शशिकांत गुप्ते
आज ही के दिन रामभगवान ने दैत्यों के राजा रावण का वध किया था।पौराणिक कथाओं पर विभिन्न विद्वानों ने व्याख्या की है।
इन विद्वानों का तर्क हो सकता है कि,रावण का वध कर रामभगवान ने रावण को राक्षस योनि से मुक्त किया था।
संभवतः रामभगवान रावण मुक्त लंका बनाना नहीं चाहतें होंगे?रामजी तो असुरी प्रवृत्ति से मुक्त लंका बनाना चाहतें होंगे?यह लेखक की कल्पना मात्र है।
कृष्ण भगवान ने कंस का वध किया था।त्रेता और द्वापरयुग में दुर्जनों का वध हुआ था।कलयुग में सुजनो की हत्या होती है।कलयुग में हत्या शब्द का प्रयोग दुर्जनों के लिए होता है।
कलयुग के पूर्व जितने भी युग हुए हैं,जैसा कि पौराणिक कथाओं में वर्णित है।हर युग में दुर्जनों के उत्पात बढ़ने पर भगवान अवतरित हुए हैं।अवतारवाद पर बहुत मतमतांतर है।इस बहस को दरकिनार ही रखतें हैं।
क्या कलयुग में अवतार सम्भव है?इनदिनों धार्मिक विषयों पर लिखने,बोलने,कहने,सुनने,और चर्चा करने के पूर्व दस बार सोचना अनिवार्य है।कारण आस्थावान लोगों की तादाद चक्रवर्ती ब्याज की तरह बढ़ती जा रही है।
सम्भवनाओं को सच मानते हुए कल्पना की जाए कि, कल्कि अवतार होगा?
क्या कल्कि अवतार दिव्यदृष्टि लेकर अवतरित होगा।
एक डर सता रहा है, कल्कि अवतार यदि कलयुगी मानसिकता के हूबहू मिलता जुलता ही अवतरित हुआ तो क्या होगा?कल्कि भगवान न्याय कर पाएंगे?
फ़िल्म गोपी में गीतकार राजेंद्रकृष्णजी द्वारा लिखे गीत की पंक्तियों में कही गई कल्पना क्या यथार्थ रुप में परिवर्तित होंगी?
सिया ने पूछे, “भगवन कलयुग में धर्म कर्म को कोई नहीं मानेगा?”
तो प्रभु बोले, “धरम भी होगा, करम भी होगा”
धरम भी होगा, करम भी होगा, लेकिन शर्म नहीं होगी
बात-बात में मात-पिता को बेटा आँख दिखाएगा
हंस चुगेगा दाना-दुनका, कौआ मोती खाएगा
जिसके हाथ में होगी लाठी, भैंस वही ले जाएगा
इसीतरह सन 1956 में प्रदर्शित फ़िल्म जागते रहो यह गीत भी प्रासंगिक है।गीतकार प्रेमधवनजी ने लिखा है।
दुनिया देवे दुहाई झूठा पांवदी शोर
अपने दिल ते पूछ के देखो कौन नहीं है चोर
ते कि मैं झूठ बोलया कोई ना
ते कि मैं कुफ़र तोलिया कोई ना
ते कि मैं ज़हर घोलिया कोई ना भई कोई ना भई कोई ना
हक़ दूजे दा मार-मार के बणदे लोग अमीर
मैं ऐनूं कहेंदा चोरी दुनिया कहंदी तक़दीर*
ते कि मैं झूठ बोलया …
ओ हट के भ्रा जी बच के
वेखे पंडित ज्ञानी ध्यानी दया-धर्म दे बन्दे
राम नाम जपदे खान्दे गौशाला दे चन्दे
ते कि मैं झूठ बोलया …
सच्चे फाँसी चढ़दे वेखे झूठा मौज उड़ाए
लोक कैहंदे रब दी माया मैं कहंदा अन्याय
ते कि मैं झूठ बोलया
गीतकार ने हरएक पंक्ति में पूछा है क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ।
यह साहस का कार्य साहित्यकार ही कर सकता है।
उपर्युक्त गीतों की पंक्तियां विजयादशमी के संदर्भ में प्रासंगिक लगी इसीलिए प्रेषित की है।
इन पंक्तियों के रचयिताओं का नाम लिख दिया है।वर्तमान व्यवस्था में स्पष्टीकरण अनिवार्य भी है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर