राजिंदर अरोड़ा
गुरु नानक के अनुयायिओं ने गुरु की यात्राओं को उदासियों का नाम दिया है. ये यात्रायें, दौरे या भ्रमण जितने बाहरी दर्शन को थे, उतनी ही अंदरूनी भी थे. दर्शन को फ़लसफ़ा या अंग्रेज़ी में फ़िलॉसोफ़ी यूँ ही नहीं कहा गया. गुरु नानक ने अपनी बाणी में उदासी को बिलगाव और त्याग से भी जोड़ा है.
पिछले एक साल में माँ के साथ मेरा अपना अनुभव यह बताता है कि हमारी मानसिक यात्रायें काफ़ी हद तक उदासियों से जुड़ी और पटी हैं, ख़ास तौर पे दिमाग़ी आत्मिक उदासियों से. माँ किस यात्रा पे हैं, ये तो मैं नहीं कह सकता पर ये ज़रूर जानता हूँ कि उनकी यात्रा बीते कल की सख़्त और पथरीली ज़मीन को कुरेद रही है. उसमें दर्द है, पीड़ा है, दुःख है और यादों के मर्म हैं.
आज बड़ा दिन है, सुबह आज जल्दी आ गई. सूरज को निकलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, माँ का चेहरा जो चमक रहा है. जाने क्या बात है, माँ आज हर बात पर हंस रही हैं. खिलखिलाकर, गर्दन को पीछे फेंक, सर को ऊपर उठा कर ज़ोर-ज़ोर से, बिलावजह. जाड़े की सुबह है, अभी 8.30 भी नहीं बजे और नीचे वाले कमरे से ख़ुस-फुस आवाज़ें आ रही हैं, जो वैसे तो रोज़ बिलकुल शांत होता था. कमरे में अँधेरा है, उनकी मददगार रेशमी भी सो रही है उन्हीं की तरफ मुँह कर के. कमरे के अँधेरे के पार मैं माँ का चेहरा देखना चाहता हूँ और पहचानना चाहता हूँ उस जगह को जहाँ वो अब होंगी. उनके अंतर्मन में आजकल पुरानी और नई यादें कुछ खेल खेल रही हैं. बिन बताये कभी भी कहीं भी निकल जाती हैं.
खिड़की से आ रही हलकी-सी रौशनी में मैं ये समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि माँ की आँखें खुली हैं या वो अभी नींद में ही हैं. उनकी गर्दन हिलती है और मुझे देख वो कहती हैं, “तेरी ही इंतज़ार हो रही थी— चलो अब चाय बनाते हैं.” मैं कहता हूँ, आप उठ कर बैठो मैं चाय बना के लाता हूँ. इसके जवाब में वो रेशमी से कहती हैं, “तू बना ला, मुझे चाय बनानी नहीं आती, मेरे बाउजी इसी बात पर बहुत गुस्सा करते थे— मुझे चाय जो नहीं बनानी आती.” ख़्वाब में या मानसिक तौर पे यक़ीनन वो कहीं और थीं, अभी-अभी किसी से मिल कर आ रही हैं, किसी को छोड़ के आ रही हैं.
जब तक मैं चाय ले के आता माहौल फिर से बदल गया था. वो अपनी व्हील चेयर पर बैठ किसी और दुनिया में जा चुकी थीं. अपने छोटे बटुए से रेशमी को पैसे निकाल कर देते हुए बोलीं, “ये ले, दो चाय ले आ, फिर हम घर जायेंगे.” मैं चाय की ट्रे वापिस पीछे ले जाता हूँ. रेशमी कहती है, ‘ये भी तो आपका ही घर है अब और किधर जाओगे, दादी? लो भैया चाय भी ले आये.’ वो ‘अभी में’ वापिस लौट आती हैं कुछ ऐसे जैसे कोई बस कंडक्टर ये कह कर एक यात्री को नीचे उतार देता है कि ये बस फलां जगह नहीं जाएगी. बहुत अनमने से चाय पीती हैं, चुपचाप.
