इंदौर में पुलिस थाने में मामला दर्ज करवाने के बाद पीड़िता द्वरिका बाई और उनका बेटा
बीते दिनों सूबे में दो घटनाओं ने सभी को हैरत में डाल दिया। भोपाल में एक महिला प्रोफेसर ने अल्पसंख्यक समुदाय के फल विक्रेता के साथ दुर्व्यवहार किया। वहीं इंदौर में एक चिकित्सक द्वारा सब्जी बेचने वाले मां-बेटे को पिटवाया गया। बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में फल की रेहड़ी चलाने वाले एक अल्पसंख्यक से महिला प्रोफेसर द्वारा किया गया दुर्व्यवहार अभी लोगों के जेहन से उतरा भी नहीं था कि इंदौर में एक चिकित्सक द्वारा आदिवासी समाज से आने वाले सब्जी बेचने वाले मां-बेटों को पिटवाने का मामला सामने आ गया। सूबे में समय-समय पर राजनीतिक नजरिए से एक दल विशेष के समर्थक माने जाने वाले सवर्ण समुदायों/उच्च जातियों द्वारा अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के साथ बेहतर बर्ताव न किए जाने के आरोप अक्सर ही लगते रहे हैं। मगर, अब इस नफरत को व्यक्तिगत स्तर तक आते देख कई हैरत में हैं।
इस पूरे प्रकरण को उठाने वाले जय आदिवासी युवा संगठन से जुड़े रविराज बघेल का मानना है कि पुलिस द्वारा शोषकों का मददगार बनने की भूमिका ही इस तरह के कारनामे करवाती है। इंदौर की घटना का उदाहरण देते हुए वह बतलाते हैं कि जब मां और बेटे अपनी फरियाद लेकर थाना पहुंचे तो उनके साथ किया गया व्यवहार शिव राज चौहान सरकार के उस दावे के बिल्कुल विपरीत था जो अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के विरुद्ध किए गए अपराधों में पुलिस को दी गई सीख के संबंध में किए जाते हैं। उन्होंने कहा कि पहले तो पुलिस वालों ने महज मामूली धाराओं में ही प्रकरण दर्ज किया था, जिनमें थाने से ही जमानत हो जाती। जयस द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के बाद संबंधित एसीपी के कहने पर अजा/अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत प्रकरण दर्ज किया गया। यह बताता है कि बहुजनों के प्रति पुलिस कितनी असंवेदनशील है। वे आरोप लगाते हैं कि पुलिस के इसी सवर्ण मानसिकतावादी रवैये और नेताओं द्वारा मिले संरक्षण के चलते ही जातिगत उन्माद में अंधे लोगों की हिम्मत बढ़ती है। उनके अनुसार उक्त चिकित्सक के बारे में पूर्व से ही कई शिकायतें प्रशासन के पास लंबित हैं जिनकी पुष्टि वे करवा रहे हैं। इनमें से सबसे गंभीर शिकायत बिना किसी वैध डिग्री के एलोपैथी पद्वति से लोगों का इलाज करना और फर्जी मरीजों के नाम पर आयुष्मान कार्ड से पैसे प्राप्त करना है।” वे प्रशासन के रवैये पर भी सवाल उठाते हैं, जो जीवन यापन करने के लिए शहर आने वाले हाशिए के समाज के सदस्यों को सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवा पाता।
इंदौर के प्रकरण में जयस के साथ खड़े होने वाले संगठन रोटी का संघर्ष यूनियन से जुड़े अधिवक्ता हरीश जामले इसके पीछे एक अन्य ही पहलू देखते हैं। वे कहते हैं कि शहर को स्मार्ट और खूबसूरत बनाने की बातों के दौरान लोगों के मन में यह बात बिठा दी गई है कि ठेले वालों से शहर बदसूरत लगता है। शायद यही कारण है कि भोपाल और इंदौर, दोनों ही प्रकरणों में लोग महज तमाशबीन बने रहे। वे जोड़ते हैं कि हाशिए पर रहे समाज को कोई भी आगे बढ़ते देखना नहीं चाहता। जंगल हो, गांव हो या फिर शहर न जाने क्यों लोगों को लगता है कि इन्हें किसी प्रकार की कोई सुविधा नहीं दी जानी चाहिए। वे बताते हैं कि इंदौर के प्रकरण में मुख्य आरोपी के विरुद्व पहले भी मारपीट की शिकायतें संबंधितों तक किए जाने की बात उनकी जानकारी में आई है। मगर यदि यह सही है तो इस बात का स्पष्ट प्रतीक भी है कि पुलिस और प्रशासन किस तरह समर्थ का साथ देने मे कोई कसर नहीं छोड़ते।
कांग्रेस नेता और देवास में पार्षद रह चुके सुजीत सांगते भी हरीश की बातों से सहमत नजर आते हैं। वे इसे महज संयोग नहीं मानते कि इंदौर में आदिवासी समाज से आने वाले मां-बेटे के साथ मारपीट का मामला के तूल पकड़ते ही स्थानीय मेडिकल कालेज के छात्रावास में बाबा साहब भीम राव अंबेडकर का नाम मिटाए जाने की घटना सामने आ गई। ऐसे में न केवल समता की लड़ाई लड़ने वालों को अलग-अलग तरफ ध्यान देना पड़ जाता है। इसके कारण पुराने मुद्दे भी समाज को याद नहीं रहते।
बहरहाल, भोपाल और इंदौर की घटनाओं में प्रशासन की भूमिका न केवल शिवराज सरकार के द्वारा किए जा रहे दावों की कलई खोलती है, वरन बरबस ही दुष्यंत कुमार की याद भी दिला देती है, जिन्होंने लिखा था–
मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।