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भारत में विपक्ष जो लड़ाई लड़ रहा है वह लोगों के एक बड़े हिस्से की लड़ाई है

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अरुण कुमार त्रिपाठी

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 13 जुलाई 2023 को जिस समय एअर इंडिया वन के विमान से फ्रांस में उतर रहे थे उसी समय उसी देश के स्ट्रासवर्ग शहर में यूरोपीय संसद ने भारत सरकार के विरुद्ध एक प्रस्ताव पास किया। उस प्रस्ताव में कहा गया कि भारत सरकार सभी किस्म के धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिफाजत करे और यूरोपीय संघ भारत के साथ दोस्ती में मानवाधिकार को आवश्यक महत्त्व दे।

संसद में मणिपुर पर चर्चा हुई और यूरोपीय संसद के सदस्यों ने इस बात पर चिंता जताई कि भारत में लोकतंत्र, अल्पसंख्यकों और नागरिक अधिकारों से लिए जगह कम हो रही है। संसद ने मानवाधिकार और धार्मिक अधिकारों का मामला सार्वजनिक तौर पर उठाया।

संसद के प्रस्ताव में कहा गया कि यूरोपीय संघ और भारत की साझेदारी में हर मोर्चे पर मानवाधिकार कायम रहे। यूरोपीय संघ और भारत की साझीदारी में हर मोर्चे पर मानवाधिकार को महत्त्व दिया जाए। सदस्यों को कहना था कि मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी और धार्मिक व नागरिक समाज के लिए सिकुड़ती जगह का मुद्दा भारत सरकार के समक्ष रखा जाए।

निश्चित तौर पर जब भारत पूरी दुनिया के समक्ष अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है तो दुनिया लोकतंत्र के मूल्यों और व्याकरण की कसौटी पर उसे कसेगी ही। जब भारत यह दावा करता है कि उसके देश में जनतंत्र की जड़ें दो हजार साल पुरानी हैं तो लोग पूछेंगे ही कि जनतंत्र की डालें और पत्तियां सूख क्यों रही हैं। यूरोपीय संसद का प्रस्ताव उसी दिशा में पारित प्रस्ताव था। यह प्रस्ताव भारत सरकार को बहुत नागवार गुजरा और उसने कहा कि यह भारत के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप है, यह औपनिवेशिक मानस का परिचायक है और यह पूरी तरह से अस्वीकार्य है।

वास्तव में लोकतंत्र राष्ट्रवाद के दीवारों के भीतर कैद रहने वाला कोई नादान बालक नहीं है जिसे जब चाहो तब सजा धजा कर महफिल में खड़ा कर दो और जब चाहो तब डांट डपटकर घर के भीतर बिठा दो। लोकतंत्र मानव समुदाय का बालिग सदस्य है और उसे उसी तरह दुनिया में रहने और उठने बैठने का हक है जिस तरह से राष्ट्र को। बल्कि वह राष्ट्र की शोभा है। उसके बिना राष्ट्र का सौंदर्य बिखर जाता है।

जब-जब लोकतंत्र को राष्ट्र के अधीन किया जाएगा तो जान लीजिए उसकी तौहीन होगी और उसका विकास अवरुद्ध हो जाएगा। ऐसा किया जाना दुनिया को भी असुरक्षित ही बनाया जाना है। क्योंकि लोकतंत्र का नाम लेते ही राज्य की कठोर और दमनकारी मशीनरी से अलग ध्यान उस कोमल और संवेदनशील मनुष्य की ओर जाता है जिसे प्रकृति ने अपने सबसे सुंदर उपहार के रूप में इस संसार को दिया है और जिसने अपने और अपने समुदाय के सर्वश्रेष्ठ हित के लिए ही लोकतंत्र का गठन किया है।हालांकि फ्रांस की सरकार ने भारत के प्रधानमंत्री को 14 जुलाई को बैस्तिल दिवस पर विशेष अतिथि के तौर पर बुलाया था लेकिन वहां के विपक्षी दलों, मीडिया और नागरिक समाज ने कड़ा विरोध किया। वजह साफ है कि बैस्तिल दिवस इसलिए मनाया जाता है कि 14 जुलाई 1789 को फ्रांस की जनता ने बैस्तिल के किले पर चढ़ाई करके वहां की राजशाही को हटाकर गणतंत्र घोषित किया था। उस क्रांति का नारा था स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व।

