उमेश चतुर्वेदी
नया साल चुनावों के लिहाज से तूफानी और अहम होने जा रहा है। आम चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो ही चुकी है। इसके साथ ही इस साल सात राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव तय हैं। आंध्र प्रदेश, अरुणाचल, ओडिशा, झारखंड, सिक्किम, महाराष्ट्र और हरियाणा की विधानसभाओं का चुनावी शंखनाद इसी साल होना है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समयसीमा को देखते हुए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा भी इसी साल बहाल हो सकती है। चाहे लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभाओं के, एक चीज कॉमन रहने वाली है। लोकलुभावन मुफ्तिया वायदों की भरमार इन चुनावों में रहने वाली है।
सत्ता केंद्रित नजरिया
वोट एक तरह से चुनावी फसल हो चुका है, जिसकी भरपूर पैदावार के लिए राजनीतिक दल लोकलुभावन वायदों की खाद का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। अजीब बात यह है कि हर दल मुफ्तिया वायदों को राज्यों की बदहाल आर्थिक सेहत का जिम्मेदार मान चुका है, लेकिन सत्ता के मोह में वे ऐसे वायदों के ऐलान से खुद को रोक नहीं पाते।
आर्थिक बोझ
ये दल भूल जाते हैं कि लोकलुभावन वायदों को पूरा करना आने वाले दिनों में मुश्किल साबित होगा। इससे राज्य की आर्थिक सेहत खराब होगी और आखिरकार उसकी कीमत वोटरों को ही चुकानी पड़ेगी।
तर्क और वितर्क
पिछले कुछ चुनावों से BJP मुफ्तिया वायदों का विरोध कर रही है। हालांकि दूसरे दलों को मुफ्तखोरी पर लगाम लगाने का उसका तर्क रुच नहीं रहा। विपक्षी दलों की दलील है कि अगर अस्सी करोड़ लोगों को BJP सरकार मुफ्त राशन दे, किसानों को सम्मान निधि दे या वक्त-बेवक्त जन-धन खातों में महिलाओं को सम्मान राशि दे तो उसे गारंटी क्यों माना जाए, उसे लोकलुभावन मुफ्तखोरी क्यों न माना जाए? ध्यान रहे, BJP इसे गारंटी बताती है।
क्या है सच
भले ही चुनावी गारंटी से राज्यों की आर्थिक सेहत खराब हो रही हो, लेकिन इनके जरिए सत्ता हासिल करते ही पार्टियां इसे राज्य की लोककल्याणकारी भूमिका का विस्तार बताने लगते हैं। दिलचस्प है कि लोककल्याणकारी मानने के बावजूद ऑफ द रेकॉर्ड इस मुफ्तखोरी को ये दल भी आर्थिक सेहत के लिए मुफीद नहीं मानते।
5 राज्यों की निशानदेही
इसकी तस्दीक रिजर्व बैंक की साल 2022 में आई एक रिपोर्ट भी करती है। रिजर्व बैंक ने राज्यों की आर्थिक सेहत को लेकर ‘स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिस’ नाम से रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पांच राज्यों – पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल – की आर्थिक हालत लगातार खराब होती जा रही है।
सबसिडी में बढ़ोतरी
CAG के आंकड़ों के हवाले से तैयार इस रिपोर्ट में रिजर्व बैंक ने बताया कि लोकलुभावन वायदों को पूरा करने के चलते राज्यों का सबसिडी पर खर्च लगातार बढ़ रहा है। साल 2020-21 में राज्यों ने अपने कुल खर्च का करीब 11.2 प्रतिशत सबसिडी पर किया था, जो साल 2021-22 में बढ़कर 12.9 प्रतिशत हो गया। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि झारखंड, केरल, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में यह खर्च बढ़ा है।
मुफ्त बिजली, पानी, यात्रा
गुजरात, पंजाब और छत्तीसगढ़ ने अपने राजस्व खर्च का दसवें से कुछ ज्यादा हिस्सा अकेले सबसिडी पर खर्च किया है। मुफ्त बिजली, पानी, यात्रा, बिल और कर्ज माफी जैसे मदों में जो खर्च हो रहा है, उसके बदले में राज्यों को कोई आर्थिक फायदा नहीं हो रहा।
बढ़ रहा चलन
पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने तकरीबन मुफ्त बिजली, पानी और महिला बस यात्रा का जो मॉडल पेश किया है, उसे तकरीबन सभी गैर-बीजेपी सरकारें अपनाती जा रही हैं। कर्नाटक, हिमाचल और अब तेलंगाना में कांग्रेस भी ऐसे ही कदम उठा रही है।
पंजाब, राजस्थान का हाल
पंजाब रोडवेज और बिजली विभाग की हालत खस्ता है। प्रति व्यक्ति कर्ज के हिसाब से पंजाब देश का सबसे बड़ा कर्जदार राज्य बन चुका है। उस पर कुल तीन लाख 27 हजार करोड़ का कर्ज है। पंजाब का कुल कर्ज कुल GDP का तकरीबन आधा हो चुका है। कर्जदार राज्यों की लिस्ट में राजस्थान दूसरे स्थान पर है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2022-23 के दौरान राजस्थान का कुल कर्ज पांच लाख करोड़ से ऊपर हो गया है।
घाटा बढ़ेगा
कर्ज के मामले में तीसरे नंबर पर बिहार है। सस्ती गैस, महिलाओं को सम्मान राशि आदि गारंटियों को पूरा करने के लिए मध्य प्रदेश पर भी दबाव बढ़ना ही है। मध्य प्रदेश पर 3.31 लाख करोड़ का कर्ज है। इसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस अपने घोषित गारंटियों को पूरा करने में लगी है, जिन पर अनुमान है कि पांच साल में राज्य को साठ हजार करोड़ खर्च करने पड़ेंगे। इससे राज्य का राजस्व घाटा बढ़कर एक लाख 14 हजार करोड़ रुपये होने का अनुमान है।
आंध्र सबसे आगे
आंध्र प्रदेश की कुल बकाया देनदारियां चार लाख 42 हजार 442 करोड़ रुपये हैं। इसके बावजूद, लोकलुभावन योजनाओं पर खर्च करने में पहले नंबर पर आंध्र ही है। इन योजनाओं पर उसका सालाना खर्च करीब 27, 541 करोड़ रुपये है। इसके बाद 21 हजार करोड़ खर्च के साथ मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर है, जबकि पंजाब सत्रह हजार करोड़ खर्च कर रहा है।
लोकहित में सोचें
क्या इस नए चुनावी साल में राजनीतिक दल ऐसे संकल्प ले सकते हैं कि वे मिलकर फ्रीबीज यानी मुफ्तखोरी के वायदों से बचेंगे? वे लोकलुभावन वायदों के बजाय ठोस रणनीति और नीतियों की बुनियाद पर चुनाव लड़ेंगे और जनसमर्थन हासिल करने का ठोस कदम उठाएंगे? दीर्घकालीन लोकहित में आज नहीं तो कल उन्हें ऐसा करना ही होगा।