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अधूरेपनजनित हमारी व्याकुलता का कारण 

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 डॉ. विकास मानव

      _हम अपने जीवन में वह सब कुछ पा लेते हैं जिसकी हमें प्रबल इच्छा होती है। कुछ पल के लिए हम संतुष्ट भी हो जाते हैं। लेकिन दूसरे पल कहीं-न-कहीं हमारे अन्तर्मन में खालीपन का एहसास-सा होने लगता है यानी हमारा मन कुछ और चाहता है। हमारी आत्मा कुछ और चाहती है लेकिन हम कभी समझ नहीं पाते।_

        यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो संसार में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो सुख-समृद्धि और प्रसिद्धि की चरम ऊंचाइयों को प्राप्त कर चुके हैं, लेकिन आप उनसे पूछें कि वे पूर्ण सन्तुष्ट हैं या पूर्ण तृप्त हैं ? अब उनकी कोई चाह नहीं बची ? उनकी भी आंखों में सूनापन दिखेगा, उन्हें भी किसी की तलाश है। उनकी मूक आंखें किसी को खोजती हुई मिलेंगी। हम क्यों अधूरे हैं ?

       सब कुछ होते हुए भी कुछ खाली-खाली-सा क्यों लगता है ? इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य क्यों नहीं खोज पाया ? हर जगह अधूरापन-सा क्यों दिखता है ?

      अगर विज्ञान की दृष्टि से शरीर को देखा जाए तो हमारा शरीर बाहर से पूर्ण दिखता है लेकिन अन्दर से पूर्ण नहीं है। हमारे शरीर का संचालन केवल बांया भाग करता है। दांया भाग उसका सहयोग मात्र करता है। उसी प्रकार हमारा मन है। हमारा मन भी पूर्ण नहीं है। उसके भी दो भाग हैं–मन और अन्तर्मन। इसी प्रकार हमारी आत्मा भी पूर्ण नहीं है। आत्मा भी खण्डरूप में है। तो आत्मा का वह दूसरा खण्ड कहाँ है जिसकी खोज आत्मा अनन्त काल से करती आ रही है ?

      हमारा सूनापन, खालीपन न केवल शरीर से है, न केवल मन से है, वह तो आत्मा से भी है। वह तो–आत्म-वियोग है

      हम पूर्ण नहीं हैं। साधना, उपासना, भक्तिभाव ही हमें पूर्णता के पथ पर अग्रसर कर सकता है। देखा जाए तो समाज और अध्यात्म एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है। क्योंकि हम पूर्ण सामाजिक हो जाएं या पूर्ण आध्यात्मिक हो जाएं–इससे कोई लाभ नहीं।

      प्राचीन काल में ऋषि-मुनि समाज को जोड़कर भी रखते थे और अपने अध्यात्म मार्ग पर भी चलते थे। देखा जाए एक तरह से वे समाज की चेतना बने और उनके ही बतलाये मार्ग पर आज हम लोग चल रहे हैं, क्योंकि हमारे मूल में अध्यात्म है। आद्यात्म ही हमें मनुष्य बनाता है, मानव बनाता है। अगर हम अपने जीवन से #अध्यात्म #तत्व हटा दें तो हम मात्र पशु बनकर रह जाएंगे।

      भौतिकता का सारा सुख हमें पूर्णता नहीं दे सकता। अगर कोई दे सकता है तो वह है ‘#अध्यात्म’। इसलिए अध्यात्म और समाज को हम साथ लेकर चलें जिस कारण दोनों में ही सफलता प्राप्त कर सकें।

      अशान्ति का मूल कारण क्या है ?

      द्वंद्व। हमारे जीवन में अशांति का मूल कारण #द्वंद्व है। जब तक हम द्वंद्व से मुक्त नहीं होंगे, तब तक हम सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकते। हमारी आत्मा तो निरन्तर ज्ञान की ओर बढ़ रही है, मगर हम हैं कि उसके मूक सन्देश को समझ नहीं पाते। अगर हम उसके मूक संदेश को समझने का प्रयास करें तो जीवन स्वतः ही सत्य के मार्ग पर चलने लगेगा। सत्य तो यह है कि आत्मा की सारी क्रियाएं हमारे जीवन को #सत्य के मार्ग पर ले चलने की हैं यानी हमें पशु से मानव बनाने की हैं।

