काल के प्रवाह में विचारों की लहरें उठती-बैठती रहीं, कुछ किनारे लगे, कुछ बीच धार में विलीन हो गए। पर जो प्रश्न उठे, वे शाश्वत रहे-समाज की संरचना, शक्ति का संतुलन और मनुष्य के अधिकार। जो सतह पर दिखता है, वह मात्र धूप-छांव का खेल है। असली परिवर्तन गहरे जल में घटता है, जहां विचारों की टकराहट से लहरें उठती हैं।कभी अंधेरे ने इन्हें निगलने की कोशिश की, परंतु सत्य की मशाल बुझी नहीं। हर युग में किसी न किसी ने आगे बढ़कर विचारों की इस विरासत को जीवंत रखा। प्रश्न यह नहीं कि कौन इसे रोकने का प्रयास करता है, प्रश्न यह है कि कौन इसे दिशा देता है। इतिहास साक्षी है-जो विचार जीवन से जुड़े हैं, जो न्याय के पक्ष में खड़े हैं, वे मिटते नहीं, वे समय के गर्भ से पुनः जन्म लेते हैं।
मनोज अभिज्ञान
एक समय था जब जर्मनी दुनिया के लिए आर्थिक स्थिरता और राजनीतिक सूझबूझ का प्रतीक था। उसने न केवल वैश्विक आर्थिक संकटों को झेला, बल्कि उनकी छाया में भी प्रगति की। चीन के बढ़ते प्रभाव के बावजूद, उसकी अर्थव्यवस्था फल-फूल रही थी।
संतुलित अर्थव्यवस्था और राजनीति ने इसे बाकी दुनिया से अलग पहचान दी थी। लेकिन आज वही जर्मनी आर्थिक संकट के दलदल में फंसा हुआ है। उसका मॉडल चरमरा चुका है, आत्मविश्वास टूट चुका है और राजनीतिक परिदृश्य बिखर चुका है।
बीते दो वर्षों से उसकी अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है। कोविड-19 महामारी के बाद जो भी सुधार हुआ था, वह अब लगभग मिट चुका है। औद्योगिक उत्पादन में 10% की गिरावट आई है और कंपनियां लागत बढ़ने और निर्यात घटने के कारण हजारों नौकरियों में कटौती कर रही हैं। इस राजनीतिक अस्थिरता का नतीजा आगामी संसदीय चुनावों में देखने को मिल सकता है, जहां दक्षिणपंथी ताकतों को बढ़त मिलने की संभावना है और केंद्र की पार्टियां स्थिर सरकार बनाने के लिए संघर्ष कर सकती हैं।
इस संकट के पीछे कई बाहरी कारण हैं, जैसे कि यूक्रेन युद्ध, अमेरिकी संरक्षणवाद और चीन की धीमी होती अर्थव्यवस्था। लेकिन कुछ विश्लेषकों का मानना है कि जर्मनी ने अपनी नीतियों को बदलने में देरी की, जिसके चलते यह स्थिति आई। परिवर्तन की बजाय यथास्थिति को बनाए रखना, सक्रिय कदम उठाने के बजाय प्रतिक्रिया देना और जोखिम से बचने की प्रवृत्ति ने जर्मनी को कमजोर कर दिया।
जर्मनी हमेशा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अग्रणी रहा है। उसने अपनी पहली नवीकरणीय ऊर्जा नीति 25 साल पहले लागू की और 2045 तक ग्रीनहाउस गैस-न्यूट्रल बनने का लक्ष्य रखा। 2023 में उसके कार्बन उत्सर्जन में 1990 के मुकाबले 60% की गिरावट दर्ज की गई, लेकिन इसका मुख्य कारण आर्थिक मंदी था, न कि प्रभावी पर्यावरण नीतियां। 2000 के दशक में जर्मनी ने परमाणु ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से हटाने का निर्णय लिया।
लेकिन 2011 में जापान के फुकुशिमा परमाणु हादसे के बाद तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल ने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया। इससे देश को जीवाश्म ईंधन पर अधिक निर्भर होना पड़ा, जिसमें कोयला और रूस से आयातित प्राकृतिक गैस शामिल थी।
