स्वदेश कुमार सिन्हा
अमीर-ग़रीब के बीच की आर्थिक खाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। पूंजीवादी व्यवस्था में अमीर-ग़रीब में असमानता, मेहनतकश आबादी का विस्थापन तो पहले से ही जारी था, लेकिन पिछले 40 सालों में यह दूरी बहुत ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी है। एक ओर जहां अमीर अय्याशी में मशरूफ़ हैं, वहीं हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी मेहनतकश आबादी का जीवन-स्तर दिन-ब-दिन गिर रहा है।
विश्व असमानता रिपोर्ट के मुताबिक़ अब दुनिया की 10 प्रतिशत आबादी के पास संसार की 76 प्रतिशत दौलत है, जबकि निचली 50 प्रतिशत से भी अधिक आबादी के पास केवल 5 प्रतिशत से भी कम। यही नहीं संसार के शीर्ष अमीर 45 प्रतिशत से भी अधिक निजी दौलत पर क़ाबिज़ हैं, जबकि लगभग 3 अरब लोगों के पास कुछ भी नहीं है। यदि आमदनी में असमानता की बात करें तो 10 प्रतिशत अमीर कुल संसार की 52 प्रतिशत आमदनी हड़प लेते हैं, जबकि संसार की आधी आबादी को बस 8 प्रतिशत हिस्से से ही गुज़ारा करना पड़ता है। विश्व की निचली 50 प्रतिशत आबादी की औसत प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी केवल 3920 डॉलर है, दूसरी ओर ऊपर के 10 प्रतिशत अमीरों की औसत प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 122,100 डॉलर है।
जैसा कि कहा जाता है कि तथ्य झूठ नहीं बोलते, ये आंकड़े पूंजीवादी व्यवस्था में मेहनतकश आबादी के कंगालीकरण की प्रक्रिया को साफ़ दर्शाते हैं। यदि भारत में असमानता की बात करें, तो यहां भी हालात कोई अलग नहीं हैं। 1991 में 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास देश की 16.1 प्रतिशत दौलत थी, जो 2020 में बढ़कर 42.5 प्रतिशत पर पहुंच गई। भारत के शीर्ष के 10 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 74 प्रतिशत धन-दौलत है। दूसरी ओर निचली आधी आबादी सिर्फ़ 2.8 प्रतिशत पर गुज़ारा करती है।
यहां कोरोना की बात करना बहुत ज़रूरी है। 2020 कोरोना की पहली लहर के दौरान अरबपतियों की कुल दौलत में 3.7 ट्रिलियन का इज़ाफ़ा हुआ। इस दौरान 10 करोड़ लोग भयंकर ग़रीबी में धकेले गए। मध्य वर्ग, छोटे दुकानदार,किसानों के एक बड़े हिस्से का विस्थापन हुआ। यह वही वक़्त था,जब मेहनतकश आबादी को रोटी के लाले पड़े हुए थे। आम लोगों को मौत का डर दिखाकर घरों में बंद कर दिया गया था। यह तथ्य देखकर आसानी से ही जाना जा सकता है कि कोरोना से किसे लाभ हुआ?