      आत्मा सत्य है। परमात्मा परम् सत्य है। परमात्मा का ही अंश आत्मा है। जिस प्रकार परमात्मा की परमशक्ति है और परमशक्ति प्रकृति के रूप में सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा की जो शक्ति है, वह है #श्री। इसको इस प्रकार समझ सकते हैं–पुरुष तन में जो आत्मा होती है, उसकी वास्तविक शक्ति #स्त्री #तन में होती है। पूर्णता तभी होगी जब स्त्री-पुरुष, नर-नारी  तन, मन, प्राण और आत्मा से एक होंगे। क्योंकि हम तन, मन, प्राण और आत्मा से पूर्ण नहीं है, हम अधूरे हैं, इसलिए स्त्री- पुरुष का मिलन ही पूर्णता है।

       केवल दोनों के तन का मिलन पूर्णता नहीं है बल्कि तन, मन, प्राण और आत्मा का मिलन पूर्णता है। यही पूर्णता सत्य है। सत्य को उपलब्ध होने का एक मार्ग है परन्तु यह मार्ग हमें कैसे प्राप्त होगा ?–यह समझना होगा।

      इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए हम मूल पर विचार कर सकते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो सृष्टि के प्राक्कल में परब्रह्म परमेश्वर ने अपने मूल परमतत्व को दो खण्डों में विभाजित कर अहम और इदम की संज्ञा धारण की। अहम #शिव और इदम #शक्ति संज्ञक है। इसी प्रकार उसी परमतत्व की अखंड अनन्त विराट सत्ता से निर्गत होने वाली आत्मा पहले अहम के रूप में प्रस्फुटित हुई, उसी के साथ आत्मा ही इदम (प्रकृति) रूप में प्रकट हुई।

        अहम है– आत्मा और इदम है–आत्मा की प्रकृति। अहम है पुरुषतत्व प्रधान और इदम है–स्त्रीतत्व प्रधान। दोनों सृष्टि के उन्मेष काल से ही  काल के प्रवाह में पड़कर एक दूसरे से अलग हो गए। यही आत्म-वियोग है। यही शून्यता है। आज भी दोनों खण्ड (पुरुष तत्व प्रधान खण्ड और स्त्री तत्व प्रधान खण्ड ) एक दूसरे से अलग हैं और मिलने के लिए सदैव व्याकुल रहा करते हैं। यही व्याकुलता उन्हें बार-बार जन्म लेने के लिए विवश करती है। यही क्रम आदि काल से लेकर आज तक चलता चला आ रहा है।

   *दो आत्म-खण्डों का मिलन और सच्चे अर्थों में प्रेम का जन्म :*

          जगत में कौन किसका खण्ड है–कहा नहीं जा सकता। योग में एक शब्द है–आत्म-वैषम्य। आत्म-वैषम्य का तात्पर्य यह है कि सामाजिक और व्यावहारिक धरातल पर स्त्री-पुरुष का जो सम्बन्ध होता है, दोनों के आत्म-खण्ड एक नहीं हैं।

        दोनों के बीच वैचारिक, मानसिक मतभेद होगा। यही आत्म-वैषम्य है। क्योंकि वे एक दूसरे को जानते हैं, समझते नहीं। जानने और समझने में काफी अन्तर है। जानने में हमेशा दूरी बनी रहती है किन्तु समझने में कोई दूरी नहीं रहती। एक दूसरे को देखकर ही समझ जाते हैं उसके अन्दर के भाव को।

       ऐसा नहीं कि दोनों खण्ड मिलते नहीं, मिलते भी हैं। अगर मिलते नहीं तो काव्य का जन्म नहीं होता, गीत नहीं लिखे जाते, वसन्त का भान नहीं होता। आत्मा के दोनों खण्ड जब मिलते हैं तो सच्चे अर्थों में प्रेम का आविर्भाव होता है, तब जो सुगन्ध उठती है, वह दोनों खण्डों को विभोर कर देती है।

       उस मिलन में जो आनन्द होता है, उसी को #आत्मानन्द कहते हैं। यही आत्मा की पूर्णता का आनन्द है। यहां काल थम जाता है जिसे शिव की समाधि की संज्ञा दी गयी है।

      हमारा जन्म आनन्द के लिए हुआ है, पूर्णता के लिए हुआ है। मानव वही है जिसके अन्दर त्याग है, बलिदान है, प्रेम है, दया है, परोपकार की भावना है। वही सच्चे अर्थों में मानव है। यही आत्मा का नैसर्गिक रूप है। आत्मा के साथ जो संयुक्त है, वह मन है।