ऐसे मौके पर जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रां ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को परेड में विशेष अतिथि के तौर पर प्रस्तुत किया तो मैक्रां का ही कड़ा विरोध होने लगा। मैक्रां की इस बात के लिए आलोचना होने लगी कि बैस्तिल दिवस तो स्वतंत्रता और जनता की इच्छा की जीत के रूप में देखा जाता है फिर उस दिन होने वाली परेड में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्यों बुलाया गया जबकि 2014 में उनके सत्ता में आने के बाद भारतीय लोकतंत्र अधिनायकवाद की ओर खिसक रहा है।

मोदी का मानवाधिकार का रिकार्ड भी बहुत खराब है। यह टिप्पणी 13 जुलाई को वहां के सबसे बड़े अखबार ला मोंद’ के ओपेड पेज यानी संपादकीय पृष्ठ के सामने वाले पेज पर छपी। ला मोंद’ अखबार ने लिखा कि नरेंद्र मोदी ऐसे नेता हैं जिन्होंने पिछले एक दशक से राज्य प्रायोजित हिंसा को बढ़ावा दिया है।

भारत के कट्टर प्रधानमंत्री बैस्तिल दिवस पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति के गेस्ट आफ आनर होंगे लेकिन ऐसे में क्या हम इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत गंभीर संकट से गुजर रहा है। वहां मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, एनजीओ और पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। भारत जो कि इस धरती का सर्वाधिक आबादी वाला देश है अक्सर उसे सबसे बड़े लोकतंत्र की उपाधि से विभूषित किया जाता है। जबकि फ्रांस को मानवाधिकार की भूमि कहा जाता है। आज यह दोनों उपाधियां यथार्थ से बहुत दूर लग रही हैं।’

नरेंद्र मोदी जिस दिन फ्रांस पहुंचे हैं उसी दिन वहां के सरकारी टीवीफ्रांस 24’ ने शीर्षक लगाया कि जब मैक्रां बैस्तिल दिवस पर मोदी का स्वागत करेंगे तो लोकतांत्रिक मूल्य नहीं हथियारों की परेड होगी। हालांकि फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रां ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भव्य स्वागत किया और 14 जुलाई की बैस्तिल दिवस की परेड में गार्ड आफ आनर’ दिया। लेकिन मैक्रां से आलोचकों ने कहा कि फ्रांस मोदी सरकार के शासन के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन और लोकतंत्र की फिसलन की अनदेखी कर गलत संदेश दे रहा है। कहा गया कि मोदी के अमेरिका दौरे के समय वहां के राष्ट्रपति जो बाइडेन पर दबाव था कि मोदी के सामने मानवाधिकार का मुद्दा उठाएं और उन्होंने वैसा किया भी लेकिन फ्रांस में मोदी को आमंत्रित करना ठीक नहीं था।

बैस्तिल दिवस पर मोदी को सम्मान दिए जाने पर सवाल पूरे फ्रांस में उठाए गए। विशेषकर उनके हिंदुत्ववादी प्रशासन ने मानवाधिकार उल्लंघन का जो काम किया है उसे प्रश्नांकित किया गया। फ्रांसीसी दैनिकलिबरेशन’ में ओपेड पर ग्रीन पार्टी के लोगों ने और वामपंथी पार्टी के लोगों ने लिखा कि ठीक है कि भारत फ्रांस के भूराजनीतिक संबंधों का महत्त्व है पर फ्रांस के सर्वाधिक प्रतीकात्मक दिवस पर मोदी को विशेष अतिथि बनाने का मतलब है कि हम या तो उस उपमहाद्वीप के बारे में अनजान हैं या फिर सनकी हैं। दरअसल विरोध और सवाल तभी उठने लगे थे जब मोदी की यात्रा का एलान हुआ था। एक माह पहले फ्रांस के रेडिकल लेफ्ट विपक्षी समूह ला फ्रांस’ के नेता मेलेन्कान ने कहा----भारत एक मित्र देश है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अति दक्षिणपंथी हैं और अपने देश के मुसलमानों के जबरदस्त रूप से खिलाफ हैं। उन्हें 14 जुलाई को बुलाया नहीं जाना चाहिए था।क्योंकि वह तो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का समारोह है और वे उससे घृणा करते हैं।

