अग्नि आलोक
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*काकोरी कांड के डकैत हैं हमारे आइडियल और आपके?*

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*अजय असुर*

काम कुछ बे मिसाल करना होगा
एक नयी सुबह के लिए इनक़लाब करना होगा
अपने हक के लिए कल नहीं आज ही लड़ना होगा
हर ज़ूलम का भी हिसाब करना होगा
शाह नवाज खान शजर

ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए काकोरी कांड के शहीद रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी और रामप्रसाद बिस्मिल सहित तमाम साथियों ने ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HRA) नाम का संगठन बनाया था। (आगे चलकर भगत सिंह के नेतृत्व में 1928 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन (HRA) का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRSA) कर दिया गया।) अपने संगठन की गतिविधियों व कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए पैसे की जरूरत होती थी, जिसके लिए वे ब्रितानी हुकूमत व उस समय के सेठों व जमींदारों के खजाने को लूटा करते थे। इस लड़ाई को लड़ने के लिए धन की जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से इन क्रांतिकारीयों ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ से 16 किलोमीटर दूरी पर काकोरी रेलवे स्टेशन के पास में ब्रिटिश खजाने को लूटने की इस घटना को अंजाम दिया। यह घटना देश के इतिहास में दर्ज होकर “काकोरी कांड” नाम से मशहूर हो गई। जिसे काकोरी कांसपिरेसी केस के नाम से भी जाना जाता है।

8 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल के घर पर हुई एक बैठक में अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी। 9 अगस्त 1925 को ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूटेरों द्वारा भारत की जनता व प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर तैयार किये गए खजाने को ट्रेन में लादकर ले जाया जा रहा था और योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ को चेन खींच कर रोका। पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, चन्द्रशेखर आजाद व अन्य सहयोगियों ने समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया। इसके बाद गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले उसे खोलने की कोशिश की किन्तु वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त से माउजर का ट्रैगर दब गया और गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी।

यह लूट सिर्फ़ मामूली लूट नहीं थी बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर एक बड़ा प्रत्यक्ष हमला था। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया और बड़े पैमाने पर छापेमारी कर ब्रितानी सरकार ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार किया। जिन पर ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने का मुकदमा चलाया गया। जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड (फाँसी की सजा) सुनायी गयी और 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था। राजेंद्र लाहिड़ी को गोंडा में, रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर में, अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद में, रोशन सिंह को इलाहाबाद में फांसी दी गई यह फांसी स्वरूपरानी अस्पताल (सिविल लाइन्स) जो कि पहले एक जेल थी, में दी गयी थी।  

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के क्रांतिकारी साथियों का स्पष्ट मानना था कि “गोरे अंग्रेज़ चले जाएं और काले अंग्रेज गद्दी पर बैठ जाएं तो इससे आज़ादी नहीं आने वाली।” और आज उनकी कही बात साफ-साफ नजर आ रही है। इन शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ ना जाए इसलिये आज हमें इन चन्द सवालों पर सोचना पड़ेगा। इन शहीदों ने किसके लिए अपने जीवन की कुर्बानी दी? उनके उद्देश्य क्या थे? उनके सपने क्या थे? उनके विचार क्या थे? क्या उनके सपने साकार हुए? क्या वह सिर्फ गोरे अंग्रेजों को भागना चाहते थे? यह सब कुछ वह जिंदा सवाल हैं जिनका उत्तर दिए बिना हम अपने संघर्ष को सही दिशा में आगे नहीं बढ़ा सकते। 