       मन है तो तन आवश्यक है लेकिन मानव तन में मन तरल रूप में है इसीलिए मन चंचल है। आत्मा का नैसर्गिक रूप ऊर्जामय है।

      आत्मा मानव तन में एक स्थान पर स्थिर नहीं है। कोशिकीय प्राण-ऊर्जा के रूप में शरीर की हर कोशिका में व्याप्त है। प्राण आत्मा के वाहक भी हैं जो पूरे शरीर का संचालन कर रहे हैं। प्राण दस हैं–पांच मुख्य प्राण हैं और पांच उप प्राण हैं।

       मुख्य प्राण हैं–प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। उप प्राण हैं–नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय। ये सभी प्राण हमारे शरीर के अंगों में व्याप्त होकर शरीर का संचालन करते हैं। धनजंय प्राण आत्मा का मुख्य वाहक है। मृत्यु के क्षण जब एक-एक कर सारे प्राण शरीर से निकल जाते हैं तो धनंजय प्राण आत्मा को लेकर बाहर निकल आता है सूक्ष्मशरीर के साथ।

       गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–प्राणों में श्रेष्ठ प्राण मैं धनंजय प्राण हूँ। वहीं दूसरे स्थान में श्रीकृष्ण कहते हैं–स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा हूँ। कीर्ति का तात्पर्य है–जिस स्त्री के निकट जाने से स्वतः श्रद्धाभाव उत्पन्न हो जाये। कीर्ति के कारण ही मातृत्व की गरिमा है।

    प्राचीनकाल में ऋषिगण नवदम्पत्तियों को यह कहकर आशीर्वाद देते थे कि जब तक तुम्हारा पति पुत्रवत न हो जाये, तब तक तुम कीर्ति को उपलब्ध नहीं होगी यानी पूर्ण स्त्री न होगी। प्राचीनकाल से ही हमारी संस्कृति में मांत्रित्व को अत्यन्त मूल्य और महत्व दिया जाता रहा है।

      सच बात तो यह है कि हमारे आध्यात्मिक रूप में स्त्री की जो धारणा शक्ति है, वह है #श्री। यही श्रीतत्व ही #स्त्रीतत्व। पुरुषों के गुणों के विकास के रूप में बलिष्ठता, शौर्य, वीरता आदि गुण हैं, लेकिन स्त्री के सारे गुण दया, क्षमा, प्रेम, वात्सलय, सौम्यता आदि हैं।

        अगर स्त्री अविकसित होगी तो पुरुष कभी विकसित नहीं हो पायेगा। क्योंकि स्त्री से उत्पन्न होने वाला पुरुष भी अविकसित ही होगा। पुरुष का सारा जीवन स्त्री के आस-पास ही घूमता है, चाहे वह माँ हो या पत्नी हो। पुरुष परिधि है तो स्त्री है उसकी केंद्र। पुरुष केंद्र की परिधि पर बराबर चक्कर काटता है।

      जिस समाज में स्त्री के गुण विकसित नहीं होते, वह समाज श्रीहीन ही रहता है। श्री स्त्री की चरम विकसित अवस्था है। जब ‘श्री’और ‘कीर्ति’ स्त्री के अन्दर विकसित होती है,  तो उसके अन्दर एक विशेष प्रकार का तेज उत्पन्न हो जाता है और फिर उसके अन्दर विलक्षण सौंदर्य का आविर्भाव हो जाता है जिसका सम्बन्ध शरीर के तल का नहीं होता, उसका सम्बन्ध आत्मा के तल का होता है।

 कीर्ति को उपलब्ध स्त्री आकर्षण-विकर्षण से मुक्त होती है। किसी भी पुरुष को देखकर उसके अन्दर न आकर्षण होगा और न होगा विकर्षण (घृणा) ही। ऐसी स्त्री को देखकर मनुष्य के अन्दर स्वतः श्रद्धा उत्पन्न हो जाए तो वह स्त्री कीर्ति को उपलब्ध है।