पिछले 40 साल का वक़्त नवउदारवादी नीतियाें का रहा है। संसार-भर में धड़ल्ले से इन नीतियों को लागू किया गया। भारत में ये नीतियां 1991 में कांग्रेस सरकार ने पहली बार लागू कीं, हालांकि राजीव गांधी ने 1985 से ही खुली मंडी का शोर मचाना शुरू कर दिया था, लेकिन उसके बाद स्थिर सरकार ना होने के कारण यह 1991 में पूरी तरह लागू हो सकीं। मोदी सरकार भी इन्हीं नीतियों को और तेज़ी से लागू कर रही है। इन नीतियों के तहत मज़ूदरों के श्रम क़ानूनों में संशोधन करके उन्हें ख़त्म या बहुत कमज़ोर कर दिया गया है, ताकि पूंजीपतियों को श्रम की लूट करने में जो भी थोड़ी-बहुत क़ानूनी रुकावटें आती थीं, वे भी ख़त्म हो जाएं।
अर्थव्यवस्था में राज्य की दख़लअंदाज़ी को कम-से-कम करने के लिए राजकीय उद्योग, अस्पताल, रेलों आदि का निजीकरण किया गया। अमीरों को टैक्सों में भारी छूटें दी गईं। टैक्स का बोझ आम मेहनतकश आबादी और मध्य वर्ग पर डाला गया। राजकीय बैंकों को निजी हाथों में दिया गया। लोगों को मिलने वाली सब्सिडियां भी सरकार ने बंद कर दीं। सेहत, शिक्षा जैसी बुनियादी सहूलतों से भी सरकारों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए।
पूंजीपति मालिकों के लाखों-करोड़ों के क़र्ज़े माफ़ करके आम लोगों पर बोझ डाला गया। इस वक़्त तथाकथित अर्थशास्त्रियों ने ‘ट्रिकल डाउन’(नीचे की ओर रिसना) जैसे मूर्खतापूर्ण सिद्धांतों का खुलेआम प्रचार किया। ट्रिकल डाउन सिद्धांत के मुताबिक़ यदि अमीरों को टैक्सों, कर्ज़ों में छूटें दी जाएं तो इससे उनकी दौलत में इज़ाफ़ा होगा, जिसका लाभ रिस-रिसकर निचली मेहनतकश आबादी तक भी पहुँचेगा। अमीरों की दौलत में इज़ाफ़ा होने से रोज़गार बढ़ने, नए उद्योग लगाने और कुल देश की तरक़्क़ी होने के बड़े-बड़े दावे किए गए। भारत में ऐसे ही दावे मनमोहन सिंह जैसे “अर्थशास्त्रियों” ने किए।
आइए अब ज़रा ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत की असलीयत देखते हैं। 1995 से लेकर 2001 तक धरती के 50 सबसे अमीर लोगों की दौलत में सालाना 9 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ। 1995 से 2020 तक के 25 साल के समय में ऊपर के 1 प्रतिशत अमीरों ने दुनिया में पैदा हुई दौलत में से 38 प्रतिशत हिस्सा हड़प लिया, जबकि संसार की 50 प्रतिशत आबादी को सिर्फ़ 2 प्रतिशत हिस्सा मिला। साफ़ है ‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धांत ज़मीनी सच्चाइयों से दूर पूँजीपति शासकों के पालतू तथाकथित अर्थशास्त्रियों ने ही गढ़ा है।
पूंजीवादी व्यवस्था में अमीरों के पास इकट्ठा हुई दौलत असल में मेहनतकश आबादी से लूटा गया अतिरिक्त मूल्य है। यह सारी दौलत मेहनतकश वर्ग पैदा करता है, जिसे अमीर हड़प लेते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री (जो पूंजीपति वर्ग के हितों की नुमाइंदगी करते हैं) इस सच्चाई को उलटा बनाकर पेश करते हैं। एक ओर मुकेश अंबानी का घर “एंटिला” है, जो 400,000 वर्ग फ़ुट जगह पर बना हुआ है। इस घर में हैल्थ, क्लब, हैलीपेड, 21 लिफ़्ट,600 से ज़्यादा नौकर हैं। इस घर का बिजली का बिल ही 80 लाख से अधिक आता है। यह घर जितनी जगह पर बना हुआ है, उतनी जगह में हज़ारों ग़रीब झुग्गियों में रहते हैं, जबकि अंबानी के घर में केवल 6 लोग हैं। यह तो पूंजीवादी समाज की असमानता की एक छोटी-सी नज़ीर है। जब राजनेता मंच पर खड़े होकर देश की तरक़्क़ी के दावे करते हैं, तो वास्तव में वे पूंजीपतियों की तरक़्क़ी के दावे कर रहे होते हैं।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों के शासकों ने ‘कल्याणकारी राज्य’ की नीतियाँ अपनाईं। इन नीतियों के तहत लोगों को तात्कालिक तौर पर कुछ सहूलियतें दी गईं। मुफ़्त इलाज,मुफ़्त शिक्षा आदि से लोगों को शांत रखने की कोशिश की गई। पेंशन,सब्सिडियों आदि मिलने से कुछ हद तक लोगों का जीवन आसान हुआ। राजकीय उद्योगों में मेहनतकश आबादी के एक हिस्से को पक्का रोज़गार भी मिला।
