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पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से देश की राजनीति के नए व्याकरण की शुरुआत होगी

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पंकज शर्मा

पांच राज्यों के चुनाव में, और जो भी हो, भारतीय जनता पार्टी की मनोकामनाएं पूरी होती दिखाई नहीं दे रही हैं। जिन्हें इस बात में सुख मिलता हो कि पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में कांग्रेस को ख़ुद तो कोई ज़्यादा फ़ायदा नहीं होगा; वे फ़िलहाल इस गुदगुदी की गिलगिलाहट का मज़ा लेते रहें। मगर इतना तय है कि दो मई को आने वाले 814 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव नतीजों से देश की केंद्रीय राजनीति के नए व्याकरण की शुरुआत होगी। एक ऐसे व्याकरण की, जो मौजूदा केंद्र सरकार की संरचना में आमूल बदलाव की इबारत देश के माथे पर स्थाई तौर पर चस्पा कर देगा।

2016 के चुनाव में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस 294 में से 293 सीटों पर लड़ी थी और उसने 211 जगह जीत हासिल की थी। कांग्रेस 92 सीटों पर लड़ी थी और 44 जगह जीती थी। वाम दलों ने 203 निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ा था और 32 सीटें जीती थीं। भाजपा 291 सीटों पर लड़ी थी और सिर्फ़ 3 पर जीत पाई थी। बंगाल में ‘असली परिवर्तन’ लाने के लिए दिन-रात एक कर रहे नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह दावों के ऐसे उस्ताद हैं कि यूं तो इस बार पूरी दो सौ सीटें जीतने के आसार बुलंद करते घूम रहे हैं, मगर ज़मीनी हालात वे भी अच्छी तरह जानते हैं।

भाजपा ने चुनावी हवा को उछाल देने के लिए यह तर्क डेढ़ साल पहले ही गढ़ लिया था कि चूंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान वह बंगाल में विधानसभा की 122 सीटों पर आगे रही है, इसलिए 2021 के प्रादेशिक चुनाव में उसके पास इतनी सीटें तो पहले से ही हैं और 70-80 अतिरिक्त सीटें जुटा लेना उसके लिए कौन-सी बड़ी बात है? मगर इस तर्क का थोथापन भी भाजपा को मन-ही-मन शुरू से मालूम है। उसके चुनावी नीम को आयातित उम्मीदवारों के करेले ने और भी कड़वा कर दिया है। हर चरण के प्रत्याशियों की सूची के साथ भाजपा के भीतर बग़ावती माहौल गहराता जा रहा है।

बंगाल के ताज़ा राजनीतिक समीकरणों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अंतर-तरंगों, सार्वजनिक गठबंधनों और एक-सी सोच रखने वालें दलों में आपस के अनौपचारिक तालमेल की धार इतनी पैनी हो गई है कि भाजपा को अपना घर संभालना भारी पड़ रहा है। गांव-गांव घूम रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दस्ते अपने मुख्यालय को जो दैनिक रपट भेज रहे हैं, उसके मुताबिक बंगाल में भाजपा तीन दर्जन के आसपास ही सीटें जीतने की स्थिति में है।

असम में भी भाजपा तेज़ ढलान पर लुढ़क रही है। 2016 के चुनाव में वह 126 में से 84 सीटें लड़ी थी और 60 जीतने का अभूतपूर्व करतब उसने दिखा डाला था। कांग्रेस 122 जगह लड़ी थी और 26 जगह ही जीत पाई थी। बदरुद्दीन अज़मल के आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने 13, असम गण परिषद ने 14 और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने 12 सीटें जीती थीं। असम में इस बार का चुनाव भाजपा के लिए पिछली बार की तरह मखमली गलीचा नहीं है। पांच साल में ब्रह्मपुत्र के जल ने अपना रंग काफी बदल लिया है। सो, भाजपा के आकलनकर्ताओं को भी उनकी पार्टी का आंकड़ा 20-22 के आसपास सिमटता नज़र आ रहा है।