      *वाचस्पति की पत्नी भामती का मौन अमर  :*

      भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–मैं स्त्री में #वाक (वाणी) हूँ। यह कहना बड़ा सरल है, लेकिन करना कठिन है। स्त्रियों को हम-आप बात करते हुए देखते हैं। यह उनका गुण है, सहज स्वभाव है। लेकिन जिस ‘वाक’ के बारे में श्रीकृष्ण गीता में उल्लेख कर रहे हैं, वह साधारण बातचीत नहीं है। वह ‘वाक’ स्त्री में तब प्रकट होती है जब स्त्री अपने अस्तित्व में परम मौन को उपलब्ध हो जाती है।

       जब वह एकदम मौन हो जाती है तब उसकी वाणी वेद की ऋचा बन जाती है। लेकिन जो स्त्री मौन नहीं हो सकती, वह कभी वाक को उपलब्ध नहीं हो सकती। इसलिए स्त्री का परम गुण ‘मौन होना’ भी है।

      देखा जाए तो स्त्री के अन्दर सुन्दरता, मधुरता, कोमलता, सौम्यता आदि सब कुछ सुन्दर लगता है, लेकिन उसकी बातचीत उबाने वाली लगती है। वह स्त्री के गुण की विकृति है। सुन्दर-से-सुन्दर स्त्री बराबर बोलती जाती है तो वह घबड़ाने वाली हो जाती है।

       कोई भी बहुत देर तक उसके पास नहीं बैठ सकता। स्त्री का मौन किसी चमत्कार से कम नहीं है। मौन स्त्री की गरिमा है।

      भारत के महान विद्वानों में वाचस्पति का नाम कौन नहीं जानता ? उनका विवाह #भामती नामक स्त्री से होता है। वाचस्पति उस समय ब्रह्मसूत्र पर टीका लिख रहे थे। विवाह तो हो गया लेकिन उनका मन रमा था ब्रह्मसूत्र पर टीका करने में। जब वह टीका पूर्ण हुई, तब तक बारह वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो गया। उन्हें अपनी पत्नी का बिल्कुल ध्यान नहीं रहा। जब ब्रह्मसूत्र पर टीका करके उठने लगे तो मध्य रात्रि का समय था। वाचस्पति ने देखा–एक सुन्दर स्त्री के हाथों में सोने की चूड़ियां चमक रहीं थीं।

        वह धीरे-से पीछे से आकर दीपक की लौ मन्द करने लगी थी। वाचस्पति ने सिर घुमाकर उत्सुकता से देखा। उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा–इतने लम्बे समय तक तुम कहाँ थी ?। पत्नी ने कहा–मैं यहीं थी आपके आस-पास। मैं प्रतिदिन आती थी, जब दीपक की लौ कम होती तो उसे बड़ा देती। प्रतिदिन सायंकाल दीपक जला जाती। प्रातः चुपचाप हटा देती। आपके कार्य में बाधा न पड़े, इसलिए आपके सामने कभी नहीं आती। कभी यह भी प्रयास नहीं किया कि कहती कि मैं भी हूँ। मैं आपके आस-पास ही रहती। आप अपने काम में लीन रहते।

      इतना सुनकर वाचस्पति की आंखों में आंसू भर आ गये। उनका गला भर आया। बोले–अब तो बहुत देर हो गयी। बारह वर्ष का समय निकल गया। मैंने यह निर्णय लिया था कि भाष्य पूर्ण होने पर मैं सन्यास ले लूंगा। अब मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ ? मेरे जाने का समय आ गया। लेकिन जाते-जाते तुम्हें कुछ देकर जाता हूँ जिससे तुम संसार में अमर हो जाओगी।

       ब्रह्मसूत्र पर जो टीका की है, वह तुम्हारे नाम से जगत में प्रसिद्ध होगी। #भामती के नाम से पहले लोग तुम्हें जानेंगे, बाद में #भामती #नाम #की #टीका।

      बड़ा ही मार्मिक क्षण था उस समय। भामती का मौन अमर हो गया। वाचस्पति अन्त में बोले–मेरे जाने के बाद तुम दुःखी होगी। जीवन में बराबर क्लेश रहेगा। 

      भामती उनके पास आकर बस इतना ही बोली–मैं दुःखी नहीं हूँ। आज मैं अपने को परम सौभाग्यवती मान रही हूँ। इतना कम है क्या कि मेरे लिए आपकी आंखों में आँसू आ गए। गला भर आया आपका। मेरा जीवन कृतार्थ हो गया। अब मैं खुशी-खुशी आपको विदा कर सकूंगी।

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