अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

परमतृप्ति/मुक्ति : वैदिक दर्शन के चार मूलभूत मंत्र

Share

 डॉ. नीलम ज्योति

_‘प्रज्ञानम ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्म परम चेतन है :_ यह ऋग्वेद का कथन है।

यजुर्वेद का सार है _’अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।_

सामवेद का कथन है _‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो।_

अथर्ववेद का सारतत्व कहता है _‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।_

    ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्यता की ओर इशारा करते हैं और उनका विषय केवल दिव्यता है।

  पहला कथन है, *प्रज्ञानाम ब्रह्म,* प्रज्ञान क्या होता है? क्या वह केवल बुद्धि और चातुर्य है? प्रज्ञान शरीर में, मन में, बुद्धि में, अहम में, सब में विद्यमान होता है। प्रज्ञान जड़ और चेतन दोनों में रहता है। उसे हम निरंतर संपूर्ण चेतना कहते हैं। चेतना क्या होती है? चेतना का अर्थ है जानना। क्या जानना? थोड़ा कुछ या टुकड़े टुकड़े में जानने को चेतना नहीं कहते हैं। यह संपूर्ण ज्ञान होता है।

     _यह उस दिव्य तत्व जो जड़ और चेतन दोनों में निहित है, उसका ज्ञान होना ही संपूर्ण चेतना है। वास्तव में प्रज्ञान और ब्रह्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, वे दो अलग वस्तुएं नहीं हैं।_

      ब्रह्म क्या है? ब्रह्म वही है जो सर्वव्यापी हैं, यह वृहद तत्व का सिद्धांत है। संपूर्ण सृष्टि ही वृहद है या शक्तिशाली विशाल सूत्र है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ब्रह्म व्याप्त है। सरल भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है, सर्वत्र फैला हुआ। वह चारों ओर व्याप्त है, एक सद्गुरु भी इन गुणों से युक्त होता है।

      दूसरा कथन है *’अहम् ब्रह्मास्मि।’* सब सोचते हैं कि अहम् होता है मैं। नहीं! अहम् का अन्य अर्थ होता है आत्मा। अहम् ही आत्मा का स्वरूप होता है जो चेतना के चारों ओर उपस्थित होती है, वह मनुष्य में आत्मा के रूप में स्थापित की गई है।

     यह आत्मा सबके अंदर साक्षी रूप में अवस्थित होती है। आत्मा, चेतना और ब्रह्म ये सब भिन्न नहीं हैं। अहम् ब्रह्मास्मि का अर्थ है- मेरे अंदर भी आत्मा या मेरे अंदर का ‘मैं’ ही सनातन साक्षी है, वही ब्रह्म है।

तीसरा कथन है- *‘तत्वमसि।’* यह सामवेद का सार है। तत् का अर्थ है ‘वह’ और त्वम् का अर्थात् ‘तू, तुम’, असि का अर्थ है ‘हो।’ जब तक मैं और तुम का भेद होता है तब तक मैं और तुम दो अलग-अलग रहते हैं, पर जब मैं और तुम इकट्ठे हो जाते हैं तब ‘हम’ बन जाते हैं, दोनों मिलकर एक अस्तित्व बन जाता है।

    _जहां दुविधा है वहां ‘तुम’ है और जहां उपाधि (द्वैत का छल) नहीं है वहां ‘तत् है। एक जीव है, दूसरा देव है। सामवेद में यह बहुत स्पष्ट ढंग से समझाया गया है कि जीव और देव दोनों एक ही हैं।_

*‘अयम् आत्म ब्रह्म’* यह चौथा कथन है। इस कथन को जानने का प्रयत्न करो। इसमें तीन शब्द हैं- अयम्, आत्म तथा ब्रह्म। परंतु वे तीन नहीं हैं। पहला व्यक्ति जो तुम अपने आपको समझते हो, एक वह जो और लोग तुम्हें समझते हैं और एक वह जो वास्तव में तुम हो, जिससे अभिप्राय है शरीर, मन (चित्त) और आत्मा।

    _हम अपने शरीर से काम करते हैं, मन से विचार करते हैं और इन दोनों की साक्षी रूप में हमारी आत्मा होती है। जागृत अवस्था में तुम व्यक्तिगत रूप से पूरा विश्व होते हो, स्वप्नावस्था में तुम तेजस होते हो और निद्रावस्था में तुम प्रज्ञास्वरूप होते हो।_

     प्रज्ञानाम ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म ही परम चेतना होती है। प्रज्ञान ही आत्मा होती है।

ज़ब तक इस यथार्थ की अनुभूति नहीं होगी तब तक आप जानवर (मानवपशु ) हैं, मनुष्य नहीं. मैं आत्मा हूँ, यह पढ़ने-सुनने-लिखने-बकने से ‘स्व’ की/सत्य की /भगवत्ता की प्राप्ति नहीं होती.

    _हम जन्मों भटकने-सड़ने के बाद पूर्णत्व की बात को गलत सावित करते हैं. मात्र 15 दिन -रात हमें दें, यह स्तर अर्जित करें : निःशुल्क._

   *(चेतना विकास मिशन)*

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें