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 परदे पर ‘उच्च जातियों’ की दुनिया को दिखाती है छेल्लो शो 

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नीरज बुनकर

नलिन कुमार पंड्या द्वारा निर्देशित गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ (अंतिम शो) को 95वें ऑस्कर पुरस्कारों के लिए बेस्ट इंटरनेशनल फीचर श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुना गया है। भारत के अधिकांश फिल्म प्रेमियों ने इस निर्णय का स्वागत किया है। लेकिन ‘सिनेमा में जाति’ पर शोधार्थी के रूप मुझे ऐसा लगता है यह फिल्म ‘उच्च जातियों’ की दुनिया को दिखाती है। यहां मैं इस फिल्म का इस आधार पर विश्लेषण करने का प्रयास कर रहा हूं कि यह जाति को किस मनोवैज्ञानिक और समाजवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य से देखती है।

एक बच्चे के मन में फिल्म निर्माण के प्रति आकर्षण को दर्शाने वाली यह फिल्म, एक जाति विशेष की स्थिति को इतना अधिक महत्व देती है कि ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य समाज पर जाति प्रथा के प्रभाव को कम करके प्रस्तुत करना है। यदि कम शब्दों में कहें तो ‘निर्धन ब्राह्मण’ की इस फिल्म में सतत उपस्थिति है। 

फिल्म की शुरूआती दृश्य में मुख्य किरदार, नौ साल के समय (भाविन राबरी) को तीर-कमान हाथ में लेकर रेल की पटरी पर चलते हुए दिखाया गया है। इसके बाद कैमरा कपास के हरे खेतों और एक गुजरती हुई रेलगाड़ी की ओर मुड़ जाता है। फिर समय खेतों की ओर तीर चलाता है। समय को फिल्म में कई बार अपने मित्रों के साथ अर्धनग्न अवस्था में दिखाया गया है। तीर-कमान, जंगल के बीच एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन और अर्धनग्न बच्चा। यह सब देखकर आपको क्या लग सकता है? शायद समय को गर्मी लग रही है, इसलिए उसने कमीज़ नहीं पहना है या क्या वह इतना गरीब है कि उसके पास कमीज़ है ही नहीं? इसके बाद के दृश्य में समय अपने घर पर है, जहां उसकी मां, छोटी बहन और पिता कहीं जाने की तैयारी कर रहे हैं। 

समय अपने पिता (दीपेन रावल) से पूछता है, “हम लोग कहां जा रहे हैं?” उसके पिता जवाब देते हैं, “हम लोग सिनेमाघर जा रहे हैं।” पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि यह आखिरी बार है कि वे लोग सिनेमाघर जा रहे हैं। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि समय के पिता के अनुसार फिल्मों को अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन इस बार वे फिल्म देखने केवल इसलिए जा रहे हैं क्योंकि वह एक अच्छी फिल्म है, धार्मिक फिल्म है। फिर उसके पिता ‘जय महाकाली’ का उद्घोष करते हैं। वे लोग सिनेमाघर जाते हैं और फिल्म देखते हैं। जब वे लोग घर लौट रहे होते हैं तब समय अपने पिता से कहता है कि उसका सपना है कि वह फिल्म निर्देशक बने। उसके पिता भौंचक्के रह जाते हैं। “चुप हो जाओ और आगे कभी यह बात मेरे सामने मत दोहराना। क्या तुमने कभी सुना है कि किसी ब्राह्मण का लड़का यह फालतू काम कर रहा हो? फिल्म की दुनिया हमारी संस्कृति के खिलाफ है। क्या तुम ब्राह्मण समाज में मेरी इज्ज़त मिट्टी में मिलाना चाहते हो?” 

समय के पिता के हाव-भाव और बातों से लगता है कि उन्हें अपने ब्राह्मण होने पर बहुत गर्व, बल्कि अहंकार है। वे अपने बेटे समय को सिनेमाघर जाने की इज़ाज़त नहीं देते क्योंकि उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार, सिनेमाघर ‘अपवित्र’ एवं ‘अनैतिक’ स्थान होते हैं और वे ‘पवित्र’ तभी बनते हैं जब वहां कोई धार्मिक फिल्म दिखाई का रही हो। ब्राह्मण, जो कि हिंदू सामाजिक पिरामिड के शीर्ष पर बैठा समुदाय है, अपने आचरण को औचित्यपूर्ण साबित करने के लिए कुछ न कुछ ढूंढ ही निकलता है। निराश समय कहता है, “आप ब्राह्मण-ब्राह्मण करते रहते हैं पर अपनी स्थिति को तो देखिये कि आप पूरे दिन चाय बेचते हैं।” 

यह सुनकर उसके पिता बेचैन हो जाते हैं। पृष्ठभूमि में संगीत बजने लगता है जो उनकी व्याकुलता को दर्शाता है। साथ में कई फिल्मों के अंश दिखाए जाते हैं जो दर्शकों को एक ऐसे ब्राह्मण परिवार के दुःख में भागी बनने के लिए आमंत्रित करते लगते हैं, जो अत्यंत ‘निर्धन’ है और चाय की दुकान चलाता है। 

‘छेल्लो शो’ फिल्म के एक दृश्य में मुख्य किरदार समय, जिसकी भूमिका भाविन राबरी ने अदा की है.