इसी दौरान 13 जुलाई को ही फ्रांस के दस प्रमुख लोग जिनमें अर्थशास्त्री थामस पिकेटी, डेनमार्क के पूर्व फ्रांसीसी राजदूत जिमार्ग जैसे नामी लोगों ने 13 जुलाई यानी बैस्तिल दिवस से एक दिन पहले `ला मोंद’ में एक लेख लिखकर राष्ट्रपति मैक्रां से विनती की कि वे मोदी से कहें कि वे नागरिक समाज का दमन बंद करें। प्रमुख मीडिया घरानों की आजादी सुनिश्चित करें और धार्मिक स्वतंत्रता को संरक्षित करें।

भारतीय लोकतंत्र पर विदेशी जमीन तब भी सवाल उठे जब जून के महीने में अपने अमेरिका दौरे के समय भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ व्हाइट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। भारतीय प्रधानमंत्री अपने देश में प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते। पिछले नौ सालों में उन्होंने कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। वे विदेश में अगर प्रेस कांफ्रेंस करते हैं तो सवाल नहीं लेते। लेकिन इस बार कुछ दबाव जरूर था कि उन्हें सवाल लेना पड़ा। हालांकि उन्होंने उस सवाल का रटा रटाया सा जवाब दे दिया लेकिन उसके बाद जो विवाद हुआ उसकी गूंज अमेरिकी से भारत तक ही नहीं पूरी दुनिया में रही।

अमेरिका के व्हाइट हाउस में 22 जून 2023 को हुई प्रेस कांफ्रेंस में वाल स्ट्रीट जरनल की पत्रकार सबरीना सिद्दीकी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भारत में मानवाधिकारों के बारे में सवाल पूछा। उनका सवाल था कि बहुत सारे मानवाधिकार समूह हैं जो कहते हैं कि आपकी सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करती है और अपने आलोचकों को खामोश करती है। ऐसे में आप की सरकार और आप अपने देश में मुसलमानों और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों की हिफाजत और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए क्या कर रहे हैं?

इस सवाल के जवाब में मोदी ने सामान्य सा दार्शनिक उत्तर दिया जो शायद प्रश्न को संबोधित ही नहीं था। मोदी का कहना था, “जहां तक भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल है तो वहां किसी भी तरह का भेदभाव नहीं है। वहां जाति, पंथ, उम्र या किसी भौगोलिक स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता है। वास्तव में भारत एक लोकतंत्र है और जैसा कि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी कहा है कि भारत और अमेरिका दोनों देशों के डीएनए में लोकतंत्र है। लोकतंत्र हमारे प्राण में बसता है, लोकतंत्र हमारी धमनियों में प्रवाहित होता है, हम लोकतंत्र को जीते हैं।’’

प्रधानमंत्री मोदी ने सबरीना सिद्दीकी के सवाल का सीधा जवाब भी नहीं दिया लेकिन भारत और दुनिया भर में फैले मोदी के प्रशंसक सबरीना को ही ट्राल करने लगे। लगातार उन्हें आनलाइन उत्पीड़ित किया जाने लगा। इस पर जहां वाल स्ट्रीट जरनल’ ने उनका बचाव किया वहीं वाइडेन प्रशासन ने भी इस तरह के ट्राल की निंदा की।वाल स्ट्रीट जरनल’ ने कहा कि सबरीना हमारे समूह की विश्वसनीय पत्रकार हैं और उनके सवालों के इरादे को लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। इसलिए जो लोग उन्हें ट्राल कर रहे हैं वे गलत कर रहे हैं। वाइडेन प्रशासन ने भी कहा कि हम प्रेस की आजादी के लिए समर्पित हैं। इसलिए ट्राल किया जाना उचित नहीं है। लेकिन जिन्हें प्रेस की आजादी में यकीन नहीं है बल्कि जो उसके दुरुपयोग में आस्था रखते हैं उन्हें कौन रोकेगा।

