देश में राहुल गांधी ओबीसी, दलित और आदिवासियों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय की मांग को अपनी हर चुनावी सभा में उठा रहे हैं, जबकि दूसरी ओर कर्नाटक में इसी को आधार बनाकर राज्य विधानसभा की 224 सीटों में से 135 सीटें जीतकर भारी बहुमत से सरकार बनाने के बाद अब कांग्रेस के भीतर ही सामाजिक न्याय के विभिन्न पैरोकारों के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर संघर्ष तेज हो गया है।
मई में दूसरी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद पर आसीन सिद्धारमैया के लिए बम्पर जीत भी इस बार स्थायित्व की गारंटी नहीं दे पा रही है, क्योंकि राज्य में वोक्कालिगा ही नहीं बल्कि अब दलित समुदाय में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर भारी खींचतान के चलते अस्थिरता बनी हुई है।
राज्य में मुख्यमंत्री के तौर पर सिद्धारमैया खुद ओबीसी वर्ग में गड़ेरिया समुदाय से आते हैं, लेकिन पिछली जाति जनगणना की लीक हो चुकी रिपोर्ट में दलित आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक होने की खबर के बाद कांग्रेस के भीतर किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाये जाने की मांग अब तेज होती जा रही है।
दलित मुख्यमंत्री की मांग तेज
दलित मुख्यमंत्री की दौड़ में पुराने कांग्रेस नेता जी. परमेश्वर सबसे आगे बताये जा रहे हैं, लेकिन अब मैदान में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के मंत्री पुत्र प्रियांक खड़गे के आ जाने से मामला गर्म हो चुका है। नई पीढ़ी में प्रियांक खड़गे बेहद मुखर और बेबाक नजर आते हैं, और पार्टी अध्यक्ष के पुत्र होने के नाते भी उनका प्रभाव महसूस किया जा रहा है।
लेकिन उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार जिन्हें 2023 विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, और यह भी चर्चा थी कि सिद्धारमैया और उनके बीच ढाई-ढाई साल तक मुख्यमंत्री पद का समझौता हुआ है, और उन्हें फिलहाल राज्य में पार्टी के प्रभाव को विस्तारित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, के समर्थक इस घटनाक्रम से हतप्रभ हैं।
जैसा कि सभी जानते हैं कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने इस बार कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 20 पर जीत की उम्मीद लगा रखी है, और इसके लिए उन्हें एक बार फिर से डीके शिवकुमार की संसाधन क्षमता पर भरोसा जताया है।
राज्य में कांग्रेस को जुम्मा-जुम्मा 6 महीने ही पूरे हुए हैं कि एक बार फिर से नेतृत्व में बदलाव के लिए सुर उठने शुरू होने लगे हैं। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को मजबूर होकर अपने समर्थकों सहित असंतुष्ट लेकिन वफादारों के साथ डिनर डिप्लोमेसी में जाना पड़ रहा है। उधर डीके शिवकुमार को एक बार फिर से लग रहा है कि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण उन्हें एक बार फिर से शिकस्त का सामना करना पड़ सकता है।
बदलते घटनाक्रम से चिंतित कांग्रेस हाईकमान ने पार्टी के भीतर बढ़ते विरोध के स्वर को शांत करने के लिए दिल्ली से पिछले दिनों पार्टी के दो वरिष्ठतम नेताओं, रणदीप सुरजेवाला और केसी वेणुगोपाल को भेजा था, लेकिन कर्नाटक के घटनाक्रम पर बारीक निगाह रखने वालों के विचार में दलित मुख्यमंत्री की मांग करने वालों पर इसका खास असर नहीं पड़ा है।
कर्नाटक के 2015 के जाति जनगणना के आंकड़े लीक
यह मामला बिहार सरकार द्वारा जाति जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने के बाद तूल पकड़ा है, क्योंकि ऐसा कहा जा रहा है कि 2015 के जातिगत जनगणना के आंकड़ों के अनुसार राज्य में दलितों की आबादी अब 19.5% तक पहुंच चुकी है, और दलित समुदाय को लगता है कि इसके बावजूद उन्हें राज्य का नेतृत्व करने का अवसर नहीं दिया जा रहा है।
उधर लिंगायत और वोक्कालिगा की आबादी जो क्रमशः 14 और 11% थी, उसमें बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। इसके बावजूद पिछले 6 दशकों में लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय का राज्य में पूर्ण दबदबा रहा है, 24 में से 16 बार इन दो समुदायों से मुख्यमंत्री बनाये गये हैं।
जातिगत जनगणना के आंकड़े कर्नाटक में कब सार्वजनिक किये जायेंगे, इस बारे में कांग्रेस की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की गई है। लेकिन 2024 के चुनावों के लिए राहुल गांधी इसे अभी से सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर पेश कर रहे हैं, और उन्हें सुना भी जा रहा है। उन्होंने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी इस मुद्दे को बेहद प्रमुखता से उठाया है और इन राज्यों में जीत के बाद सबसे पहले इन राज्यों में जाति जनगणना कराये जाने का वादा किया है।
लेकिन कर्नाटक में सिद्धरमैया अपने पिछले कार्यकाल में ही जाति जनगणना के आंकड़ों को जारी करने से परहेज क्यों कर रहे थे, यह बात आज वहां के हालात को देखकर समझा जा सकता है।
कर्नाटक को विविध जाति समूहों वाले राज्य का दर्जा हासिल है, लेकिन इनमें से कुछ जातियां ही प्रभावशाली रही हैं, और राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन के लगभग सभी पहलुओं पर उनका गहरा प्रभाव रहा है। इनमें प्रमुख रूप से लिंगायत, वोक्कालिगा और कुरुबा जातियां हैं, जबकि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) में वाल्मिकी, नायक, होलेया, भोवी, बंजारा और मदीगा जैसे समुदाय हैं।
बेंगलुरु स्थित राजनीतिक विश्लेषक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) के नरेंद्र पाणि ने द प्रिंट को हाल ही में बताया था कि जातिगत आंकड़े जारी किये जाने का विरोध किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करने से कुछ समुदायों की वास्तविक संख्या को लेकर जो धारणा बनी हुई है, उस पर जबर्दस्त आघात लग सकता है। नरेंद्र पाणि के अनुसार, “(जाति जनगणना) से इस बात का खुलासा हो जायेगा कि प्रभुत्वशाली जातियां संख्यात्मक रूप से उतनी प्रभावी नहीं हैं जितना कि वे ऐसा होने का दावा करती हैं।”
सिद्धारमैया की राजनीति हमेशा से कर्नाटक में प्रभुत्वशाली जाति के सिद्धांत को चुनौती देती आई है, और इसके लिए उन्होंने पिछड़े वर्गों एवं अल्पसंख्यकों या AHINDA (अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और दलितों के लिए कन्नड़ में प्रयुक्त संक्षिप्त नाम) का नारा दिया था, और उन्हें एकजुट कर सत्ता की दहलीज तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की। लेकिन आज यही जातिगत आंकड़े दलित वर्ग की आकांक्षाओं को परवान देने के काम आ रहे हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जी. परमेश्वर ने राज्य में बहुमत हासिल होने के बाद ही दलित होने के नाते मुख्यमंत्री पद का दावा ठोंका था, हालांकि तब उनकी बात को अनसुना कर इस लड़ाई में सिद्दरामैय्या और डीके शिवकुमार गुट पर ही मीडिया और पार्टी ने ध्यान दिया था। लेकिन आज अगर जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती है तो पार्टी के भीतर ही नहीं बल्कि बाहर भी किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाये जाने को लेकर मांग तेज हो सकती है।
इसके अलावा, दलित दावेदारी की प्रतिद्वंदिता में अब वाल्मीकि समुदाय भी कूद पड़ा है। वाल्मीकि गुरुपीठ के स्वामी प्रसन्नानंद स्वामीजी ने पीडब्ल्यूडी मंत्री सतीश जरकिहोली के नाम को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया है। हालांकि कहा जा रहा है कि सतीश जरकिहोली ने संत के बयान को उनका व्यक्तिगत मत कहकर अपने दावे की बात पर विराम लगा दिया है।
भाजपा-जेडीएस गठबंधन: परंपरागत प्रतिद्वंदी समुदायों को साधने की कोशिश
उधर भाजपा-जेडीएस गठबंधन को कर्नाटक में लिंगायत-वोक्कालिगा एकजुटता की कवायद के रूप में देखा जा रहा है। कुमारस्वामी ने अपने बयान में डीके शिवकुमार (वोक्कालिगा) के मुख्यमंत्री बनाये जाने पर समर्थन देने का बयान जारी किया था, जिस पर शिवकुमार का कहना था कि पहले जेडीएस को भाजपा के साथ नाता तोड़ देना चाहिए, फिर ऐसा बयान देना चाहिए।
इधर भाजपा ने एक बार फिर से हारकर पूर्व भाजपा मुख्यमंत्री बीएस येद्दुरप्पा के बेटे बीवाई विजयेंद्र को राज्य भाजपा की कमान सौंप दी है जो एक बार फिर से विभाजित लिंगायत लॉबी को अपने पक्ष में करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
इस प्रकार से कहा जा सकता है कि उत्तर भारत में जहां भाजपा ने सवर्ण मतदाताओं के साथ-साथ ओबीसी एवं दलित वर्ग के बीच में भी अच्छीखासी पैठ बनाकर अपने आधार को काफी सशक्त बना लिया है, वहीं कर्नाटक में उसे प्रभुत्वशाली लेकिन राज्य में दावेदारी से दूर होती जा रही लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय को साथ लेकर आगे की राह तय करनी होगी।