234 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा का रंग-रोगन जयललिता के बाद से इतनी बार उतर-चढ़-उतर चुका है कि भाजपा के सारे दूर-नियंत्रक यंत्र इस बार के चुनाव में नाकारा साबित हो रहे हैं। 2016 में जयललिता की अन्नाद्रमुक ने 136 सीटें जीती थीं। द्रमुक को 89 सीटें मिली थीं। कांग्रेस 41 जगह लड़ कर सिर्फ़ 8 जगह जीत पाई थी। भाजपा ने सभी सीटो पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, मगर जीता कोई नहीं था। जयललिता की अनुपस्थिति से बने हालात अपने पक्ष में मोड़ने का प्रपंच रचने में भाजपा ने चार साल से कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है, लेकिन तमिलनाडु है कि नरेंद्र भाई की झोली में, सीधे तो क्या, घुमा-फिरा कर भी, गिरने को तैयार ही नहीं हो रहा है। इसलिए भाजपा को अपना शून्य फिर दोहराएगी ही, उसके मित्र-दलों को भी इक्कादुक्का निर्वाचन क्षेत्रों में पैर रखने की जगह मिल जाए तो बड़ी बात होगी।

केरल के विपत्तू, मपिलापत्तू और वडकनपत्तू की लोक-धुनें भी इस बार पूरी तरह बदली हुई हैं। 2016 में वाम मोर्चें और उसके सहयोगी दलों को 140 में से 91 सीटें मिली थीं। कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त मोर्चे ने 47 सीटें हासिल की थीं। भाजपा को सिर्फ़ एक सीट मिली थी और उसके सहयोगी दलों को एक भी नहीं। एक बार वाम मोर्चे और एक बार संयुक्त मोर्चे को मौक़ा देने की क्रमवार परंपरा निभाने वाले केरल में इस बार संयुक्त मोर्चे की बारी है। वायनाड से राहुल गांधी के सांसद बनने के बाद से केरल की कांग्रेस पार्टी पर यह नैतिक बोझ बढ़ गया है कि वह, मन मार कर ही सही, एकजुट रहे और राज्य में अपनी सरकार बना कर दिखाए। सरकार न बनने की कीमत ऐसे-ऐसों को चुकानी पड़ेगी कि उनमें से कोई भी किसी भी तरह का जोख़िम लेने को तैयार नहीं है। बावजूद हर कोशिश के, केरल में भाजपा जैसी थी, वैसी ही है। वाम-दल हर तरह की बदनामी झेल रहे हैं। सो, संयुक्त मोर्चे की सरकार बनना तय है।

’मोशा’ की हाथ की सफ़ाई के ताज़ा शिकार बने पुदुचेरी की 30 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने 2016 के चुनाव में 21 लड़ी थीं और 15 जीती थीं। भाजपा सभी 30 सीटों पर लड़ने के बावजूद शून्य पर रही थी। इधर चुनाव ख़त्म हुए और उधर नरेंद्र भाई मोदी ने किरण बेदी को पुदुचेरी का उपराज्यपाल बना कर भेज दिया था। तब से पिछले महीने की 16 तारीख़ को अपनी विदाई तक बेदी न ख़ुद चैन से बैठीं, न कांग्रेसी मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी को चैन लेने दिया। उनके धतकर्मों से भाजपा की ज़मीन कितनी उपजाऊ हुई, इस बार के चुनाव यह बता देंगे। पुदुचेरी के संकेत भी उन दलों के पक्ष में जाते दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनसे भाजपा को अपने लिए आगे-पीछे कोई आस बंधे।

अलग-अलग आकलन समूहों द्वारा पांच राज्यों की 814 सीटों को ले कर किए जा रहे विश्लेषणों से सामने आ रहे आंकड़े अब तक जो बता रहे हैं, वह यह है कि भाजपा को पश्चिम बंगाल में 34, असम में 29 और तमिलनाडु, केरल तथा पुदुचेरी में, तुक़्का लगा तो, एकाध-एकाध ही कोई सीट शायद मिले। यानी इन विधानसभा चुनावों में भाजपा सब मिला कर 65-70 सीटों की गिनती पार नहीं कर रही है।

सो, कांग्रेस की स्वयमेव हालत को परे रखिए और यह देखिए कि भाजपा की स्वयमेव हालत इन पांच राज्यों में कैसी है? महत्वपूर्ण यह भी है कि कांग्रेस के सहयोगी दल इन चुनावों में भाजपा के सहयोगी दलों से कहीं आगे हैं और तकनीकी तौर पर फ़िलवक़्त कांग्रेस-भाजपा से समान दूरी रखने वाली ममता बनर्जी उनके खि़लाफ़ इस्तेमाल हो रहे हथकंडों की आग का दरिया पार कर अपनी सरकार दोबारा बना रही हैं। सात साल से दनदनाती घूम रही भाजपा के हंटर-राज में इतना भी क्या कोई कम है?

(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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