मोदी जिस समय अमेरिका का दौरा कर रहे थे उसी समय अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अल्पसंख्यक मुसलमानों के हकों की हिफाजत करनी चाहिए। हिंदू बहुसंख्यक वाले देश में अल्पसंख्यकों के हकों की हिफाजत का सवाल राष्ट्रपति जो बाइडेन को मोदी से उठाना चाहिए। क्योंकि अगर अल्पसंख्यकों के हकों की हिफाजत नहीं हुई तो एक दिन भारत बिखरने लगेगा। बराक ओबामा के इस बयान पर भारत की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने तीखी प्रतिक्रिया जताई। उनका कहना था कि वे ओबामा के बयान से सदमे में हैं। जिस व्यक्ति ने अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल में सीरिया से यमन तक छह मुस्लिम देशों पर बमबारी की वह ऐसे आरोप कैसे लगा सकता है। फिर कोई ऐसे आरोपी को कैसे सुने। हालांकि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मानवाधिकार और दूसरे लोकतांत्रिक मूल्यों की चर्चा की।

वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे से ठीक पहले 75 अमेरिकी सीनेटरों ने यानी अमेरिकी विधि निर्माताओं के 14 प्रतिशत समूह ने भारत में लोकतंत्र की स्थितियों पर चिंता जताते हुए राष्ट्रपति जो बाइडेन से अपील की थी कि वे इस बारे में मोदी से बात करें। उन्होंने कहा था कि वे चाहते हैं कि भारत और अमेरिका के संबंध सुधरें लेकिन इस चिंता की कीमत पर नहीं कि भारत में राजनीतिक दायरा सिमट रहा है, धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है और नागरिक संगठनों और पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। उन सीनेटरों ने अमेरिका के विदेश विभाग और सिविल सोसायटी की रपटों का हवाला देते हुए अपनी बात बाइडन से एक पत्र के माध्यम से कही थी। उन्होंने प्रेस की आजादी पर पाबंदी और इंटरनेट पर बार बार लगने वाली रोक का भी जिक्र किया था। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में प्रोग्रेसिव काकस की सदस्य प्रमिला जयपाल, राहुल गांधी की बैठक में शामिल होने वाली क्रिस बान हालेन, समाजवादी नेता बर्नी सैंडर्स, एलिजाबेथ वारेन और टिम कैने शामिल थे।

अपनी लोकतांत्रिक साख पर उठने वाले सवालों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 जून को अमेरिकी कांग्रेस के संबोधन में कहा,` लोकतंत्र ऐसा मूल्य है जो हमारे लिए पवित्र भी है और जिसमें हम सहभागी भी हैं। इसका विकास लंबे समय में विभिन्न स्वरूपों और प्रणालियों के माध्यम से हुआ है। लेकिन पूरे इतिहास में एक बात स्पष्ट रही है और वो यह कि लोकतंत्र वह भावना है जो समता और गरिमा को समर्थन करती है। लोकतंत्र वह विचार है जो कि बहस और विमर्श का स्वागत करता है। लोकतंत्र वह संस्कृति है जो विचारों और अभिव्यक्तियों को पंख लगाती है। भारत इस मायने में भाग्यशाली है कि उससे अविस्मरणीय काल से इन मूल्यों का आशीष मिला हुआ है। सहस्राब्दियों पहले हमारे ग्रंथों में कहा गया था किएकः सत्य विप्र बहुधा वदंति’।