अमेरिका और यूरोपीय देशों ने जर्मनी को पहले ही आगाह किया था कि वह रूस पर अत्यधिक निर्भर हो रहा है। फिर भी 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया, तब भी जर्मनी ने अपनी ऊर्जा नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया। 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया और गैस आपूर्ति सीमित कर दी, तब जाकर जर्मनी को अपनी ऊर्जा नीतियों की विफलता का अहसास हुआ।
इसके बावजूद, जर्मनी ने अपने परमाणु संयंत्रों को पूरी तरह बंद कर दिया, जिससे ऊर्जा संकट और बढ़ गया। अप्रैल 2023 में जब तीन अंतिम परमाणु संयंत्रों को भी बंद किया गया, तब देश पहले से ही आर्थिक गिरावट के दौर से गुजर रहा था। इस निर्णय ने उद्योगों पर अतिरिक्त दबाव डाला और उत्पादन लागत बढ़ा दी।
2015 में जब सीरिया और अन्य मध्य-पूर्वी देशों से बड़ी संख्या में शरणार्थी यूरोप की ओर बढ़ रहे थे, तब जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने जर्मनी की सीमाएं खुली रखने का निर्णय लिया। उस समय यह कदम मानवीय दृष्टिकोण से तो सराहनीय लगा, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह निर्णय विवादास्पद साबित हुआ।
जैसे-जैसे अधिक प्रवासी आए, जनमत बदलने लगा। दक्षिणपंथी दलों, विशेष रूप से ‘ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (AfD), को अप्रत्याशित समर्थन मिलने लगा। सरकारों ने धीरे-धीरे प्रवासन नीतियों में सख्ती लाने की कोशिश की, लेकिन इनका प्रभाव सीमित रहा।
वर्षों से जर्मनी ने कई सामाजिक और आर्थिक संकटों का सामना किया है, परंतु इस बार की परिस्थिति कुछ अलग और अधिक चुनौतीपूर्ण प्रतीत होती है। 2015 में तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल ने जब शरणार्थियों के लिए अपने देश के द्वार खोल दिए थे, तब से लाखों प्रवासी जर्मनी में आ चुके हैं।
वर्तमान में लगभग 2.5 मिलियन शरणार्थी जर्मनी में निवास कर रहे हैं, जिसमें एक मिलियन यूक्रेनी शरणार्थी भी शामिल हैं, जो 2022 में रूस के आक्रमण के बाद वहां पहुंचे। हालांकि, अब स्थिति बदल गई है। जर्मन नागरिक प्रवासियों के कल्याण पर होने वाले भारी सरकारी खर्च, सार्वजनिक सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव और संभावित आतंकवादी हमलों से चिंतित हैं।
जनवरी में अस्चाफेनबर्ग में हुए हमले ने इस चुनावी माहौल में अप्रत्याशित भूचाल ला दिया। एक अफगानी प्रवासी द्वारा किए गए इस हमले में एक बच्चे समेत दो लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हुए। हमलावर मानसिक रूप से अस्वस्थ था और उसका आपराधिक रिकॉर्ड भी था।
यह घटना दूर-दराज के मतदाताओं के लिए भी ज्वलंत मुद्दा बन गई, जिससे चरम दक्षिणपंथी पार्टी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (AfD) को बढ़त मिलने की संभावना थी। हालांकि, मध्य-दक्षिणपंथी ‘क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन’ (CDU) के नेता फ्रेडरिक मर्ज़ ने इसे अपने पक्ष में करने की कोशिश की और सीमाओं पर कड़े नियंत्रण की नीति अपनाने का प्रस्ताव रखा।
राजनीतिक रूप से यह कदम CDU को AfD से अलग रखते हुए मतदाताओं को आकर्षित करने की रणनीति थी। हालांकि, वामपंथी दलों और CDU के भीतर कुछ सदस्यों ने इस कदम की आलोचना की, यह कहते हुए कि इससे AfD को अप्रत्यक्ष रूप से वैधता मिल सकती है।
जर्मनी की राजनीति का एक बड़ा संकट यह भी है कि मुख्यधारा की पार्टियां AfD को अलग-थलग रखने के लिए किसी भी नीतिगत सुधार पर ध्यान नहीं देतीं, भले ही वह सुधार आम जनता की मांग के अनुरूप हो। इससे मतदाताओं को अपनी प्राथमिकताओं के लिए केवल AfD ही एकमात्र विकल्प के रूप में दिखाई देता है।
