भोपाल। बीते आम चुनाव में कार्यकर्ताओं व नेताओं की सरकार में रहते की गई अनदेखी के चलते नाराजगी भाजपा को भारी पड़ने के बाद भी सत्ता व संगठन सबक लेने को तैयार नहीं दिख रहा है। यही वजह है कि कार्यकर्ताओं व टिकट के मजबूत दावेदारों तक का सत्ता में वापसी के डेढ़ साल बाद भी ख्याल नहीं रखा जा रहा है। शायद यही वजह है कि अपने इन कार्यकर्ताओं को अब तक सत्ता में भागीदारी से दूर ही रखा जा रहा है।
निगम मंडलों और आयोगों में रिक्त पदों को भरने को लेकर हाल ही में तेज हुई अटकलों के बाद एक बार फिर इन नियुक्तियों का मामला अटक जाने से दावेदारों में मायूसी छा गई है। इसके लिए सत्ता व संगठन द्वारा श्रीमंत समर्थकों के नामों को लेकर मामला टाल दिया गया है। अगर यह मामला ऐसा ही टाला जाता रहा तो स्थानीय निकाय चुनावों में पार्टी को कार्यकर्ताओं की नाराजगी भारी पड़ सकती है। दरअसल भाजपा संगठन और सत्ता में प्रभावशाली माने जाने वाले नेता निगम मंडलों में अपने-अपने समर्थकों को देखना चाहते हैं, जिसकी वजह से पद कम और दावेदार अधिक हैं। इसमें भी कांग्रेस से दलबदल कर समर्थकों के साथ भाजपा में आने वाले श्रीमंत अपने आधा दर्जन नेताओं को लेकर लगातार दबाव बनाए हुए हैं। वे खासतौर पर उन नेताओं की सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, जो उपचुनाव में हार गए हैं। ऐसे नेताओं में इमरती देवी, गिर्राज दंडोतिया, मुन्ना लाल गोयल, जसवंत जाटव और रघुराज कंसाना के नाम शामिल हैं। इनके नामों को लेकर सत्ता व संगठन में सहमति नहीं बन पा रही है। इसकी वजह से मामला आगे नहीं बढ़ पा रहा है। उधर संगठन व सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता भी अपने-अपने समर्थकों को निगम मंडल में देखना चाहते हैं। संगठन को डर है कि अगर श्रीमंत समर्थक आधा दर्जन नेताओं को निगम मंडलों की कमान दी गई तो उनका मूल कार्यकर्ता नाराज हो सकता है। इस डर के चलते मामला टालना उचित माना जा रहा है। लगातार यह मामला टलने की वजह से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में अंसतोष बढ़ने का कारण भी बन रहा है। वैसे भी अपने समर्थकों को सर्वाधिक कार्यसमिति में सदस्यों के रुप में जगह मिलने के बाद भी श्रीमंत खुश नही हैं, इसकी वजह है पदाधिकारियों में उनके समर्थकों को महत्व नहीं दिया जाना है। यही वजह है कि अब उनकी नाराजगी दूर करने के लिए पार्टी प्रवक्ता और मिडिया पैनलिस्ट में उनके कुछ समर्थकों को जगह देने का फैसला कर लिया गया है। माना जा रहा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा, संगठन महामंत्री सुहास भगत और सह संगठन महामंत्री हितानंद से भी चर्चा कर चुके हैं, लेकिन सूत्रों की माने तो संगठन नेताओं ने उनसे कहा कि इस मामले में थोड़ा इंतजार करना ठीक होगा। इसके अलावा इस मामले को लेकर केंद्रीय नेताओं से एक बार फिर राय लेने की बात कही गई। सीएम हाउस में भी उनके द्वारा इस मामले को लेकर जोर दिया गया, लेकिन इस मामले में अंतिम निर्णय नहीं हो पाया। बताया जाता है कि राष्ट्रीय नेताओं से चर्चा कर निर्णय लेने की बात कहकर मामले को फिलहाल टालने का प्रयास किया गया। माना जा रहा है कि संगठन के नेता इस मामले को लेकर अब राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और संगठन महामंत्री बीएल संतोष से चर्चा करेंगे। वहीं सिंधिया का भी इस मामले में दिल्ली प्रवास के दौरान एक दो दिन में इन नेताओं से मिलने का कार्यक्रम है।
दिल्ली से होगा फैसला
माना जा रहा है कि निगम मंडलों और आयोगों में दावेदारों के नामों को लेकर आम सहमति न बनने की वजह से अब मामला कुछ माह के लिए टाल दिया गया है। इस बीच मंथन कर आम सहमति का प्रयास किया जाएगा। अगर इसके बाद भी बात नहीं बनती है तो फिर इस मामले में दिल्ली स्तर पर ही फैसला किया जाएगा। इसके लिए दिल्ली पर मामला छोड़ने की भी सत्ता व संगठन में सहमति बताई जा रही है।
कई आयोग भी बने मुसीबत
प्रदेश के कई आयोग पूर्व की भाजपा सरकार के समय सरकारी उपेक्षा का शिकार बने हुए थे , जिसकी वजह से उनमें होने वाली राजनैतिक नियुक्तियां नहीं की गई थीं। चुनाव में प्रदेश की सत्ता गई तो कांग्रेस की सरकार ने मौके का फायदा उठाते हुए अपने नेताओं की उनमें ताजपोशी कर दी थी। इसके बाद भाजपा सत्ता में तो लौटी , लेकिन नियमों के चलते वह इन पदों से कांग्रेस नेताओं को बाहर नहीं कर सकी। इसकी वजह से अधिकांश आयोगों में अब चाहकर भी भाजपा सरकार अपने लोगों की ताजपोशी नहीं कर सकती है। इस स्थिति का सामना करने के बाद भी प्रदेश की भाजपा सरकार इस बार भी सबक लेने को तैयार नहीं दिख रही है।
भाजपा की यह है मजबूरी
दरअसल उपचुनाव के दौरान वादे के मुताबिक श्रीमंत समर्थकों को पार्टी ने उम्मीदवार बनाया था। इस दौरान पार्टी के श्रीमंत समर्थक नेताओं से चुनाव हारने वाले नेता भी टिकट की दावेदारी कर दलबदलुओं को प्रत्याशी बनाए जाने से नाराज होकर खुलकर विद्रोह की स्थिति में आ गए थे। उन्हें मनाने के लिए सत्ता व संगठन की ओर से निगम मंडलों में एडजस्ट करने का भी भरोसा दिया गया था। ऐसे में यह नेता भी अपनी दावेदारी कर रहे हैं। ऐसे नेताओं में करीब दो दर्जन नेताओं की भारी संख्या है। अगर इन नेताओं की अनदेखी की गई तो उनकी नाराजगी पार्टी को भारी पड़ सकती है। यही वजह है कि सत्ता व संगठन इस मामले को टालना ही बेहतर समझ रहे हैं।