ओमप्रकाश मेहता
भारतीय राष्ट्रªभक्ति पर एक विश्वस्तरीय संगठन ने हाल ही में एक सर्वेक्षण प्रतिवेदन जारी किया है, जिसमें बताया गया है कि भारत तथा भारतीय अपने स्वयं को ‘सजने-संवारने’ में इतने व्यस्त हो गए कि उनमें अब राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रीय चेतना का कोई अंश ही शेष नहीं रहा, अमेरिका में जारी इस प्रतिवेदन में कहा गया है कि भारत में नागरिकों की अब पहली प्राथमिकता ‘रोटी की जुगाड़’ हो गई है, क्योंकि इस देश में बेरोजगारी का विस्तार काफी अधिक हो गया है और यहां अब ‘‘भूखे भजन न होय गोपाला’’ का स्वर हर कहीं सुनाई देने लगा है, अब ऐसे में राष्ट्र या देश के बारे में सोचने-विचारने का वक्त किसके पास? इसी कारण गांधी-सुभाष-तिलक के इस देश में राष्ट्रभावना का दिनों-दिन ह्ास हो रहा है।
यहां सबसे अहम् बात तो यह है कि यह देश नागरिकों के स्तर की दृष्टि से कई भागों में बंट गया है और नागरिकों के हर वर्ग की प्राथमिकता अपनी निजता से जुड़ी है, इसलिए राष्ट्र तथा राष्ट्रीय समस्याओं की किसी को कोई चिंता नही है। इसीलिए आज इस देश में स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस जैसे पर्व भी आम धार्मिक पर्व दशहरा-दीपावली की तर्ज पर मनाए जाने लगे है और इसीलिए एक दिन राष्ट्रीय दायित्व से मुक्ति पा लेते है, यहां गरीब तबके को जहां अपनी रोटी की जुगाड़ से ही फुर्सत नहीं है, तो अमीर अपनी अमीरी के दिखावे व ऐश-ओ-आराम में खोया रहता है और मध्यम वर्ग को अपने पारिवारिक झंझटों से मुक्ति पाने की चिंता लगी रहती है, अब ऐसी स्थिति राष्ट्रहित के बारे में कौन और कब सोचे? राजनेता अपनी राजनीतिक आपाधापी में व्यस्त, नौकरी पेशा अपनी नौकरी व भ्रष्टाचार में व्यस्त और गरीब अपनी रोज की रोटी की जुगाड़ में व्यस्त। इसीलिए आज राष्ट्र व उसके हित में सोचने वालों का अभाव हो गया है, क्योंकि नेताओं के लिए राष्ट्र एक फल देने वाला वृक्ष बनकर रह गया है तथा जनता अब शोषण के लिए रह गई है।
आजादी की हीरक जयंति तक इस देश की ऐसी दुर्दशा होगी क्या नेहरू-गांधी-तिलक-सुभाष ने इसकी कल्पना की थी? यदि इसका तनिक भी इन्हें आभास हो जाता तो वे या तो देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर नहीं करते या फिर इस अपराध के दण्ड का भी प्रावधान करके जाते।
हम गणतंत्र दिवस इसलिए मनाते है क्योंकि इस दिन हमारे देश में हमारा संविधान लागू हुआ था, देश की आजादी के लगभग ढाई साल बाद हमारा नया संविधान लागू हुआ था, वह संविधान जो भारतीयों के लिए रामायण-गीता-कुरान से कम नही रहा, किंतु आज इसकी क्या स्थिति है? क्या देश संविधान के अनुरूप चल रहा है? आजादी के बाद हर सरकार ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के हिसाब से इसमें संशोधन किए इस कारण अब तक हमारे देश में सवा सौ से अधिक संविधान संशोधन हो चुके है, ये संशोधन संविधान के लिए तीर साबित हुए और आज इसी कारण हमारा संविधान संशोधनों की शरशैय्या पर अंतिम सांस लेने को मजबूर हो रहा है।
क्या कभी हमारे मौजूदा कर्णधारों पर देश की इस सबसे बड़ी चिंता पर गौर करने की फुर्सत मिली? शायद नहीं, यदि इस मसले पर चिंता की होती तो आज देश की यह स्थिति नहीं होती, आज तो राष्ट्रीय पर्वो पर राष्ट्रध्वज फहरा कर ही अपने दायित्व और कर्तव्य की इतिश्री मानली जाती है और वहीं हो रहा है, इस गंभीर मसले पर किसी को विचार करने का वक्त ही नहीं है, इसीलिए राष्ट्रीयता अब प्राथमिकता नहीं रही…. भारत माता की जय….!