जहाँ वो रहती हैं, उन्हें लगता है वो किसी और का घर है, वो बतौर मेहमान वहां आयी हुई हैं या लाई गई हैं. किस यात्रा पर हैं वो? वो समझती है कि ये उनका घर नहीं है. इसलिए माँ के सवाल बराबर उसी तरह के हैं, उस जगह के बारे में हैं जहाँ से वो जाना चाहती हैं. इस जगह से उन्हें लगाव नहीं है, पर क्यूँ नहीं है. क्या वो ये भी भूल गयी हैं कि ये उनका अपना ही घर है, उनके बड़े बेटे का घर, जिसे कुछ साल पहले तक बड़े रौब से वो अपना घर ही कहती थीं, जिस घर के लिए उनके शब्द थे “कोठी”, “तिमंज़िला मकान”, “मेरा घर”. वो पहले की बात थी पर अब अपने दिमाग़ी ख़लल की वजह से वो सब भूल गई हैं. ये सोच कर ही मुझे दुःख होता है कि मैं अब उनका नहीं रहा. कुछ ऐसी चौखटें, ऐसे दरवाज़े हैं जो मुझे या हमें दिखते नहीं हैं, जिनके पार वो उतर जाती हैं. उनके परे पता नहीं किसके सहारे चलती हैं, किसकी उँगली पकड़े, किसके साथ.
इस जगह में उन्हें यक़ीनन अपनापन नहीं लगता. यहाँ तक कि अपनी तस्वीर को दीवार पे लगा देख वो पूछती हैं, “ये मेरी फ़ोटो यहाँ कैसे है?” उनका कमरा साफ़ करने वाली लड़की शालू से भी कुछ ऐसा ही सवाल पूछती हैं, “तू मेरे घर में भी काम करती है और यहाँ भी आती है? किस के साथ आई – तू कब आई?” उनका घर कहीं और है, शायद वो इस शहर में भी नहीं है. दिल्ली, गुड़गांव, रोहतक, बीकानेर, सूरतगढ़ अब उनके डेरे से बाहर हैं. फ़ोन पे वो सब को ये कहती हैं, “आज कल हम लाहौर आये हुए हैं, बाहर निकलो तो यहाँ ठंड तो लगती ही है”.
हाय, लाहौर. लाहौर यहाँ आ नहीं सकता और इस हालत में माँ को हम वहां ले जा नहीं सकते. कैसी-कैसी मजबूरियां हैं. कल दोपहर बाहर लॉन में बैठे उन्होंने मुझसे पूछा “हमें यहाँ कोई नहीं जानता क्या? ये लाहौर की कौन-सी जगह है ?” इन सवालों का कोई जवाब आपके पास हो तो मेरी मदद कीजिये.
माँ के ज़ेहन में आजकल एक नए शहर, नए इलाक़े, एक नए मकान की तामीर हो रही है जो ‘उनका है और बस उनका ही हो’. वो सिर्फ़ रहने के किसी मकान या घर को ही नहीं ख़ोज रहीं वो नया पुराना सब मिलकर उसे ईजाद भी कर रहीं हैं, कहीं कुछ मनगढंत-सा, उनका काल्पनिक इलाक़ा, उनकी जानी-पहचानी जगह जहां वो रहती थीं या हैं, ईंट पत्थर का मक़ान, पक्का मकान जहाँ उनकी जान-पहचान के पड़ोसी रहते हों – क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनका घर नहीं है, वो अपनी जगह पर नहीं है. ‘बाहर निकलो तो यहाँ ठण्ड लगती है, यहाँ सर्दी बहुत पड़ती है’. वो कौन-सी ऐसी जगह थी जहाँ अपनेपन की गर्मजोशी पीछे छूट गई है ? ऐसा तो नहीं कि ये ख़ालीपन, अकेलापन किसी के यहाँ न होने से महसूस होता हो ? कभी-कभी मुझे ऐसा भी लगता है कि वो अपने साथियों को, हमसफ़र को भी ढूंढ रही हैं. हमारे पिता को गुज़रे करीब 15 साल हो गए हैं और हमारे नाना, यानि माँ के पिता, को गुज़रे भी क़रीब 35 साल हो चले हैं. इस बीच उनके तीन भाई भी चल बसे. उदासियों की एक वजह ये अकेलापन भी तो हो सकता है, जिसे मैं या कोई और नहीं भर सकता.
उदासियाँ या अंदरूनी सफ़र – बाबा नानक बहुत कुछ छोड़ गए हैं – ढूंढने को , दरियाफ़्त करने को, पाने को.