अमेरिका सबसे पुराना और भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र के भविष्य के लिए हमारी मित्रता बहुत उपयुक्त है। हम लोग मिलकर दुनिया को अच्छा भविष्य और भविष्य को अच्छा विश्व प्रदान कर सकते हैं।’पिछले साल हमने अपनी आजादी के 75 साल मनाए हैं। हम पर एक हजार साल तक किसी न किसी रूप में विदेशियों का शासन रहा है ऐसे में हमने स्वतंत्रता की 75 वर्षों की विशिष्ट यात्रा का समारोह मनाया बल्कि विविधता का भी उत्सव मनाया। हमने सिर्फ संविधान का उत्सव ही नहीं मनाया बल्कि सामाजिक सबलीकरण की उसकी भावना का उत्सव भीमनाया।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ अमेरिकी आलोचना का जवाब नहीं दे रहे थे बल्कि वे उस आलोचना का जवाब भी दे रहे थे जो महीने भर पहले विपक्ष के नेता राहुल गांधी कैलीफोर्निया और दूसरे अमेरिकी शहरों में उनके बारे में कह कर आए थे।

राहुल गांधी ने कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में कहा था किधार्मिक अपराध, असहिष्णुता और अहंकार के कारण भारत में लोकतंत्र को झटका लगा है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगता है कि वे सब कुछ जानते हैं। वे अपने को भगवान से भी ज्यादा जानकार समझते हैं। जबकि वे न तो भारत को जानते हैं और न ही दुनिया को। वास्तव में यह दुनिया बहुत बड़ी और जटिल है। इसलिए कोई एक व्यक्ति सब कुछ नहीं जान सकता। भारत में कुछ लोगों का एक समूह है जो पूरी तरह से मानता है कि उन्हें सब कुछ मालूम है। हमारे पीएम वैसे ही किस्म के लोगों में हैं। अगर आप मोदी जी को ईश्वर के सामने बिठा दो तो वे ईश्वर को समझा देंगे कि दुनिया कैसे चलती है और भगवान भी भ्रमित हो जाएंगे कि अरे हमने क्या बना दिया। वे सोचते हैं कि वे इतिहासकारों को इतिहास, वैज्ञानिकों को विज्ञान और सैनिकों को युद्ध कला सिखा सकते हैं। लेकिन भीतर से वे औसत बुद्धि के लोग हैं जो किसी की बात सुनने को तैयार नहीं हैं।’

राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा की वजह बताते हुए कहा कि उन्होंने तकरीबन साढ़े तीन हजार किलोमीटर की पदयात्रा इसलिए की क्योंकि राजनीति में सक्रियता के जो सामान्य उपकरण हैं वे चल नहीं पा रहे थे। राजनीति के सारे उपकरणों पर आरएसएस और भाजपा का कब्जा हो गया था। यात्रा ने बता दिया कि भारत के लोगों के दिल में मोहब्बत है। राहुल गांधी जिस कार्यक्रम में बोले उसका शीर्षक दिया गया था `मोहब्बत की दुकान’।

राहुल गांधी पांच जून 2023 को अमेरिका के जिस कार्यक्रम में बोल रहे थे उसे इंडियन ओवरसीज कांग्रेस यूएसए ने मैनहट्टन के जैकोब जैविटस सेंटर में आयोजित किया था। उसमें उस तरह का धूम धड़ाका नहीं था जैसा कि मोदी जी के कार्यक्रम में होता है। उसमें सिर्फ 700 लोग थे। एक बार कुछ सिखों ने 1984 के नरसंहार का मामला भी उठाया। राहुल गांधी ने उसका बहुत शालीनता से जवाब दिया और वे लोग खामोश हो गए। उन्होंने कहा कि इसे ही कहते हैं नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान। इस कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि मोदी जी देश को बांट रहे हैं। वे बेरोजगारी और शिक्षा जैसे अहम मुद्दों पर चुप हैं। जनता के साथ बुरा बर्ताव करना, अहंकार का प्रदर्शन और हिंसक होना यह भारतीय मूल्य नहीं हैं।

राहुल गांधी 28 फरवरी 2023 को ग्रेट ब्रिटेन गए और वहां उन्होंने संसद भवन और कैंब्रिज विश्वविद्यालय में बैठकों को संबोधित किया। उनके इन संबोधनों पर देश में सत्तारूढ़ पार्टी ने विवाद खड़ा कर दिया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों ने उन पर आरोप लगाया कि राहुल गांधी ने भारत का अपमान किया है और देश में विदेशी हस्तक्षेप की मांग की है। उनके बयान के विरोध में दो दिन तक संसद की कार्यवाही ठप रही। कहा गया कि वे माफी मांगें। लेकिन उन्होंन् माफी नहीं मांगी और संसद के पैनल के सामने अपनी पूरी बात दोहराई। उन्होंने मार्च के पहले दो हफ्तों में कई सभाओं को संबोधित किया और उसमें जो बातें कहीं उस पर ध्यान देने लायक है और यह भी देखने लायक है कि क्या उन्होंने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की मांग की है।

