मज़दूरों और मेहनतकशों को याद रखना चाहिए कि अगर वे दमन व उत्पीड़न, फ़ासीवादी हिंसा की हर घटना के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो वे शासक वर्ग, राज्यसत्ता और फ़ासीवादी शक्तियों के हिंसा करने को मौन सहमति देता है और इसी हिंसा का ये प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ कल मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध भी खुलकर इस्तेमाल करेंगी। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग एक क्रान्तिकारी राजनीतिक वर्ग के तौर पर अपने आपको तभी संगठित कर सकता है जब व शोषण, दमन व उत्पीड़न की हर घटना के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाये चाहे वह उसके देश में हो या फिलिस्तीन में, चाहे वह मुसलमानों, औरतों या दलितों का ख़िलाफ़ हो या फिर दमित राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के विरुद्ध। यह हमारा बुनियादी उसूल है।
अजित
‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक के सम्पादकीय में यह पूर्वानुमान लगाया गया था कि मोदी-नीत भाजपा द्वारा अपने बूते पूर्ण बहुमत से सरकार न बना पाने और नीतीश-नायडू की बैसाखी के बूते गठबन्धन सरकार बनने से दो चीज़ों में कोई बदलाव नहीं आयेगा: मोदी सरकार की मज़दूर-विरोधी व जन-विरोधी आर्थिक नीतियाँ और संघी फ़ासीवादियों के गिरोहों द्वारा सड़क पर हिंसा। ये दोनों ही पूर्वानुमान शत-प्रतिशत सही साबित हुए हैं।
मोदी-नीत गठबन्धन सरकार के तीसरी बार सत्ता में पहुँचने के साथ ही फ़ासीवादियों की बौखलाहट सड़क पर फ़ासीवादी हिंसा की बढ़ती वारदातों के रूप में सामने आयी है। 4 जून को चुनाव परिणाम घोषित होने के सिर्फ़ एक महीने के भीतर ही फ़ासीवादी भीड़ों द्वारा मॉब-लिंचिंग की कई घटनाओं को खुलेआम अंज़ाम दिया गया। मध्य प्रदेश, राजस्थान से लेकर उड़ीसा व उत्तर प्रदेश तक में ऐसी घटनाओं की बाढ़-सी आ गई है। 7 जून को छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक मुस्लिम युवक की पीट- पीटकर हत्या कर दी गई। यूपी के मुरादाबाद और अलीगढ़ में भी मुस्लिम युवकों को फ़ासीवादी भीड़ द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। राजस्थान में गौ तस्करी के नाम पर दो हिन्दू युवकों की हत्या कर दी गई। उड़ीसा से भी मॉब- लिंचिंग की कई घटनाएँ सामने आई है।
इन सारी ही घटनाओं में आरोपी भाजपा या संघ परिवार के किसी अनुषंगिक संगठन से जुड़े हुए थे। इनमें से ज़्यादातर लोग स्वयं को “गौ रक्षक” बताते हैं एवं गोकशी करने वालों को मौत के घाट उतार कर उन्हें सजा देने को “पवित्र काम” मानते हैं। हालाँकि उपरोक्त घटनाओं में से ज़्यादातर घटनाओं में गोकशी की बात पूरी तरह से झूठी पाई गई है। पिछले महीने ही गुजरात में एक क्रिकेट मैच में हुए विवाद के दौरान एक मुस्लिम क्रिकेटर के ऊपर भीड़ ने हमला कर दिया और उसके साथ जय श्री राम के नारे लगाने की ज़बरदस्ती की। मॉब-लिंचिंग की घटनाएँ गठबन्धन सरकार के साथ मोदी के सत्ता में आने के साथ भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। भाजपा की सरकार कभी भी इन घटनाओं पर कोई कदम नहीं उठाती, उल्टे कई मामलों में आरोपियों को बचाने तक की कोशिश करती है।
भाजपा एवं संघ परिवार के गोरक्षा एवं गो-प्रेम की असलियत यह है कि देश की सबसे बड़ी बीफ़ कम्पनी का मालिक भाजपा का नेता बना बैठा है। बड़ी-बड़ी बीफ़ कम्पनियों से भाजपा करोड़ों रुपए का चन्दा लेती है। इसके साथ ही उत्तर भारत में गोरक्षा के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा केरल, गोवा व उत्तर पूर्व के राज्यों में चुनाव के दौरान बढ़िया क्वालिटी के बीफ़ की सप्लाई का वादा करती है। इन सारी घटनाओं पर स्वघोषित गोरक्षकों को कोई दिक्क़त नहीं है। इन घटनाओं से भाजपा व संघ परिवार के असली चेहरे और दोहरे चरित्र का पता चलता है। असल में, गोरक्षा के नाम पर व्यापक मेहनतकश मुसलमान आबादी को निशाना बनाना और देश में साम्प्रदायिक माहौल पैदा करना असली मकसद है।
मॉब-लिंचिंग की घटनाओं में आमतौर पर गरीब व निम्न मध्यवर्गीय मुसलमान को निशाना बनाया जाता है और एक बड़ी मुसलमान आबादी के बीच डर का माहौल पैदा किया जाता है। मॉब-लिंचिंग की इन घटनाओं पर सोचते समय यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि यह फ़ासीवादी राजनीति का ही एक हिस्सा है। शुरू में फ़ासीवादी राजनीति के तहत अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है, उन्हें एक नकली दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है, फ़ासीवादी नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रवक्ता और हृदय-सम्राट के रूप में पेश किया जाता है और बाद में हर उस शख़्स को जो फ़ासीवादी सरकार की आलोचना करता है, उसे इस नकली दुश्मन की छवि में समेट लिया जाता है। नतीजतन, केवल किसी अल्पसंख्यक समुदाय को ही काल्पनिक दुश्मन के रूप में नहीं पेश किया जाता बल्कि नागरिक-जनवादी अधिकारों के लिए लड़ने वालों, मज़दूरों व उनकी ट्रेड यूनियनों, और फिर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को बहुसंख्यक समुदाय के दुश्मन के रूप में पेश किया जाता है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, वह तमाम लोग जो समाज में वैज्ञानिकता, तार्किकता एवं अन्धविश्वास उन्मूलन का काम करते हैं, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया जाता है। दाभोलकर, कलबुर्गी व पनसारे की हत्याएँ इस बात का सबूत है। मॉब लिंचिंग की इन घटनाओं के द्वारा आम लोगों के बीच गोरक्षा व लव-जिहाद जैसे नक़ली मुद्दों को पेश किया जाता है। इन नक़ली मुद्दों में फँसकर मेहनतकश अवाम अपने ज़रूरी एवं असली सवाल न उठा सकें इसलिए ऐसा किया जाता है।
मज़दूरों और मेहनतकशों को याद रखना चाहिए कि अगर वे दमन व उत्पीड़न, फ़ासीवादी हिंसा की हर घटना के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते तो वे शासक वर्ग, राज्यसत्ता और फ़ासीवादी शक्तियों के हिंसा करने को मौन सहमति देता है और इसी हिंसा का ये प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ कल मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध भी खुलकर इस्तेमाल करेंगी। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग एक क्रान्तिकारी राजनीतिक वर्ग के तौर पर अपने आपको तभी संगठित कर सकता है जब व शोषण, दमन व उत्पीड़न की हर घटना के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाये चाहे वह उसके देश में हो या फिलिस्तीन में, चाहे वह मुसलमानों, औरतों या दलितों का ख़िलाफ़ हो या फिर दमित राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के विरुद्ध। यह हमारा बुनियादी उसूल है।