वो ख़ुद को कहीं और देख रही है और हैरान होती हैं कि बाक़ी सब, हम सब, भी वहां आये हुए हैं. ये सब किसी ख़्वाब में हो रहा है. किसी और काल में, किसी और दुनिया में. वो 80 साल पीछे अपने बचपन में भी घूमती मिलती हैं, उन्हें मोहल्ले, आस-पड़ोस, सड़कें और रास्ते याद हैं. गलियों के नाम याद हैं, आस-पास की इमारतें, दुकानें, डेरे और थड़े याद हैं, उनकी दीवारों के मटमैले रंग और उनमे बने आलों से उनकी पहचान है. दाहिने और बायें मोड़ भी याद हैं. ये भी पता हैं कहाँ रास्ता ऊपर को जाता है और ढलान कहाँ आती है. रास्ते के हैंडपंप और पेड़ उन्हें रोक लेते हैं. एक ख़ुश्बू, महक हैं, गंध हैं जिन्ह वो पहचानती हैं. दरीचों से निकलती रौशनियां हैं जिनसे वो वाक़िफ़ रही हैं. थोड़ा-सा गुड़ मुँह में जाते ही ख़लीफ़ा हलवाई को याद कर लेती हैं. कहीं सौदे-सुलफ़ की बात हो रही हो तो बरक़त पंसारी की दूकान के बारे में कहना शुरू कर देती हैं. दादी की नसवार और दादा का हुक़्क़ा आज भी नहीं भूला है. चिमटे को याद करते ही उँगलियाँ अपने आप खुलने-बंद होने लगती हैं. बार-बार चक्का घूमता है और घूम के वापिस लौट आता है, हताश, हारा हुआ.
ये सब याद करते हुए उनके दिमाग पे बहुत ज़ोर लगता होगा जिस से वो थक जाती हैं और फिर सो जाती हैं. माँ के होंठ नींद में भी जीवंत रहते हैं, धीरे-धीरे हिलते, खुलते, बंद होते जैसे किसी पुरानी फ़िल्म का कोई सुना हुआ गीत गुनगुनाने की कोशिश कर रही हों, वो गीत जिसकी धुन तो उन्हें याद है पर पूरे बोल नहीं मिल रहे, एक मिसरा तो याद है पर अंतरा कोशिश के बाद भी पकड़ में नहीं आ रहा. और फिर, वो जो कोई भी था, जो पीछे से बांसुरी बजा रहा था, सुर दे रहा था अचानक बांसुरी बंद कर देता है और वो सब भूल जाती हैं.
उन्हें हाथों पे ठण्ड लग रही है पर ख़ुद से दस्ताने नहीं पहने जा रहे. मैं पहनता हूँ तो दो उँगलियाँ एक ही खोल में डाल कर अपनी नादानी पर हंसती है, ज़ोर से. मैंने एक और स्वेटर पहना दिया और शॉल लपेट दी है. अब वो लेटना और फिर से सोना चाहती है. मैं कहता हूँ अभी थोड़ी देर बैठो, लेटो नहीं. इस पर वो मुँह बना लेती हैं और तकिये को ऐसे देखती हैं जैसे कोई शिकायत करते वक़्त दारोग़ा को देखता है. इतने में रेशमी थाली में ताज़ी मेंथी भर के ले आती है जिसे देख माँ कहती है – क्या कर रही है ये – चटनी बनेगी क्या इसकी? उन्हें अब पोदीने और मेंथी के पत्तों का फ़र्क़ भूल गया है. रेशमी के हाथ छूते हुए कहती हैं, ‘तेरे हाथ बहुत ठन्डे हैं, ये ले, ये पहन ले’, रेशमी को अपना दस्ताना देते हुए माँ कहती है. वो बोलती है, मेरे पास हैं दादी, आप ने ही तो ले के दिए हैं. ऐसे ज़वाब उन्हें असमंजस में डाल देते हैं, छोटे बच्चों की तरफ आँखें ऊपर कर वो छत में कुछ ढूंढने लगती हैं.
वो भी दिन भी थे जब माँ हर रोज़ सुबह ही नहा लेती थीं और नहा कर बेनागा अलमारी के साथ बने मंदिर-नुमा थड़े पर दिया या धूप जलाती थी. लेकिन अब एक अरसे से माँ ने उस तरफ देखा भी नहीं है. वो कोना भगवान-लोगों का जमघटा है, वहां सब हैं, कृष्ण से क्राइस्ट तक. एक तस्वीर पिताजी की भी है. पर उधर अब उनका ध्यान भी नहीं जाता. वो पड़ाव माँ लाँघ चुकी हैं. अब उस सब में कोई रूचि नहीं है.