निजी क्षेत्र में बड़ी पूंजी और टैक्स लगाए गए, कुछ हद तक मज़दूरों के लिए श्रम क़ानून लागू हुए, लेकिन यह सब पूंजीवादी शासकों की दरियादिली नहीं थी, बल्कि मज़दूर संघर्षों और मज़दूर आंदोलन के डर के कारण वे ये नीतियां लागू करने के लिए मजबूर हुए थे। 1980 आते-आते कल्याणकारी राज्य में पूंजीपतियों का दम घुटना शुरू हो गया था। मुनाफ़े की दर के कम होने के कारण पूंजीपति वर्ग को नई आर्थिक नीति की ज़रूरत महसूस हुई, जिसके कारण “नवउदारवाद” का जन्म हुआ, जिसके बाद पहले से ही मौजूद आर्थिक असमानता में अत्यधिक इज़ाफ़ा हुआ।
पूंजी का केंद्रीकरण सब सीमाएं लांघ गया है, जिसके कारण समाज का वर्गीय विभाजन और तीखा होता जा रहा है। मध्य वर्ग का दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। ग़रीब किसान,छोटे दुकानदार आदि बड़ी पूंजी के मुक़ाबले में टिक नहीं सकते जिससे ये तेज़ी से मज़दूर और अर्ध मज़दूर क़तारों में शामिल हो रहे हैं। ऐसे वक़्त में लोगों में लगातार बेचैनी बढ़ रही है। शासकों के लिए पुराने ढंग से राज करना मुश्किल होता जा रहा है। इसी कारण दुनिया-भर में दक्षिणपंथी और फासीवादी सरकारें सत्ता में आ रही हैं। इन दमनकारी सरकारों का एक मक़सद तो बढ़ती असमानता के कारण पैदा हुए जनाक्रोश को दबाना है। दूसरा और भी तेज़ी से नवउदारवादी नीतियों को लागू करके अपने आकाओं के मुनाफ़े बढ़ाना है,लेकिन लोग भी हर ज़ुल्म चुप करके नहीं सहते रहेंगे। दुनिया-भर में मेहनतकशों में आक्रोश बढ़ रहा है, जो विभिन्न रूपों में फूट रहा है।
यूरोप-अमेरिका ; पूँजीवादी व्यवस्था के स्वर्ग कहे जाते हैं, वहां भी इन नीतियों ने भयानक असमानता पैदा की है तथा वहाँ पर भी मेहनतकशों के बड़े आंदोलन उठ खड़े हुए हैं। बेरोज़गारी इन देशों में भयानक हिंसा भी पैदा कर रही है,इसका उदाहरण हम अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में देख रहे हैं। अभी हाल में श्रीलंका-केन्या जैसे तीसरी दुनिया के देशों में बढ़ती असमानता के ख़िलाफ़ बड़े आंदोलन खड़े हो गए। बांग्लादेश; जिसे तीसरी दुनिया की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है, वहां की हालत यह है कि 17 करोड़ युवा आबादी में 3 करोड़ 20 लाख युवा बेरोज़गार हैं।
ऐसी स्थिति में वहां पर सत्तारूढ़ ‘अवामी लीग पार्टी’ ने फ्रीडम फाइटर कोटा के नाम पर अपने समर्थकों को नौकरियों में आरक्षण दिया ,तो वहां युवाओं का बहुत बड़ा हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। नवउदारवादी नीतियों से पैदा हुई बेरोज़गारी के फलस्वरूप आज दुनिया भर के देश ऐसे ज्वालामुखी विस्फोटों के मुहाने पर बैठे हुए हैं। समस्या यह है कि नवउदारवादी नीतियों के विरोधी मेहनतकश वर्ग की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसे विस्फोटों के लिए समुचित तैयारी करती नज़र नहीं आ रही हैं।
हमारे देश का अमीर कितना आगे बढ़ रहा है इसका एक परिणाम देखिए । सरकार किसी भी दल की हो ये अमीर और अमीर होते जा रहे है गरीब बेचारा दर दर की ठोकरे खा रहा है । गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है और अमीर तेजी से अमीर हो रहा है. यह आर्थिक विषमता अब चिन्ताजनक स्थिति तक बढ़ गयी है और गणतंत्र का स्थान अमीरतंत्र ने ले लिया है. अशिक्षा, बेरोजगारी और बढ़ती मंहगाई ने गरीब की कमर तोड़ दी है। दुनिया से गरीबी खत्म करने के लिए काम करने वाली संस्था ऑक्सफेम की
जारी रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ में ये आंकड़े सामने आए हैं।
देश के 63 अरबपतियों की संपत्ति देश के एक साल के बजट से भी अधिक है। 2018-19 में देश का बजट 24 लाख 42 हजार 200 करोड़ रुपए था । फिर भी गरीबो को ही दबाया जाता है अमीरों को अभी भी हर सरकार आंखों पर बैठाती है । किसान को ही देख लीजिए उसकी प्याज की फसल आती है तो सिर्फ 5 रु. किलो का भाव रहता है किसान की लागत तक नही निकलती उसी फसल को अमीर लोग स्टॉक कर लेते है जिसे सामान्य भाषा मे कालाबाजारी कहाँ जाता है फिर जब प्याज की कीमत 100 रु किलो होती है तो यह व्यापारी खूब धन कमाते है मेहनत करें किसान धन कमाए व्यापारी ओर यही व्यापारी फिर ब्याज का धंधा करके भी किसान मजदूर का खून चूसता है 10% पर पैसा चलाकर उसे बेइज्जत करके वसूल भी करता है । परेशान किसान आत्महत्या करता है और सरकार कहती फिरती है आय दोगुना करेंगे ?