यदि सिर्फ समस्या अंग्रेजों से होती तो अंग्रेजों के जाने के बाद सारी समस्या खत्म हो जानी चाहिये पर आज तो जनता की समस्याएं खत्म होना तो दूर की बात लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। इसीलिये आज तथाकथित आजादी के 76 साल बाद भी हमारा देश भूखा और नंगा है क्योंकि गोरे तो चले गये पर जाते-जाते अपने चहेतों को सत्ता सौंप कर गये और तब से लगातार लूट जारी है और आज तो ये लूट और तेजी से देश को खोखला कर रहें हैं। हमारे देश की भौतिक सम्पदा जल-जंगल-जमीन को कौड़ियों के भाव विदेशी पूँजीपति और उनके देशी दलाल बन चुके बड़े पूँजीपति वर्गों मिलकर लूट रहे हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित विश्व व्यापार संगठन (WTO), इंटरनेशल मानेटरी फंड (IMF) और विश्व बैंक (Word Bank) के दिशा-निर्देश पर हमारे देश के काले अंग्रेजों द्वारा देश की खेती- किसानी, शिक्षा और उद्दोग धंधों को साम्राज्यवादी कंपनियों और अडानी- अम्बानी जैसे भारत के तमाम दलाल पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। सारे नियम-कानून इन्हीं दलाल देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हितों के अनुरूप बनाया जा रहा है। जिसकी एक झलक आप भारत सरकार द्वारा हाल ही में लाये गए तीन साम्राज्यवाद परस्त कृषि कानूनों, मजदूर विरोधी चार लेबर कोड और नई शिक्षा नीति- 2020 में देख सकते हैं। आज साम्राज्यवाद हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अंदर तक घुसा हुआ है। चाहे वो शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, कृषि हो, उद्योग हो, संस्कृति हो, मीडिया हो या कोई और क्षेत्र। साम्राज्यवादियों ने बस अपने शोषण व लूट के तरीकों में थोड़ा बदलाव किया है। पहले जो उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर अपनी फौज व नौकरशाही का इस्तेमाल करके करना पड़ता था अब वो अप्रत्यक्ष तौर पर हमारे देश के दलाल शासक वर्गों के माध्यम से करते हैं। इन दलाल शासक वर्गों का प्रतिनिधित्व भाजपा- कांग्रेस समेत सभी चुनावबाज- संसदीय पार्टियाँ करती हैं। सत्ता में आने के बाद चाहे जो भी हो सभी जनता का ही खून चूसती हैं क्योंकि यहाँ सवाल गोरे और काले या भाजपा और कांग्रेस और चुनावबाज वामपंथी पार्टियों का नहीं व्यवस्था का है। यह व्यवस्था जिसका प्रतिनिधित्व अंग्रेज करते थे और वही सड़ी-गली व्यवस्था जो अंग्रेज सौंपकर गये उसी व्यवस्था को हमने अंगीकार कर आगे बढ़ाया। जिस देश ने सामन्तवाद की बुनियाद पर सड़ी गली बदबूदार पूंजीवादी व्यवस्था को अभी भी अपनाया हुआ है वहाँ जनता के लिये लगातार समस्याएं बढ़ रहीं हैं। आज हमारे देश ही नहीं वरन विश्व के अधिकांश देशों में जहाँ यह सड़ी-गली पूंजीवादी व्यवस्था है, गैरबराबरी व शोषण लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अमीरी और गरीबी की खाई कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ देश के गोदामों में हर साल हजारों/लाखों टन अनाज सड़ जाता है और दूसरी तरफ भुखमरी व रोटी के अभाव में हजारों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। दोनों टाईम भरपूर भोजन ना मिल पाने के कारण कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। देश में जितनी अमीरों की संपत्ति बढ़ रही है, उससे कहीं ज्यादा गरीबों की संम्पत्ति कम हो रही है इसीलिये अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। जनता की बुनियादी जरूरत की चीजों से सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी खत्म की जा रही है। वहीं शिक्षा व्यवस्था का निजीकरण किया जा रहा है। निजी व विदेशी विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं। देश के सभी सरकारी प्रतिष्ठान एक-एक करके कौड़ियों के भाव बेचे जा रहें हैं। पहले जनता के करोड़ों-अरबों रुपये से सरकारी प्रतिष्ठान का निर्माण किया जाता है और फिर उसे कौड़ियों के भाव दलाल पूंजीपतियों को बेच दिया जाता है। 

प्रतियोगी परीक्षाओं में एक सीट पर हजारों-लाखों अभ्यर्थी व लगातार परीक्षाओं के टलने व धांधली के कारण आज देश के नौजवान बेहाल हैं। अब तो अधिकांश विभागों में अधिकांश पद को खत्म कर दिये जा रहे हैं और जो बचे हैं उन अधिकांश पदों को दलाल पूंजीपतियों की कम्पनियों के माध्यम से ठेका मजदूरों द्वारा भरा जा रहा है और जो थोड़े पद बचे हैं उन पर भरतियां नहीं की जा रहीं हैं क्योंकि तनख्वाह देने के लिये पैसा नहीं है इसीलिये जनता को गुमराह करने के लिये उन पदों पर छात्रों को मूर्ख बनाने के लिये भर्तियां तो निकली जाती हैं पर भर्तिया ना हो इसके लिये शासक वर्ग खुद ही परीक्षा पेपर लीक करा देता है और फिर भर्तियां कैंसिल कर दी जाती हैं या फिर अपने ही आदमियों को खड़ा कर मामला कोर्ट में खड़ा कर देता है और नतीजा आपके सामने हैं। उसके ऊपर से आसमान छूती मंहगाई ने सबकी कमर तोड़ दी है। पेट्रोल-डीजल के अलावा आटा-चावल, तेल, सब्ज़ी, दाल जैसे रोज-मर्रा की ज़रूरी वस्तुओं को खरीदना आम इंसान के बस के बाहर की बात होती जा रही है। शाषक वर्ग द्वारा लगातार जातिवाद और सांप्रदायिकता का जहर बोकर जनता के बीच फ़ूट डाल रहा है। वर्तमान में एक तरफ भाजपा साम्प्रदयवाद और कांग्रेस जातिवाद का खेल खेल कर जनता को आपस में ही लड़ा रही है ताकि मूलभूत मुद्दों (रोजी-रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य…) पर बात न हो। महिलाओं के साथ हिंसा व बलात्कार की घटनाएं दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही हैं। किसानों को उनकी फसल का लाभकारी मूल्य तो बहुत दूर की बात न्युनतम समर्थन मूल्य (MSP) तक नहीं मिल पा रहा है। जिससे किसान और छात्र आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं और लगातार हताश होकर आत्महत्या कर भी रहे हैं और इन सबका सारा दोष जनता पर ही मढ़ कर खुद पाक साफ निकल जा रहे हैं और नौजवान भी व्यवस्था का दोष ना मानकर खुद को ही दोषी मानकर एक दूसरे को कोष रहे हैं।