बड़ी बहन ने फ़ोन कर के कहा, ‘सारा दिन लेटा नहीं रहते, तू उठ के बैठा कर, कुछ किया कर, पढ़ा कर, लूडो खेला कर, ताश खेला कर’. उनको शिकायत करते हुए माँ कहती हैं, “ताश खेलना मना हो गया है. मैं क्यों काम करूँ बाक़ी सब किस लिए हैं ?”
दवाई खाना उन्हें अच्छा नहीं लगता पर विटामिन के कैप्सूल वो इसलिए खा लेती हैं क्यूंकि वो कैप्सूल उनके छोटे भाई ने लंदन से भेजे हैं और वो बहुत महंगे होते हैं. हर 15 दिन में तीन डॉक्टरों की एक टीम माँ को देखने और जांचने आती है. उनमें से एक काउंसलर भी हैं, जिससे माँ की खूब छनती है, दोनों बहुत बातें करते हैं. इन बातों से निकले कुछ नगीने ऐसे भी हैं,
*फ़िजियोथेरेपी वाले डॉक्टर से कसरत करने के बाद माँ पूछती हैं, “मैं पास के फ़ैल”
*मैं जहाँ एडमिट हूँ वहां आप लोग फ़्री चेक-अप देते हैं क्या?
*खाना रोज़ क्यों खाना होता है ?
*एसपीओ लेवल से क्या पता चलेगा – ऑक्सीज़न तो मैं ले ही रही हूँ.
*अब मैं 98 की हो गई हूँ, तुम सब से ज़्यादा जानती हूँ.
रजनी को खड़ा देख उस से पूछती हैं, ‘हम घर कब चलेंगे?’ रजनी कहती है- बस आप नाश्ता कर लो फिर चलते हैं. उनके चेहरे पे मुस्कान लौट आती है. कहाँ जाना है ये वो नहीं बता पाती.
रजनी ने कहा- केला खाओगे ? माँ बोलीं, केला तो कल खाया था.
परांठा या रोटी खाओगे?
नहीं, पर हाँ भूख तो लगी है.
रोटी या पराठाँ ?
पराठाँ.
गोभी का या मूली का?
गोभी का. पर अभी, अभी टाइम क्या हुआ है.
साढ़े आठ बजने वाले हैं माँ, आप नाश्ता कर लो.
मैं? अकेले? क्यूँ ?
पांच मिनट बाद जब गोभी का पराँठा सामने आया तो कहती हैं, ‘तुम सब का कहाँ है? मैं क्या ज़्यादा लाड़ली हूँ जो मुझे पहले मिलेगा?
परांठे के साथ तोड़ कर रसगुल्ला खाती हैं और कहती हैं चाशनी जैसी मीठी रोटी है.
कितनी अजब बात है उनके दिमाग़ी खानों में सब कुछ अपनी जगह ठीक रखा है – बीते कल का, आज का, और आने वाले कल के डर भी, सब कुछ – जिसे वो सहेजती हैं और बिखेरती हैं बार बार.
बेचारी रेशमी – वो तो प्यार से गले में एप्रन डाल रही थी और माँ उसे कहती है, “गला न घोट दियो”. अकेलेपन का डर भी मन में बैठ गया है. इसीलिए बार बार पूछती हैं, “वहां कौन है?” उनकी नज़र के सामने की कुर्सी पर रजनी की काली ऊनी फेरन और रंगीन गुलबंद लटके देख माँ ने कहा, “वहाँ कौन घूंघट निकाल के बैठा है.” किसी बात के बीच रजनी कमरे से उठकर रसोई को जा रही थी तब माँ बोली, “देखो तो, चुपके से खिसक रही है.” किसी अपने का थोड़े वक्फे के लिए भी उनकी आँखों से दूर हो जाने पर वो घबरा जाती हैं.
मेरे बारे में तो दिन में सौ बार पूछती हैं पर फिर भी सवाल लौट के वहीं आ जाता है, हम घर कब वापिस जायेंगे?
चलेंगे माँ.
मुझे कहीं से दादा एसडी बर्मन की जादुई आवाज़ आती है,
वहां कौन है तेरा, मुसाफ़िर, जाएगा कहाँ.
कोइ भी तेरी, राह न देखे, नैन बिछाये ना कोई
दर्द से तेरे, कोई न तड़पा, आँख किसी की ना रोयी, कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ …
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