मुनेश त्यागी
भारत के संविधान, भारत के विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों के अधिकांश फसलों के माध्यम से सरकारों द्वारा जनता को सस्ते और सुलभ न्याय देने की बात कही कही गई है और इस तरह के सिद्धांत बनाए गए हैं। भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से प्रावधान किए गए हैं कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय प्राप्त कराने की सबसे बड़ी और अहम् जिम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों की है। 31 अगस्त 2022 तक के आंकड़ों के हिसाब से उत्तर प्रदेश राज्य में इस समय एक करोड़ 20 लाख से भी ज्यादा मुकदमें हाई कोर्ट और निचली अदालतों में लंबित हैं। इनमें से लाखों मुकदमें तो पिछले 30-30, 40-40 साल से हाईकोर्ट में लंबित है। पिछले 20 साल से ज्यादा समय से लगभग एक करोड़ से ज्यादा मुकदमें निचली अदालतों में लंबित हैं और न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, इस समय उत्तर प्रदेश की विभिन्न अदालतों में 1 करोड 20 लाख से भी ज्यादा मुकदमें दीवानी, क्रिमिनल और परिवार न्यायालयों में लंबित हैं। इनमें से 88 लाख 85 हजार मुकदमें अपराधिक मुकदमे हैं। 16 लाख 88 हजार मुकदमें दीवानी न्यायालय में लंबित है और लगभग चार लाख मुकदमें परिवार न्यायालयों में पिछले 10-15 साल से लंबित हैं। इसी तरह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 10 लाख 36 हजार मुकदमे पिछले कई सालों से लंबित हैं। इनमें से 5 लाख 60 हजार मुकदमें सिविल नेचर के हैं तो बाकी मुकदमें अपराधिक प्रकृति के हैं। श्रम न्यायालय, इनकम टेक्स कोर्ट, सैल्स टैक्स कोर्ट आदि में जो मुकदमे चल रहे हैं, वे इनमें शामिल नहीं हैं।
वैसे इस वक्त हमारे देश में पांच करोड़ मुकदमों से भी ज्यादा अदालतों में लंबित हैं और इनमें से अधिकांश 10-10, 15-15 साल से निपटारे की बाट जोह रहे हैं। यहां पर सबसे बड़ा सवाल है कि आखिरकार मुकदमों की इतनी पैंडेंसी उत्तर प्रदेश में क्यों है? जब इस बारे में गहराई से तहकीकात की गई तो पता चला कि निचली अदालतों में मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीश नहीं हैं। बहुत सारे न्यायाधीशों के पद पिछले 10-10, 15-15 सालों से खाली पड़े हैं और यह भी पता चला है कि हाईकोर्ट और 35 परसेंट और निचली अदालतों में 25 परसेंट जजों के पद बर्षों बरस से खाली पड़े हुए हैं और इन्हें सरकार लगातार खाली रखती चली आ रही है और इनकी समय से नियुक्तियां नहीं कर रही है।
यही हालत उत्तर प्रदेश के श्रम न्यायालयों, औद्योगिक न्यायाधिकरणों और सहायक श्रमायुक्त के पदों की है। यहां पर 50% से ज्यादा पीठासीन अधिकारी के पद पिछले तीन-तीन चार-चार साल से खाली पड़े हुए हैं और लगातार आंदोलन करने के बावजूद भी सरकार इस और कोई ध्यान नहीं दे रही है। यह भी पता चला है कि जहां पर 1000 सरकारी कर्मचारी होने चाहिएं, वहां पर सिर्फ 90 सरकारी कर्मचारी काम कर रहे हैं, बाकी का सारा काम इन सरकारी कर्मचारियों द्वारा प्राइवेट यानी निजी कर्मचारियों द्वारा कराया जा रहा है।
इन प्राइवेट कर्मचारियों को सरकार से कोई वेतन भत्ते नहीं मिलते हैं। इनको वेतन देने का सारा इंतजाम सरकारी कर्मचारी करते हैं और इन कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों द्वारा कैसे वेतन दिया जाता है, यह सिर्फ वकील और वादकारी भली भांति जानते हैं और हकीकत यह भी है कि जो काम निजी कर्मचारी नहीं कर सकते, उस काम को भी इन निजी कर्मचारियों से कराया जा रहा है जैसे स्टेनो का न होना। कई फैसले इन्हीं निजी कर्मचारियों द्वारा लिखे जा रहे हैं, बयान भी इन्हीं निजी कर्मचारियों द्वारा लिखे जा रहे हैं। फाइलों का रखरखाव तो अधिकांशतः इन्हीं निजी कर्मचारियों से कराया जा रहा है।
इस बारे में सरकार से और इंस्पेक्टिंग जजों से, वकीलों के संगठनों द्वारा, बहुत बार मांग की गई है और उन्हें सरकारी कर्मचारियों की कमी के बारे में अवगत कराया जाता रहा है और यह काम पिछले 20 साल से लगातार किया जा रहा है, मगर इस बारे में न तो जिला जज कोई कार्यवाही करता है और ना ही हाईकोर्ट के इंस्पेक्टिंग जज, इस बारे में कोई कार्यवाही करते हैं और ना ही उच्च न्यायालय इस ओर कोई कदम उठा रहा है।