लंदन और ग्रेट कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दिए गए राहुल गांधी के बयान इस प्रकार हैः-देखिए यह हमारी समस्या है(लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण की)। यह आंतरिक समस्या है। यह भारत की समस्या है और इसका समाधान भी भीतर से ही आएगा। लेकिन भारत के लोकतंत्र का जो आकार है उसका मतलब दुनिया के लोकहित से है। यह हमारी सीमाओं के बाहर भी प्रभावित करता है। लंदन के चैथम हाउस में उन्होंने कहा, अगर भारत में लोकतंत्र का पतन होता है तो इस धरती पर लोकतंत्र को झटका लगेगा। इसलिए यह आप के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। यह सिर्फ हमारे लिए ही नहीं अहम है। हम अपनी समस्या से निपट लेंगे लेकिन आप जान लीजिए कि इस समस्या का असर वैश्विक स्तर पर होगा। इसका असर सिर्फ भारत में ही नहीं होगा इसका असर आप पर भी होगा। आप को मालूम होना चाहिए कि भारत में क्या हो रहा है। लोकतांत्रिक प्रणाली के विचार पर हमला हो रहा है और वह खतरे में है।’

राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में कहा,हर कोई जानता है कि भारत में लोकतंत्र पर दबाव है। उस पर हमले हो रहे हैं। मैं भारत में विपक्ष का नेता हूं। हम (उसी दबाव वाले) दायरे में काम कर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए जिस संस्थागत ढांचे की जरूरत होती है जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस, न्यायपालिका, लोगों को संगठित करने का विचार, घूमने का विचार उन सब पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। इसलिए लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला हो रहा है। संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। यानी संघ को वार्ताएं करनी चाहिए। इस अवधारणा पर लगातार हमले हो रहे हैं।’

राहुल गांधी ने इंडियन जर्नलिस्ट एसोसिएशन की बैठक में कहा, लोग भारत के आकार और उसके लोकतंत्र के बारे में समझते नहीं हैं। अगर यूरोप में अचानक लोकतंत्र विलीन हो जाए तो आप की क्या प्रतिक्रिया होगी? आप चौंक जाएंगे और कहेंगे भगवान यह लोकतंत्र को बड़ा झटका है। अगर यूरोप का साढ़े तीन गुना बड़ा ढांचा अचानक गैर लोकतांत्रिक हो जाए तो आप क्या कहेंगे? वह हो रहा है। वह भविष्य में नहीं होने जा रहा है। वह हो चुका है।’

उन्होंने कहा, लोकतंत्र के कथित रक्षक जो अमेरिका और यूरोपीय देश हैं इस बात से बेखबर हैं कि लोकतंत्र का एक बड़ा मॉडल बिगड़ गया है। विपक्ष लड़ाई लड़ रहा है। यह सिर्फ भारत की लड़ाई नहीं है। यह और ज्यादा बड़ी लड़ाई है जो कि लोकतांत्रिक लोगों के एक बड़े हिस्से की लड़ाई है।’ राहुल गांधी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर गंभीर आरोप भी लगाए। उन्होंने कहा, संघ एक गोपनीय संगठन है। जिसका गठन मुस्लिम ब्रदरहुड के मॉडल पर हुआ है। यानी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल करो और फिर उसे खत्म कर दो। मेरे लिए यह सदमा लगने वाली बात है कि वे हमारे देश की तमाम संस्थाओं पर कब्जा कर रहे हैं। प्रेस, न्यायपालिका, संसद, चुनाव आयोग और सारी संस्थाएं दबाव में हैं। वे किसी न किसी तरह से नियंत्रित हैं।’

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