्ति जड़ पकड़ती जा रही है.
केंद्र में इसके उदाहरण देखने हों तो गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई सरकारों का रिकॉर्ड खंगालना चाहिए. 1950 से 1990 के बीच दो संक्षिप्त कार्यकालों को छोड़ कर लगातार इस देश में कांग्रेसी सरकारें बहुमत में रही हैं. कांग्रेस पहली बार सत्ता से 1977-1980 के बीच बाहर रही जब जनता पार्टी ने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर उभरे राष्ट्रव्यापी असंतोष का लाभ उठाते हुए सरकार बना ली थी. हालांकि यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और तीन साल में ही गिरा दी गई.
इसके बाद 1989 में वाम दलों को साथ लेकर जनता दल के नेतृत्व में बने नेशनल फ्रंट ने 1989 में अपनी सरकार बनाई जो गैर-कांग्रेसी गैर-भाजपाई तो थी, लेकिन भाजपा और वामपंथ के बैशाखी पर टिकी रही, यह भी सिर्फ दो साल ही टिक सकी. 1996 से 1998 के बीच का दौर गठबंधन राजनीति की उठापटक का रहा, जब गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी, लेकिन यह भी अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. इससे यह साबित होता है कि दो बड़ी पार्टियां किसी भी कीमत पर तीसरी को या अपने विरोधियों को सत्ता में टिके नहीं रहने देती हैं.
भारत में राज्यों के भीतर दो-ध्रुवीय राजनीति के कई उदाहरण अब स्थापित स्थिति में आ चुके हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी, तमिलनाडु में डीएमके और अन्नाद्रमुक और अब बिहार में आरजेडी, जेडीयू गठबंधन और बीजेपी गठबंधन जैसे कई उदाहरण धीरे-धीरे राज्यों में भी दो-ध्रुवीय राजनीति को स्थापित कर रहे हैं. वर्तमान में INDIA और NDA का गठवंधन मूर्तरूप लेता दिखाई दे रहा है.
आने वाले दिनों में संसदीय तथा विधानसभा चुनावों में इस पटकथा का ‘क्लाइमैक्स’ उभर कर सामने आने का पूर्वानुमान सहज ही लगाया जा सकता है. समूचा पूंजीतंत्र,उसके संस्थान और उसका मीडिया अगले एक साल तक पेप्सी-कोक छदम युद्ध की तर्ज पर इंडिया-एनडीए ध्रुवीकरण की प्राण-प्रतिष्ठा करता नजर आयेगा और संसदीय राजनीति की शक्ल मुकम्मल करने की भरसक कोशिश करेगा.
राहुल-मोदी की ‘कॉमिक’ व रोमांचक पटकथा आगामी संसदीय चलचित्र की यूएसपी साबित होगी और उसका हैप्पी एंडिंग पूंजीतंत्र से नाभिनालबद्धता (एक ऐसी संसद में होगा जिसमें नव-उदारवाद का अश्वमेध फॉर्मूला वन की तर्ज पर दौड़ेगा). मुनाफों और घोटालों की बगिया महकेगी. जल, जंगल, जमीन और समुदायों की अस्मिता खुल कर लुटेगी. संसद के नक्कारखाने में फिर तूती भी न बजेगी.