समय अपने पिता की फिल्मों की नापसंदगी का विरोध करते समय हमेशा उनके ब्राह्मण होने का हवाला देता है। रेलवे के कुछ अधिकारी समय के पिता के साथ हमदर्दी रखते हैं। “बेचारे के पास 400-500 गाएं थीं, पर उसके भाइयों ने सब छीन लीं और ब्राह्मण होते हुए भी उसे चाय की दुकान चलानी पड़ रही हैं।” ध्यान से फिल्म देखने वाले किसी भी दर्शक को यह समझ में आ जाएगा कि फिल्म प्रछन्न ढंग से हिंदुत्व को बढ़ावा देती है। कभी ‘जय श्री राम’ लिखे भगवा झंडे दिखाए जाते हैं तो कभी ट्रकों के पीछे लिखा ‘जय माता दी’। ब्राह्मण परिवारों की ‘पवित्रता’ की प्रतिनिधि गाय भी बार-बार परदे पर नजर आती है। 

समय के पिता अपने आपको हमेशा एक ‘निर्धन’ और अभागा व्यक्ति बताते हैं, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए संघर्ष कर रहा है। मगर वे एक पक्के घर में रहते हैं, जिसमें फर्नीचर तो नहीं है, लेकिन बिजली है और जिसके चारों ओर खेत में हरियाली बिछी हुई है तथा फसलें लहलहा रहीं हैं। खेत किसी भी तरह से छोटा नहीं लगता। यह दृश्य हमें भारत और विशेषकर गुजरात में कृषि भूमि के स्वामित्व के मुद्दे की याद दिलाता है। ‘निर्धन’ होने के बाद भी इस ब्राह्मण परिवार के पास भूमि का एक बड़ा हिस्सा है और वह उस प्रकार की बंजर भूमि नहीं है, जिसे सरकार भूमिहीन दलित परिवारों के बीच बांटती है। वह उपजाऊ ज़मीन है। स्पष्ट तौर पर फिल्म जाति की एक नई परिकल्पना प्रस्तुत करती है। 

समय की मां (ऋचा मीणा) को बहुत कम बोलते दिखाया गया है। वह हमेशा रसोईघर में भोजन पकाती दिखती है। फिल्म में रसोईघर को महिलाओं के लिए उपयुक्त और सही स्थान के रूप में दिखाया गया है। परिवार ‘निर्धन’ है लेकिन रसोईघर में स्वादिष्ट भोजन पकता है। सिनेमाघर में प्रोजेक्टर चलाने वाला फज़ल (भावेश श्रीमाली) एक दिन समय से पूछता है, “क्या तुम लोग रोज़ इतना अच्छा और स्वादिष्ट भोजन करते हो?” एक दृश्य में एक महिला को समय की मां की भौहें बनाते दिखाया गया है। क्या आपने कभी कोई ऐसा गरीब ग्रामीण परिवार देखा है जहां स्वादिष्ट व्यंजन पकते हों और जिनकी महिलाएं भौहें बनवातीं हों? 

मैंने जैसे ही छेल्लो शो देखना शुरू किया, मुझे ज्यूसेप टॉर्नाटोरे की फिल्म ‘सिनेमा पैरादीसो’ की याद आई। यह फिल्म एक छोटे से बच्चे के सिनेमा के प्रति आकर्षण और फिल्म निर्माता बनने की उत्कट इच्छा दर्शाती अत्यंत प्रभावी, भावुकतापूर्ण और राजनैतिक फिल्म है। मैंने यह फिल्म कुछ सालों पहले देखी थी और उसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला था। इस फिल्म में ‘स्मृति’ और उससे जुड़े अन्य कारकों को जिस तरह सिनेमेटिक औज़ार के रूप में प्रयुक्त किया गया है, वह मंत्रमुग्ध करने वाला है। फिल्म में अनेक परतें हैं, जिनमें व्यक्तिगत से लेकर पेशेवराना जीवन, प्रेम से लेकर राजनीति और परिवार व शहर से लेकर देश तक की बातें कहीं गईं हैं। फिल्म एक व्यक्ति की जीवनयात्रा का चित्रण करती है, लेकिन इसके साथ ही वह एक समाज, एक शहर और एक परिवार की यात्रा को भी दिखाती है। 