आर्थिक मोर्चे पर भी स्थिति गंभीर है। देश में तेजी से हो रहे औद्योगिक पतन ने लाखों नौकरियों को खतरे में डाल दिया है। 2021 से औद्योगिक उत्पादन में लगभग 10% की गिरावट आई है, जबकि ऊर्जा-आधारित उद्योगों में यह गिरावट 20% तक पहुंच चुकी है।
जर्मनी की हरित ऊर्जा नीति और नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार माने जा रहे हैं। ऊर्जा लागत अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका की तुलना में काफी अधिक हो गई है, जिससे स्टील, रसायन, सिरेमिक और उच्च तकनीकी निर्माण जैसे प्रमुख उद्योग प्रभावित हुए हैं।
व्यापारिक संगठनों का मानना है कि ऊंची ऊर्जा लागत के अलावा अत्यधिक सरकारी नियम-कानून भी आर्थिक पतन का एक बड़ा कारण हैं। 2019 से 2024 के बीच यूरोपीय संघ ने 13,000 नए कानून और नियम पारित किए, जबकि अमेरिका ने मात्र 5,500। यह अत्यधिक नियमबद्धता जर्मनी की प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर रही है।
कर-प्रणाली भी समस्या का हिस्सा है। 29.9% की औसत कॉर्पोरेट कर दर के साथ, जर्मनी यूरोप में तीसरे स्थान पर है। इससे निवेशकों के लिए देश को कम आकर्षक बना दिया गया है। इसके अलावा, रूस से बढ़ते खतरे और अमेरिका के सैन्य दबाव के कारण बढ़े हुए रक्षा खर्च ने भी वित्तीय संकट को और गहरा कर दिया है।
इस चुनाव से बड़ी नीतिगत समस्याओं का समाधान होने की उम्मीद नहीं की जा रही है। CDU नेता मर्ज़ आर्थिक संकट को समझते हैं और कर सुधारों के साथ हरित एजेंडे में कुछ बदलाव लाने की बात कर रहे हैं। लेकिन उनकी पार्टी के भीतर कई नेता अभी भी मर्केल के संतुलित लेकिन अस्पष्ट दृष्टिकोण के प्रति वफादार हैं।
लिबरल ‘फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी’ (FDP) के नेता और पूर्व वित्त मंत्री क्रिश्चियन लिंडनर भी आर्थिक सुधारों की बात कर रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी इतनी अलोकप्रिय हो गई है कि शायद वह संसद में सीटें भी न जीत पाए। सबसे बड़ी समस्या यह है कि मध्य-दक्षिणपंथी गठबंधन बनाना लगभग असंभव हो गया है।
AfD के साथ किसी भी तरह का गठबंधन CDU के लिए अस्वीकार्य है, जिससे दक्षिणपंथी वोट दो हिस्सों में बंट गया है। CDU लगभग 30% समर्थन के साथ पहले स्थान पर है, जबकि AfD 20% पर बनी हुई है। SPD और ग्रीन्स क्रमशः 15% और 14% पर हैं। देखना दिलचस्प होगा कि ऊंट किस करवट बैठता है।
काल के प्रवाह में विचारों की लहरें उठती-बैठती रहीं, कुछ किनारे लगे, कुछ बीच धार में विलीन हो गए। पर जो प्रश्न उठे, वे शाश्वत रहे-समाज की संरचना, शक्ति का संतुलन और मनुष्य के अधिकार। जो सतह पर दिखता है, वह मात्र धूप-छांव का खेल है। असली परिवर्तन गहरे जल में घटता है, जहां विचारों की टकराहट से लहरें उठती हैं।कभी अंधेरे ने इन्हें निगलने की कोशिश की, परंतु सत्य की मशाल बुझी नहीं। हर युग में किसी न किसी ने आगे बढ़कर विचारों की इस विरासत को जीवंत रखा। प्रश्न यह नहीं कि कौन इसे रोकने का प्रयास करता है, प्रश्न यह है कि कौन इसे दिशा देता है। इतिहास साक्षी है-जो विचार जीवन से जुड़े हैं, जो न्याय के पक्ष में खड़े हैं, वे मिटते नहीं, वे समय के गर्भ से पुनः जन्म लेते हैं।