~ कुमार चैतन्य
नमस्कार और नमाज़ نماز एक ही मूल से निकले शब्द हैं। दो अलग-अलग मज़हबों के महत्वपूर्ण शिष्टाचार हैं। दुनिया-जहान के आराधना-विधान में परमतत्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का आशय रहा है। अपने से बड़े के प्रति आदर जताने के लिए विनत होना, झुकना एक मान्य संस्कार है।
नमाज़, सजदा, प्रणाम, दण्डवत सभी में झुकने का भाव है। नमस्कार सिर्फ़ अभिवादन मात्र नहीं, यह एक व्यक्ति की दूसरे के प्रति आदरयुक्त अभ्यर्थना है। नमाज़ फ़ारसी शब्द है। सिजदा, सलात आदि अरबी शब्द हैं। नमाज़ के अर्थ में अरबी में सलात का ज़्यादा प्रयोग होता है।
फ़ारसी के ज़रिये ही नमाज़ अरबी शब्दावली में भी है। दोनों का मूल वैदिक भाषा की नम् क्रिया है जिसमें झुकने, नमने का भाव है।
*करबद्ध मुद्रा में विश्वबंधुत्व :*
नमस्कार में विनय के साथ स्वागत का भाव है। आमतौर पर हथेलियों को जोड़ने मात्र जैसी क्रिया को नमस्कार समझ लिया जाता है। नमस्कार की करबद्ध मुद्रा मन, वचन और कर्म सहित अभ्यर्थना का प्रतीक है। हाथ कर्म का प्रतीक हैं।
करबद्ध होकर झुकना ही नमस्कार है। यह विश्वबंधुत्व की शुरुआत है। इस्लामी दुनिया में अभिवादन या विनय प्रदर्शन करने के अन्य शिष्टाचार हैं। मगर शब्दों के सफर पर नज़र डालें तो इस्लामी परम्परा में भी यह नमस्कार एक दूसरे रूप में दिखाई पड़ता है उसकी वजह है इस शब्द की इंड़ो-ईरानी परिवार से रिश्तेदारी।
नमस्कार बना है संस्कृत की नम् क्रिया से जिसका मतलब है झुकना, सम्मान दिखाना आदि। इससे ही बने हैं नम्र, विनम्र जैसे शब्द जिनमें विनय के साथ साथ झुकने का भाव निहित है।
*नमस् > निमह > नमास > नमाज़ :*
इस्लाम में ईश्वर प्रार्थना की प्रक्रिया नमाज़ نماز कहलाती है। नून मीम अलिफ़ ज़े से मिलकर नमाज़ बनता है। यह पाँच बार संपन्न होती है। गौर करें नम् मे निहित झुकने के भाव पर। नमाज़ में सिजदे के तहत झुकने या शीश नवाँने की क्रिया संपन्न हो रही है। संस्कृत और पुरानी फारसी यानी अवेस्ता सगी बहनें थीं।
इस रूप में जिस नम् से संस्कृत में नमस् जन्मा। उसी का अवेस्ता रूप है निमह जहाँ नमस् के ‘स’ का रूपान्तर ‘ह’ में हुआ। पहलवी में यह हुआ नमास जो बाद में फारसी में नमाज़ के रूप में ढल गया। अरबी में भी यह लफ्ज़ फारसी से ही गया है।
अरबी, फारसी ,उर्दू और हिन्दी में आज इससे बने कई शब्द प्रचलित हैं जैसे नमाज़ी, निमाज़, नमाजे़ ईद, नमाज़े जनाज़ा, नमाज़गुज़ार वगैरह वगैरह।
*प्रणत्-प्रणति-विनती :*
झुकने आदि के लिए हिन्दी में प्रचलित नमना या नवांना (शीश नवांना) जैसे शब्द भी नम् धातु से ही बने हैं। नमस्कार, नमन्, नमामि आदि प्रार्थना-मूलक, अभिवादन-सूचक शब्दों का निर्माण भी नम् धातु से ही हुआ है।
झुकने के अर्थ में ही नत् या नत शब्द भी है जो इसी मूल से निकला है। इस श्रंखला में आते हैं विनत, विनती और बिनती जैसे देसी शब्द जो प्रार्थना के अर्थ में खूब प्रचलित हैं।
प्रणत, प्रणति, प्रणिपात आदि शब्द भी इसी कड़ी में हैं। नमनि, नमनीय और यहां तक की नमस्कारना जैसे क्रिया रूप भी इससे बन गए।
*प्रणाम से से दण्डवत तक :*
नमस्कार के अर्थ में ही हिन्दी-संस्कृत में प्रणाम शब्द बहुत प्रचलित है। यह भी इसी कड़ी का हिस्सा है और नम् धातु से ही बना है। प्रणाम से ही बना है प्रणिपतनम् या प्रणिपातः जैसे शब्द जिसमें दंडवत नमस्कार अथवा चरणों गिरने का भाव है।
यही साष्टांग नमस्कार भी है। प्रणाम अथवा अभिवादन करने का एक तरीका है दण्डवत नमस्कार। यह भूमि के समानान्तर सरल रेखा में लेट कर किया जाता है। दण्डवत अथात डंडे के समान।
जिस तरह डंडा भूमि पर पड़ा रहता है , आराध्य के सामने अपने शरीर की वैसी ही मुद्रा बनाकर नमन करने को ही दण्डवत कहा जाता है।
*प्रणिपात यानी साष्टाँग :*
प्रणाम की एक मुद्रा का नाम साष्टांग (स+अष्ट+अंग) नमस्कार भी है। गौरतलब है कि दण्डवत मुद्रा में शरीर के आठों अंग (अष्टांग) आराध्य अथवा गुरू के सम्मान में भूमि को स्पर्श करते हैं ये हैं-छाती, मस्तक, नेत्र,मन, वचन,पैर, जंघा और हाथ।
इसी मुद्रा को साष्टांग प्रणिपात कहा जाता है जिसके तहत मन और वचन के अलावा सभी अंगों का स्पर्श भूमि से होता है। मन से आराध्य का स्मरण किया जाता है और मुंह नमस्कार या प्रणाम शब्द का उच्चार किया जाता है।
*मसजिद में सज़दा :*
अरबी ज़बान का सज्दा سجدة शब्द भी अभिवादन या आदरांजलि का ही एक रूप है जिसे हिन्दी में सिजदा भी कहा जाता है। सिजदा का अर्थ होता है झुक कर अभ्यर्थना करना। भारतीय संस्कृति में जिसे दंडवत कहते हैं दरअसल सिजदा में वही भाव है।
यह उपासना की वही पद्धति है जिसमें माथा, नाक, घुटना, कुहनियां और पैरों की अंगुलियां ज़मीन को छूती हैं। यह बना है अरबी भाषा की क्रिया सीन जीम दाल (س ج د) से जिसमें प्रार्थना करने, घुटनों के बल झुकने, नमने या दंडवत करने का भाव है।
अरबी भाषा का एक प्रसिद्ध उपसर्ग है म जिसमें सहित या शामिल का भाव होता है। म लगने से सज्दा (सज्दः) बनता है मसजिद مسجد जिसका मतलब है प्रार्थना स्थल या इबादतगाह।