विजयेंद्र ने पदभार ग्रहण करने के बाद घोषणा की है कि वे राष्ट्रीय भाजपा की झोली में लोकसभा की सभी 28 सीटों पर जीत दिलाकर अपना कर्यव्य निभाएंगे, लेकिन प्रदेश की वर्तमान संरचना इस दावे की पोल खोल रही है।
लेकिन इसी के साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने उद्घटित होता जा रहा है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने जिस प्रकार 90 के दशक में ओबीसी समुदाय में कुछ अगुआ तबकों के सामाजिक, राजनीतिक एवं कुछ हद तक आर्थिक आधार को मजबूत करने का काम किया था, इस बार जातिगत जनगणना से उन अतिपिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जाति एवं जनजातियों में उभार पैदा हो सकता है, जो जल्द ही ओबीसी और दलित-आदिवासियों में परंपरागत रूप से अगुआ तबकों की राजनीतिक विरासत को पीछे धकेल दे।
स्थापित पार्टियों द्वारा यदि इसे समायोजित करने में सफलता हासिल कर ली गई तो उनके पक्ष में विशाल जनसमर्थन हासिल हो सकता है, वरना नए सामाजिक-राजनीतिक समूह के उदय के रूप में यह परिघटना देश के सामने आ सकती है।
कांग्रेस की मुहिम की काट के लिए भाजपा में मंथन तेज
भाजपा भी इस पूरे घमासान में कोई मूक दर्शक बनकर नहीं बैठी है। 2014 और 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर और बड़े बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर आसीन होने की असली वजह से वाकिफ भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व में इसको लेकर गहन मंथन जारी है। पीएम नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य में दलितों की वंचित आबादी को संबोधित करते हुए सरकार बनाने पर उनके लिए विशेष पैकेज की बात कही है।
इसी प्रकार देश में विकास की दौड़ में अति पिछड़े आदिवासी समुदाय की भी सूची जारी कर उनके लिए 24,000 करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की घोषणा बताती है कि जल्द ही जाति जनगणना के आंकड़ों को लेकर अति-उत्साहित इंडिया गठबंधन और कांग्रेस के लिए भाजपा-आरएसएस नई काट तैयार करने में जुटी है।
पहचान की राजनीति की मुहिम के बीच कॉर्पोरेट की तेज होती सेंधमारी
लेकिन कर्नाटक में चल रहे घमासान को यदि राष्ट्रीय पैमाने पर उतारकर देखें तो हम पाएंगे कि यह जाति जनगणना के आंकड़ों को लेकर चल रहा राजनीतिक घमासान कुछ चंद लोगों की निजी महत्वाकांक्षा से अधिक कुछ नहीं है। देश में पिछड़ी जाति के पीएम और आदिवासी राष्ट्रपति और कैबिनेट में ओबीसी मंत्रियों के जमावड़े के होते हुए 75 वर्षों के आजादी के इतिहास में आम भारतीय सबसे बुरी तरह से कराह रहा है।
भारतीय कॉर्पोरेट और विदेशी पूंजी के लिए लूट के लिए सरकार ने सभी दरवाजे खोल दिए हैं। भाजपा ही नहीं वरन विपक्षी गठबंधन इंडिया के पास भी देश में बढ़ती विषमता को दूर करने के लिए कोई नीति नहीं है।
140 करोड़ लोगों को देने के लिए मोदी सरकार और विपक्ष के पास 1000 रुपये, सस्ता सिलिंडर या 5 किलो मुफ्त राशन जैसे तात्कालिक नारे हैं। हर पार्टी के लिए भारतीय नागरिक एक मतदाता से अधिक कुछ नहीं, जिसे 5 वर्ष में एक दिन के लिए लुभाकर अगले 5 सालों तक बड़ी पूंजी की सेवा में इस्तेमाल करना है। ऐसा नहीं होता तो किसी भी राजनीतिक दल ने अभी तक निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करने की बात क्यों नहीं की? 90% से अधिक नौकरियां तो अब निजी क्षेत्र के ही हाथों में हैं?
सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म करने में क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, कोई भी कम नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश के बड़े उद्यमियों के कुल उत्पादन क्षमता में तो बेहद मामूली या न के बराबर वृद्धि हुई है, लेकिन उनके मुनाफे में 40% तक का इजाफा आम देखा जा रहा है।
दूसरी तरफ, 80% कार्यशील श्रमशक्ति की क्रय शक्ति लगातार घट रही है, क्योंकि उनके वेतन की तुलना में देश में महंगाई की रफ्तार तेज है। देश में पिछले कुछ वर्षों से K-shape इकोनॉमी की बात तमाम अर्थशास्त्री कर रहे हैं, लेकिन विपक्ष के पास हिंदुत्व की काट के लिए जाति जनगणना का हथियार मिल गया है। लेकिन असल सवाल तो फिर वहीं रह जाता है कि इससे आखिर होगा क्या?