दोनों फिल्मों की मन ही मन तुलना करने पर जिस पहलू पर मेरा सबसे ज्यादा ध्यान गया, वह यह था कि यह भारतीय फिल्म जाति को किस तरह दिखाती है, कैसे वह ऐसा बताती है मानों जाति हो ही ना और किस तरह वह जाति को गायब कर देती है। जबकि पूरी फिल्म केवल एक जाति तक सीमित हो जाती है। ऋचा मीणा, राजस्थान के आदिवासी मीणा समुदाय से हैं, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने समय की मां की भूमिका निभाई है, जो कि एक गरीब ब्राह्मण परिवार की महिला है। फिल्म निर्माता और उनकी टीम ने आखिर एक ‘निर्धन’ ब्राह्मण परिवार की कहानी को क्यों चुना? यह फिल्म किसी मीणा परिवार या किसी अन्य पददलित समुदाय के परिवार के बारे में भी तो हो सकती थी? लेकिन समस्या शायद यह रही होगी कि अगर फिल्म किसी निम्न जाति के परिवार की कहानी कहती तो परिवार के आसपास का वातावरण बिलकुल अलग होता और इसके परिणामस्वरुप जो जटिलताएं उपस्थित होतीं, उनसे निपटने की क्षमता निर्माता में नहीं होती। लेकिन इन जटिलताओं से बचने के बाद भी वह जाति के यथार्थ से नहीं बच पाता। यही बात अमित वी. मसूरकर द्वारा निर्देशित 2017 की फिल्म न्यूटन के बारे में भी सही है। यह फिल्म, जिसमें राजकुमार राव ने मुख्य भूमिका निभाई है, एक सरकारी क्लर्क के बारे में है, जिसे चुनाव ड्यूटी पर छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी इलाके में जाना पड़ता है। इस इलाके में लोगों के सरकार के प्रति बगावती तेवर हैं। निर्देशक मुख्य किरदार की सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में हमें बहुत कम बताता है, क्योंकि वह जानता है कि अगर वह ऐसा करेगा तो उसे जाति-आधारित समाज से जुडीं असहज करने वाली सच्चाईयों को परत-दर-परत उखाड़ना पड़ेगा। 

कुछ लोग कह सकते हैं कि छेल्लो शो के निर्देशक ने आखिर गलत क्या किया है। आखिरकार क्या भारत में गरीब ब्राह्मण परिवार नहीं हैं? लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह फिल्म एक ‘उत्पादित यथार्थ’ दिखलाती है और हिंदू समाज की दमनकारी ढांचागत प्रक्रिया को फ्रेम से बाहर रखती है। चाय बेचने वाले को एक ‘निर्धन ब्राह्मण’ परिवार से ही क्यों होना चाहिए? कोई फिल्म निर्माता इस मुद्दे पर प्रकाश डालना नहीं चाहता कि किसी गांव या किसी रेलवे स्टेशन पर चाय की दुकान खोलने की इज़ाज़त किसे मिल पाती है। उपस्थिति से अनुपस्थिति का भान होता है और अनुपस्थिति से उपस्थिति का। 

पटरी और रेलगाड़ी शायद एक उदास और उबाऊ अस्तित्व से मुक्ति और एक सुनहले सपने को पूरा करने की चाहत के रूपक हैं। फिल्म के अंत में समय के पिता अपनी ‘सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी’ का उपयोग कर उसे उसके सपने को पूरा करने के लिए ट्रेन से शहर भेज देते हैं। भारत के पदक्रम-आधारित समाज में अपने सपनों को पूरा करने की आज़ादी किसे है? ऐसे कितने भारतीय हैं, जो अपनी अंधेरी जिंदगी को त्याग कर अपने किसी ऐसा रिश्तेदार के घर जा सकते हैं, जो किसी शहर में बसा हुआ है? इस ‘निर्धन ब्राह्मण परिवार’ के पुत्र को उसके सपने पूरा करने में सहायता करते हैं शर्मा जी, शास्त्री जी और दवे सर। यह फिल्म ‘आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों’ के लिए आरक्षण, जिसे बहुजन अध्येता ‘सुदामा कोटा’ कहते हैं, की अवधारणा को औचित्यपूर्ण सिद्ध करती लगती है। 

इस अवधारणा के अनुसार, अपने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक संसाधनों के बावजूद भी ब्राह्मण ‘गरीब’ होता है और उसके लिए सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने प्रतिनिधित्व की गारंटी दी जाती है। 

अनुवाद: अमरीश हरदेनिया

(लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं)

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