आम चुनावों का बिगुल बज चुका है। विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव गिर गया, पर आने वाले समय की बड़ी लड़ाई का नैरेटिव स्थापित किया जा चुका है। वैसे भी अविश्वास प्रस्ताव संख्याबल के बारे में नहीं था, इसका प्रयोजन सरकार के बारे में एक आम धारणा का निर्माण करना था। सवाल उठता है इसके बाद अब मोमेंटम किसके पक्ष में चला गया है? आइए, देखें।
1. 2024 के कथानक के केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी बने हुए हैं। 2019 के आम चुनावों से पूर्व राजनीतिक फलक पर यह विचार हावी था कि मोदी के सामने कोई नहीं। उस बात को अब 5 साल हो गए हैं, लेकिन आज भी वही फैक्टर कायम है। अगर विपक्षी दल मोदी को निशाना बनाते हैं तो सत्तापक्ष भी मोदी के कल्ट के इर्द-गिर्द ही चीयरलीडर्स की तरह शोर मचाता है। विपक्ष के बायकॉट के समय जिस तरह से ट्रेजरी बेंचों ने प्रधानमंत्री का जोरदार अभिवादन किया, उससे पता चलता है कि मोदी के लार्जर-दैन-लाइफ व्यक्तित्व के कारण राजनीतिक वर्ग आज दो भागों में विभाजित हो गया है।
2. राहुल गांधी नए रूप में दिखलाई दे रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा से अर्जित प्रतिष्ठा और सांसदी निरस्त होने से मिली सहानुभूति के चलते वे अब मोदी-विरोधी ताकतों के प्रतीक बन चुके हैं। 2018 के अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल ने राफेल मसले पर सरकार को चुनौती दी थी, लेकिन अप्रत्याशित रूप से उन्होंने प्रधानमंत्री के पास जाकर उन्हें गले लगा लिया था। अब उन्होंने इस तरह के सौहार्द को त्यागकर सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध खुलकर मोर्चा खोल लिया है। पर प्रधानमंत्री की तुलना रावण से करना और यह संकेत करना कि मणिपुर में भारत-माता की हत्या की गई है, बताता है कि वे अब भी दिल से बोल रहे हैं, जबकि अवसर दिमाग से बात रखने का था।
3. दोनों धड़ों के बीच लड़ाई इतनी ध्रुवीकृत हो गई है कि किसी तटस्थ तीसरे मोर्चे के लिए स्पेस घटता जा रहा है। जो पार्टियां अभी तक किसी गुट का हिस्सा नहीं बनी हैं- जैसे कि बीआएस, बीजद, वाईएसआरसीपी, तेदेपा- अब उन पर भी कोई एक पाला चुनने का दबाव बन रहा है। जहां बीआएस धीरे-धीरे विपक्षी खेमे की ओर जा रही है, वहीं बीजद, वाईएसआरसीपी और तेदेपा अब सरकार के करीब आ गए हैं।
4. जहां इंडिया गठबंधन को भाजपा द्वारा ‘ठगबंधन’ कहा जा रहा है, वहीं गठबंधन-सहयोगियों में अब समायोजन की भावना बढ़ती दिख रही है। जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से मतभेदों को समाप्त कर निकटता बढ़ाने की कोशिश की, वैसा 2019 में नहीं दिखा था। इससे विपक्ष की चुनौती मजबूत हुई है।
5. मणिपुर के मसले पर विपक्ष तात्कालिक राजनीतिक लाभ भले पा ले, लेकिन इससे राष्ट्रीय एजेंडा नहीं बदलने वाला है। अविश्वास प्रस्ताव लाने का मकसद प्रधानमंत्री को मणिपुर के मुद्दे पर मौन तोड़ने को मजबूर करना था, लेकिन देश की वृहत्तर जनता के लिए महंगाई और बेरोजगारी जैसे मसले ज्यादा मायने रखते हैं।
6. मोदी और शाह ने अपने दो-दो घंटे के भाषणों से भले ही सबका ध्यान खींचा हो, लेकिन अब लोग ‘नामदार’ बनाम ‘कामदार’ की बातों से ऊब चुके हैं। नौ साल से सत्ता में होने के बाद अब सरकार कांग्रेस की अतीत की भूलों की तरफ संकेत करके अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती। 1966 में मिजोरम में जो हुआ, उसका हवाला देकर 2023 में मणिपुर में डबल-इंजिन की सरकार जवाबदेही से कैसे पल्ला झाड़ सकती है?
7. अगर आम चुनावों का मोमेंटम अब भी भाजपा के पक्ष में है तो इसका कारण यह है कि विपक्ष को अभी तक बदलाव का प्रभावी नारा नहीं मिला है। भाजपा इन चुनावों को मोदी बनाम अन्य के रूप में प्रस्तुत करेगी, लेकिन विपक्षी दलों के सामने चुनौती राज्यों के स्तर पर भाजपा का मुकाबला कर केंद्र में उससे संघर्ष करने की है।
8. राहुल पर जरूरत से ज्यादा फोकस करने का यह भी मतलब है कि कांग्रेस अपनी बेंच-स्ट्रेंग्थ का अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रही है। मिसाल के तौर पर, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान कांग्रेस ने शशि थरूर को क्यों नहीं अपने स्टार-वक्ता के रूप में उतारा? पुनश्च : संसद के इस उथलपुथल भरे सप्ताह की एक यादगार छवि थी राज्यसभा में दिल्ली सर्विस बिल पर बहस के दौरान वयोवृद्ध डॉ. मनमोहन सिंह का व्हीलचेयर पर बैठकर चुपचाप सुनते रहना। पूर्व प्रधानमंत्री पर उनके राजनीतिक विरोधियों द्वारा ‘मौन-मोहन सिंह’ कहकर कटाक्ष किया जाता था, जबकि सच्चाई यह है कि अपने कार्यकाल के दौरान वे संसद में विभिन्न मसलों पर 70 मर्तबा बोले थे, वहीं उनकी तुलना में मोदी केवल 30 बार ही बोले हैं।
विपक्ष को अभी तक बदलाव का प्रभावी नारा नहीं मिला है। भाजपा चुनावों को मोदी बनाम अन्य के रूप में प्रस्तुत करेगी, लेकिन विपक्षी दलों के सामने चुनौती राज्यों के स्तर पर भाजपा का मुकाबला कर केंद्र में उससे संघर्ष करने की है।