हमारे देश में आधी से ज्यादा ग्रामीण आबादी के पास खुदको दफनाने तक की भी जमीन नहीं है। हमारे देश की सामंती-अर्धसामंती व्यवस्था ने सदियों से इन करोड़ो दलितों- पिछड़ों को जमीन से वंचित रखा है। भूमि सुधार के बड़े- बड़े दावे किए गए, बहुत से अधनियम बने लेकिन जमीनी हकीकत देखने पर यह दावे फिसड्डी साबित होते हैं।  रोजगार की तलाश में जब यह आबादी शहरों में आती है तो यहां भी दर-दर भटकने के बाद भी उद्योग-धंधों के अभाव की वजह से उसे कोई सम्मानजनक काम नहीं मिल पाता। भारत के शहर ऐसे करोड़ो गरीब मजदूरों से पटे पड़े हैं। जो कि मलिन बस्तियों में एक अमानवीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं। इन सारी समस्याओं से ध्यान भटकाने का एक ही रास्ता है। हिन्दू-मुस्लिम के बीच साम्प्रदायिकता भड़काकर और जनता को जात-पात में उलझाकर सत्ता में बने रहना। जैसा कि हमारी सभी चुनावबाज-संसदीय पार्टियां कर रही हैं। 

अब सवाल आता है कि इन समस्याओं का हल क्या है? और आज के समय में काकोरी के क्रांतिकारी शहीदों को याद करना ज़रूरी क्यों है? आज हम इनकी शहादत को क्यूँ याद कर रहें हैं? 

काकोरी के शहीदों को याद करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि उनका उद्देश्य अभी तक पूरा नहीं हुआ है, उनके द्वारा छेड़ी गई जंग आज भी जारी है। उनका सपना था कि एक ऐसे समाज का निर्माण हो, जहां एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण ना कर सके, जहां जाति, धर्म, लिंग, रंग, भाषा के आधार पर कोई भेद न हो। एक ऐसे देश का निर्माण करना चाहते थे जहां सभी लोग सम्मानजनक जीवन जी सकें, किसी को भूखे पेट न सोना पड़े व शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सभी का हक हो। आज जरूरत है इन क्रांतिकारी शहीदों की शहादत से प्रेरणा लेते हुए उस लड़ाई को आगे बढ़ाने की जिसका सपना हमारे शहीदों ने देखा था। वो लड़ाई जिसे भगत सिंह और उनके साथियों ने छेड़ा था जो उस वक्त अधूरा रह गया और आज भी अधूरा है और वह लड़ाई तब तक अधूरी रहेगी जब तक हम सब एक जुट होकर इस इस सड़ी गली व्यवस्था को उखाड़ कर इतिहास के कूड़ेदान में नहीं फेंक देते हैं।

यह लड़ाई तब तक पीछे है जब तक हम और आप अपने बंद कमरों में बैठे पड़ोसी के घर में भगत सिंह का इंतजार कर रहे हैं। जिस दिन हमें भगत सिंह बनने का एहसास हो जाएगा उस दिन इन बहरों को सुनाने के लिये धमाके करने की आवश्यकता नहीं होगी।

कुछ लोगों को लगता है कि चुनाव में भागीदार होकर संसद के रास्ते समाजवादी व्यवस्था कायम कर देंगे। इतिहास गवाह है कि चुनावों के जरिये संसद के रास्ते सिर्फ़ सत्ता बदलती है, व्यवस्था नहीं। देश में 73 सालों से चुनाव हो रहे हैं, नए नेता आते और पुराने जाते रहे हैं लेक़िन व्यवस्था वही बनी हुई है। जहां जनता का शोषण बदस्तूर जारी है। जब कि हमारे क्रांतिकारियों ने सत्ता नहीं बल्कि व्यवस्था बदलने के लिए शहादत दी थी।

क्रांति का मतलब है वर्तमान व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन और सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन चुनाव से नहीं होती है। क्रांतियां जनता द्वारा संगठित संघर्षों से जनता के द्वारा , जनता के लिए ही होती हैं। इन संघर्षों में देश के नौजवानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसलिए आज भी जरूरी है कि हम इस अन्याय के खिलाफ काकोरी के शहीदों की लड़ाई को उसके अंजाम तक ले जाने में एकजुट होकर इस अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक व्यवस्था के खिलाफ समाजवाद के लिए संघर्ष करें।

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है!

*

*अजय असुर*

*जनवादी किसान सभा*

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