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शरीर का अंत लड़ाई का अंत थोड़े ही होता है?

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प्रणव प्रियदर्शी
नवासी के आखिर या नब्बे के शुरुआती महीनों की बात है। एक शनिवार दूरदर्शन पर 1984 में बनी फिल्म ‘अंधी गली’ प्रसारित हुई। बर्लिन वॉल गिरने की घटना के बाद वाले माहौल में नक्सल पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कॉलेज के हमारे दोस्तों में चर्चा का विषय बनी थी। तब एक करीबी दोस्त ने अपने चाचा के हवाले से कहा कि नक्सली तो हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। सही या गलत के रूप में नक्सलवाद की आलोचना तो मैं सुनता रहा था, लेकिन हार या जीत के टर्म में उसका आकलन पहली बार मेरे सामने आया था। सो, बात ठहर गई मन में। कुछ सालों बाद जब मैं मुंबई में था तो ठीक यही बात, दिल्ली से आए एक पत्रकार मित्र ने मेरे परिचित कुछ कार्यकर्ताओं के बारे में कही थी। यह जानकर कि वे वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) का विरोध कर रहे हैं, मित्र ने कहा, ‘ये लोग हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार फैसला कर चुकी है, वैश्वीकरण का चक्का तो अब रुकने वाला नहीं है। अपने मित्रों से कहो, टाइम वेस्ट न करें। अपनी ऊर्जा किसी दूसरे मुद्दे में लगाएं।’

उस मित्र के शार्प ऑब्जर्वेशन और हालात की दशा-दिशा की पक्की समझ का मैं उस समय भी कायल था। जो बात खटकी वह उनकी समझ से नहीं बल्कि उनके मूल्यबोध से जुड़ी थी। वैश्वीकरण पर उनकी अलग समझ हो और वे उन कार्यकर्ताओं के स्टैंड से सहमत न हों, यह तो ठीक है। लेकिन वे कार्यकर्ता इसलिए गलत हैं क्योंकि सरकार नहीं मानेगी, यह बात कुछ हजम नहीं हो पा रही थी। हारी हुई लड़ाई वाला पहली बार सुना जुमला इस दूसरी बार के जिक्र के बाद मन को मथने की स्थिति में आ गया था। मित्र तो अगली सुबह फ्लाइट से दिल्ली लौट गए, मैं ‘हारी हुई लड़ाई’ की गुत्थी में ऐसा उलझा कि निकलना मुश्किल हो गया। नई-नई शक्लों में यह सवाल बार-बार सामने आता रहता। कुछ समय बाद यही बात उन कार्यकर्ताओं को बताई तो वे ठठाकर हंस पड़े। उनमें से एक ने कहा, ‘अपने दिल्ली वाले दोस्त को उनकी सलाह के लिए धन्यवाद कहना और हमारा यह सुझाव भी देना कि वह फिलहाल उस पक्ष के साथ बने रहें, जो उन्हें संभावित विजेता लगता है। हम अपने पक्ष को विजेता बनाने की कोशिश जारी रखते हैं। जैसे ही पलड़ा हमारी ओर झुकने लगेगा वे खुद हमारे पक्ष में आ खड़े होंगे। तब तक इंतजार करें।‘

इनके कॉन्फिडेंस ने ताकत दी। पर मन में सवाल बना रहा, अगर पलड़ा न झुका पाए तो? संयोग देखिए कि उसी रात सपने में सुकरात और गांधी दोनों आए। मुस्कुराते हुए पूछ रहे थे, ‘हमारी हारी हुई लड़ाइयों के बारे में तुम्हारे दोस्त की क्या राय है?’ मेरे मुंह से निकला, ‘आप हारे कहां? शरीर का अंत लड़ाई का अंत थोड़े ही होता है?’ ‘अच्छा?’ दोनों व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ मेरी ओर देख रहे थे कि आंख खुल गई।

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