पुष्पा गुप्ता
_जमीन में पानी भरा हुआ है और वह ऊपर को छलाँग मारता है। यद्यपि वह छलाँग मारता दिखाई तो नहीं देता। अगर आप समुद्र के नजदीक गए होते तो आपको दिखाई पड़ता कि समुद्र में से किस तरीके से पानी ऊपर को छलाँग भर-भरकर मारता है। बस, बादल बन जाते हैं।_
आपने तो केवल बादलों को बरसते देखा है, लेकिन समुद्र के पानी को गरम हो करके उछलते नहीं देखा। अगर आपने देखा होता तो आपका बहम दूर हो जाता। फिर आप ये कहते कि बादल ऊपर से नहीं आते, नीचे से निकलते हैं।
देवता कहाँ से निकलते हैं? ऊपर से निकलते हैं, बरसते हैं। आपकी बात सही है, लेकिन हमारी भी बात मानिए कि देवता भीतर से उछलते हैं। देवता कहाँ से उछलते हैं? मनुष्य के व्यक्तित्व में से उछलते हैं।
जिन पाँच पाण्डवों का जिक्र किया गया है कि कुंती ने पाँच पाण्डव पैदा किए थे। ये तो मैं नहीं कहता कि देवताओं ने वरदान नहीं दिए होंगे, लेकिन हाँ, वे पाँचों देवता कुंती के पेट में से पैदा हुए थे। इनमें से एक सूर्य का बेटा था तो एक इंद्र का बेटा था। अच्छा तो ये सब के सब ऊपर से आए होंगे? जरूर आए होंगे, लेकिन कुंती के पेट में से पैदा हुए थे। देवता श्रेष्ठ व्यक्तित्व में से बरसते हैं, पैदा होते हैं।
क्यों साहब ! देवता किसी के पेट में आ सकते हैं? नहीं बेटे! देवता हर किसी के पेट में नहीं आ सकते। किसी खास किस्म के आदमी के पेट में ही आते हैं। उस तरह का पेट पैदा कर लेना, जिसमें देवताओं के बैठने की जगह हो और देवता उसमें विराम पा सकें, प्रकट हो सकें। इसी का नाम साधना है।
आप इस बात को एक बार फिर समझ लेना। चलते-चलते आप इस बात को एक बार फिर से हृदयंगम करके जाना कि देवताओं की मिन्नतें करना, देवताओं की खुशामदें करना, देवताओं की चापलूसी करना, देवताओं की मनौती मनाना, देवताओं को अपने पक्ष में कर लेना कतई साधना नहीं है।
बेटे! ऐसी कोई साधना नहीं है, जिसमें देवताओं को बरगलाया जा सके। मैंने सारे शास्त्रों को पढ़ डाला है, अध्यात्मवेत्ताओं को पढ़ डाला है।
*साधना का मर्म :*
यदि ऐसा रहा होता तो किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन को परिष्कृत न करना पड़ता, साधना नहीं करनी पड़ती, संयम नहीं करना पड़ता, तप नहीं करना पड़ता, योगाभ्यास नहीं करना पड़ता और अपने आप को परिष्कृत करने की कतई जरूरत न होती।
वे देवताओं को पकड़ने की कोशिश अपने आप करते रहते कि लक्ष्मी जी को ऐसे पकड़ेंगे, हनुमान जी को ऐसे पकड़ेंगे, संतोषी माता को ऐसे पकड़ेंगे। इनको पकड़ने और गिरफ्तार करने का धंधा चलता रहता। आदमी को श्रम न करना पड़ता।
सही बात ये है कि जितने भी ऋषि हुए हैं, जितने भी साधक हुए हैं, जितना भी साधकों का इतिहास है कि जब से जमीन बनी है, तब से लेकर आज तक उसमें से एक भी साधक हमको ऐसा दिखाई नहीं पड़ता, जिसने अपने आप को परिष्कृत न किया हो। अपने आप को धोया न हो।
अपने आप को संजोया न हो। साधना का वास्तविक अर्थ आप समझ पाएँ तो आप धन्य हो जाएँ और मैं धन्य हो जाऊँ। साथ ही साथ आप यह विश्वास करें कि हमारी साधना निष्फल नहीं जाएगी तो आपकी सफलता का मार्ग खुल जाएगा।