हकीकत यह भी है कि सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है, वह बहुत सी योजनाओं की घोषणा कर रही है, मगर न्याय के बारे में, न्याय विभाग के बारे में, सस्ते और सुलभ न्याय के बारे में, उसकी कोई योजना नहीं है, उसकी कोई घोषणा नहीं है। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे सरकार कर्मचारियों को दी जाने वाली देनदारियों और वेतन, भत्तों आदि से बचने के लिए न्यायालयों में जानबूझकर सरकारी कर्मचारियों की नियुक्तियां नहीं कर रही है।
कई न्यायालयों में तो ऐसा देखा गया है कि जहां जजों की नियुक्ति तो हो जाती है मगर वहां पेशकार और स्टेनो के न होने की वजह से वे तीन तीन साल तक काम करके चले जाते हैं, मगर वो बेचारे चाह कर भी कोई जजमैंट नहीं लिख पाते, जिस तरह कोई काम आगे नहीं बढ़ पाता और कोई फाइल आगे नहीं बढ़ पातीं। बेचारा वादकारी तारीख पर तारीख लेकर न्यायालय के चक्कर काटता रहता है, मगर उसे न्यायालय से कुछ नहीं मिल पाता। अब तो तो कई वादकारी अपना मुकदमा बीच में ही छोड़कर अपने घर बैठ जाते हैं। वकील और जज चाह कर भी इन बेचारे वादकारियों को कोई इंसाफ नहीं दिला पाते।
यहीं पर इस हकीकत पर भी ध्यान देना जरूरी है कि हमारी सरकार निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण जैसी पश्चिमी विचारों को अमल में ला रही हैं और जनता के हितों का ध्यान रखे बगैर पश्चिमी नीतियों की नकल कर रही है। वहीं पर पूरी दुनिया के पैमाने पर जहां 10 लाख लोगों पर 107 जज होने चाहिएं, वही हमारे यहां 10 लाख लोगों पर केवल 20 जज हैं। इस प्रकार हमारे यहां न्यायिक व्यवस्था में जहां 1करोड 20 लाख लोगों पर 1284 जज होने चाहिएं, वही हमारे यहां मात्र 144 जज हैं। इस प्रकार न्याय के क्षेत्र में हमारी सरकार जनता के साथ न्याय करने को तैयार नहीं है। वह जनसंख्या के अनुपात में जज नियुक्त करने को तैयार नहीं है और वह उनके साथ लगातार अन्याय करती जा रही है।
इस प्रकार हम पूर्ण रूप से मुत्मइन होकर कह सकते हैं कि जैसे राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही है, वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय देना उसके एजेंडे में भी नहीं है। उसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार भी जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं दे रही है। हम बिल्कुल आश्वस्त होकर कह सकते हैं कि अगर यही क्रम जारी रहा तो उत्तर प्रदेश की वादकारी जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता।
सरकार की न्याय विरोधी मंशा के चलते वादकारी यूं ही न्याय की बाट देखते-देखते इस दुनिया से चले जाएंगे और उन्हें कभी भी सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता और इसके लिए और कोई नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश सरकार जिम्मेदार है और वह संविधान द्वारा बनाए गए सस्ते और सुलभ न्याय के सिद्धांतों का खुलकर और जानबूझकर उलंघन कर रही है। उसने तो जैसे संविधान के प्रावधानों को ताक पर ही रख दिया है और वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय न देने की कसम खा रखी है।
हम पिछले कई वर्षों से लगातार देखते चले आ रहे हैं कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के बारे में सरकार की कोई मंशा नहीं है और इस मामले में विभिन्न दलों की सरकारें जैसे कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी और सपा, सब शामिल हैं। सबसे विचित्र और आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि गरीबों की तरफदारी करने वाली, इन तमाम पार्टियों का जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने का कोई भी इरादा और नारा नहीं है और अब तो हकीकत यही है कि इन अधिकांश विपक्षी दलों ने जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने की मांग करना या आंदोलन करना ही छोड़ दिया है। इस प्रकार वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय देने का इनका कोई इरादा या रुचि ही नहीं रह गई है।