_जो आज तक नही हुआ, वह घट गया संसद में, ऐसा होता हैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र?_
_शहर कांग्रेस कार्यालय पर जा पहुँचे भाजपाई, राजनीतिक विरोधियों से निपटने का ये कैसा तरीका?_
*नितिनमोहन शर्मा*
_दलित राजनीति के नाम पर जो कुछ दिल्ली से लेकर इंदौर तक हुआ, वह शर्मनाक हैं। वहां भी मामला थाने तक गया। यहां भी पहुँचा। वहां भी अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज हुआ। यहां भी ये ही हुआ। नामज़द सिर्फ नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हुए। कारण बनी उनकी ताजातरीन ‘ मसल्स पॉलिटिक्स’। वे अपने ‘ पुशअप’ का वहां इस्तेमाल कर बैठे, जहां शरीर की नही जुबां की ताकत से ही वज़न तोला जाता हैं। जिन बाबा साहेब ने अपने से असहमत स्वर को जीवन पर्यंत सदा सम्मान दिया, उन्ही बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के नाम पर देश की राजनीति मतभेद से आगे मनभेद तक पहुँच गई। जो कुछ दिल्ली में घटा, उससे देश शर्मसार हैं। इंदौर में ये होते होते बच गया। नही तो भाजपाई तो दो दो हाथ करने गांधी भवन तक जा ही पहुँचे थे। ये राजनीति करने का कैसा तोर-तरीका? कोई संवैधानिक पद पर होने के बावजूद पद की गरिमा को नही समझ रहा तो कोई सत्तारूढ़ दल होने के नाते बड़प्पन को नही अपना रहा। संसद कम पड़ रही थी जो सड़क पर लड़ लिए। क्या सिर्फ वोट की राजनीति ही सब कुछ हैं? संसदीय आचरण क्या अब मायने नही रखते, जिस पर दुनिया का ये सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश रश्क करता आया हैं।_
आप नही बदले। उलटे वो व्यवहार कर बैठें की अब जग आप पर हंस रहा हैं। अब देश व देशवासी हंस नही रहे। अब सब दुःखी हैं। शर्मसार हैं। 140 करोड़ देशवासी भी औऱ देश का लोकतंत्र दुःखी हैं। ऐसा होता हैं दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र? पूरी दुनियां में क्या सन्देश गया होगा? हम दम्भ से, गर्वोक्ति से अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मुल्क कहते हैं। ऐसा होता है लोकतांत्रिक देश, जहां मतभेद, मनभेद से आगे तक निकल जाए। सांसदों के बीच, बीच सड़क पर धक्कामुक्की हो जाये। किसी का माथा फुट जाए, खुन बह निकले। कोई बेहोश हो जाये। थाना-रपट-प्रकरण दर्ज हो जाये। धाराएं लग जाएं। नेता प्रतिपक्ष आरोपी हो जाये। सांसद अस्पताल पहुँच जाए। याद ही नही आता कि ऐसा कभी संसद में हुआ हो। दो दिन पहले ही तो सब गर्व से संविधान की गोल्डन जुबली पर संसद के अंदर गर्व से गरज रहे थे। अब दो दिन बाद संसद के बाहर लड़ रहें हैं। आपस मे जूतमपैजार सा नज़ारा पेश कर रहें हैं। मतभेद प्रकट करने का ये क्या तरीका? आप सब माननीयों को थोड़ी सी भी लोकलाज नही हैं क्या? वोट बैंक की राजनीति के पुरोधा बनने के फेर में इस देश को आख़िर कितना नीचा देखना होगा?*
…कल बस आपस मे मारपीट ही नहीं हुई। बाक़ी सब कुछ हुआ। किसके नाम पर ये सब हुआ? उन्ही बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के नाम पर, जो असहमति के स्वर को भी अजीवन सिर माथे पर लिए फिरे। उनके साथ क्या क्या नही हुआ? लेक़िन किसी को उन्होंने धकियाया नही। जुबां से एक हर्फ भी उन्होंने ऐसा न बोला जो उनके विरोधी के मर्म को आहत कर दे। कल आप सब माननीयों का आचरण देख बाबा साहेब की आत्मा कितनी आहत हुई होगी? इसका इल्म होता तो आज फ़िर विरोध का मोर्चा नही खोला जाता। कल माथे फुट गए, वो ही बहुत था। अच्छा होता दिनभर का संघर्ष, दिन ढलने के बाद परस्पर आत्मीयता में बदलता। लेक़िन हुआ उलटा। थाना कोर्ट कचहरी के रास्ते पर चल दिये आप सब माननीय। यानी आने वाले दिनों में वैमनस्यता का विस्तार तय हैं।पूरे मामले का पटाक्षेप तो दूर, तलवारे नए सिरे से खींच ली गई और अब देशव्यापी आंदोलन की धमकी दे दी गई। यानि जो संसद में हुआ, उसकी पुनरावृत्ति देश के हर हिस्से में हो। आ सब माननीय शायद इसे ही राजनीति कहते हैं? आपको डर नही लगता कि इससे देश मे क्या औऱ कैसे हालात निर्मित होंगे? आप सब तो भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने निकले थे न? फिर ये क्या कर बैठे औऱ आगे क्या करने जा रहें हैं? इससे भारत की तरक़्क़ी होगी?
*राजनीतिक विरोधी से निपटने का ये कैसा तरीका?*
*राजनीतिक विरोधियों से निपटने का ये कैसा तरीक़ा। नेता प्रतिपक्ष उसी रास्ते से सदन में जाने को आमदा हैं, जहां उनके विरोधियों का मज़मा जुटा हुआ था। नेता प्रतिपक्ष ने अपने ‘ पुशअप’ वहां आजमा लिया औऱ परिणाम सामने हैं। घटना के बाद जब मौके पर मौजूद तमामं सीनियर सांसदों ने उन्हें लताड़ा तो वे घायल सांसद तक चलकर आये जरूर लेक़िन जिस अंदाज में वे रवाना हो गए, वो कम से कम नेता प्रतिपक्ष के आचरण के अनुक़ल तो कतई नही था। अगर नेता प्रतिपक्ष वही बैठ जाते या बुजुर्ग सांसद को संभाल लेते तो उनका कद कितना ऊंचा होता। समस्त आक्रोश वही खत्म हो जाता। क्योंकि ये तो मौके पर मौजूद जानते ही थे कि धक्का जानबूझकर सांसद महोदय को नही दिया गया था। वे तो बस नेता प्रतिपक्ष की ‘ मसल्स पॉलिटिक्स’ की चपेट में आ गए। उसके बाद जो हुआ, उस पर अब जगत तो हंस ही रहा हैं। देश भी दुःखी हैं। दिल्ली में माननीयों ने जो किया, उसी ही तौरतरीकों का इस्तेमाल इंदौर में भी किया गया। विरोधी विचार से निपटने राजनीतिक दल के दफ्तर तक जा पहुँची राजनीति। वह तो भला हो पुलिस का, जिसने वक्त रहते न सिर्फ़ मोर्चा संभाला, बल्कि संसद जैसी अप्रिय स्थिति को भी सख्ती से टाल दिया। ये राजनीति का कौन सा तरीक़ा हैं? इस पर ठंडे दिमाग से विचार जरूर करें। ताकि न दिल्ली को, न इंदौर को शर्मसार होना पड़े।*
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