देश के हजारों किसानों की जमीनें कर्जे पाटने में बिक चुकी हैं. हजारों किसानी छोड़कर दूसरे शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन चुके हैं. महानगरों में जाड़ा, गर्मी, बरसात रिक्शा खींच रहे हैं, अमीरों की गाड़ियां साफ कर रहे हैं या सड़क किनारे बने ढाबों में बरतन मांज रहे हैं, ताकि घर पर कुछ पैसा भेज सकें । ठंड में सड़क किनारे सोने को मोहताज लोगो कें लिए किसी सरकार के पास काम करने का कोई प्लान नही है । केवल दिखावा करो और वोट पाओ की राजनीति चरम पर है । शहरों में सुबह के वक्त जगह-जगह चौराहों पर जमा गरीबों की भीड़ को देखिए, जो सामने से गुजरने वाली हर मोटरगाड़ी को इस लालसा से ताकते हैं कि अभी यह उनके पास रुकेगी और ढाई सौ रुपये दिहाड़ी पर दिन भर के काम के वास्ते उन्हें ले जाएगी. इस भीड़ को हर दिन काम भी नहीं मिलता, कुछ ही खुशनसीब होते हैं जो दिहाड़ी पर ले जाए जाते हैं, बाकि दिन भर काम की बाट जोहते शाम को खाली हाथ ही लौटते हैं । गरीबों की कीमत पर बढ़ती अमीरी-गरीबी निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गई है। आधुनिक आर्थिक अवधारणा विषमता को बढ़ने से रोकने में सफल नहीं हो पाई है। गरीबी नियंत्रण के लिए सरकार को कुछ त्वरित कदम उठाने होंगे जैसे ग्रामीण अर्थव्यस्था की मजबूती के लिए,पशुपालन और कृषि में तकनीकी सुधार के साथ सुविधाएं और प्रोत्साहन देना होगा। स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि की जानी चाहिए। गांवो को स्वरोजगार केंद्र के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। अधिक से अधिक महिलाओं को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने होंगे।
गरीब की थाली से गायब होता सकुन -:
आज देश की आधी सम्पत्ति देश के नौ अमीरों की तिजोरियों में बंद है और दूसरी ओर गरीब की थाली में मुट्ठी भर चावल भी बमुश्किल दिखायी देता है. गरीबी हटाओ का नारा तो आजादी के समय से ही लोग सुनते रहे है लेकिन गरीबी हटाने के नाम की माला जपने वाले गरीबी के नाम पर राजनीति ही करते रहे है। यह दुर्भाग्य ही है आज हम न्यू इंडिया और स्मार्ट सिटी के सपने तो देख रहे है लेकिन आधी आबादी को गरीबी के दाग से नहीं बचा पा रहे है। विकास की वर्तमान प्रक्रिया के कारण एक तबके के पास हर तरह की विलासिता के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध है और दूसरी तरफ गरीब लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। भौतिकवादी प्रवृति के कारण अमीरों और गरीबों के बीच उपलब्ध संसाधनों का जो अंतर लगातार बढ़ रहा है उसमे एकरूपता लाने के लिए प्रयास नाकाफी है।
सन्दर्भ 🙁 ऑक्सफेम की
जारी रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ में ये आंकड़े)