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तुमसे पहले के तख़्तनशीं को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था 

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       पुष्पा गुप्ता 

28 अप्रैल 1945 को, बेनिटो मुसोलिनी को इटली के कम्युनिस्ट छापामारों ने पकड़ा था और गोली से उड़ा दिया था। 

अपनी जनता को विश्वविजय के सपने दिखाते हुए मुसोलिनी ने 1940 में इटली को नाज़ी जर्मनी की तरफ़ से दूसरे विश्व युद्ध में झोंक दिया था, लेकिन जल्द ही इटली को चौतरफ़ा हारों का सामना करना पड़ा। जुलाई 1943 में राजा विक्टर इमैनुएल ने मुसोलिनी को पद से हटाकर नज़रबन्द करवा दिया। 

     फिर सितम्बर ’43 में हिटलर के आदेश पर नाज़ी पैराट्रुपर्स ने धावा बोलकर उसे क़ैद से छुड़ा लिया और उसे उत्तरी इटली में जर्मन आधिपत्य वाले इलाक़े का कठपुतली शासक बना दिया गया।

       लेकिन दक्षिण से बढ़ती आ रही मित्र राष्ट्रों की सेनाओं और देश के भीतर कम्युनिस्ट छापामारों के ज़बर्दस्त अभियान ने मुसोलिनी की हालत ख़राब कर रखी थी। अप्रैल 1945 में, मित्र राष्ट्रों के हमले में उत्तरी इटली में अन्तिम जर्मन गढ़ ध्वस्त हो गये और शहरों में छापामारों की अगुवाई में हुई आम बग़ावत के बाद मुसोलिनी की सत्ता की चूलें हिल गयीं।

     25 अप्रैल को वह मिलान, जहाँ उसका आधार था, से भाग निकला। उसका इरादा सीमा पार करके स्विट्ज़रलैंड जाने का था।  पहचान से बचने के लिए मुसोलिनी ने जर्मन वायुसेना की वर्दी और हेल्मेट पहन रखा था। लेकिन पिछले दो दशक से इटली के हर नुक्कड़-चौराहे पर उसका चेहरा लोगों को दिखता रहा था। उसे आसानी से पहचान लिया गया।

       27 अप्रैल को कोमो झील के किनारे दोंगो गाँव के पास स्थानीय छापामारों ने उसे और उसकी प्रेमिका क्लेरेता पेताची को पकड़ लिया। अगली दोपहर को, यानी हिटलर की आत्महत्या से दो दिन पहले, जिउलिनो दि मेज़ेग्रा गाँव में दोनों को गोली से उड़ा दिया गया।

      मुसोलिनी, पेताची और अन्य फ़ासिस्ट नेताओं के शवों को मिलान ले जाया गया और, पियात्ज़ेल लोरेतो चौक में छोड़ दिया गया। पियात्ज़ेल लोरेतो वही जगह थी जहाँ 10 अगस्त 1944 को फ़ासिस्टों ने पन्द्रह छापामार योद्धाओं को बर्बरता से मार डाला था। उनके शव कई दिनों तक वहाँ लटकते रहे थे।

      मुसोलिनी और फ़ासिस्टों के अत्याचारों से ग़ुस्साई एक बड़ी भीड़ फ़ासिस्टों के शवों पर टूट पड़ी। लोगों ने उन्हें लातों से मारा और उन पर घृणा से थूका। फिर उन्हें चौराहे पर एक पेट्रोल पम्प की छत के गर्डर से उल्टा लटका दिया गया। 

       वैसे 1920 और 1930 के दशक में मुसोलिनी की हत्या के कई प्रयास हुए थे लेकिन सत्ता पर और जनता के एक बड़े हिस्से पर फ़ासिस्टों की पकड़ बनी रही थी। मुसोलिनी का अन्त लाखों लोगों के जुझारू प्रतिरोध आन्दोलन का नतीजा था। इसकी शुरुआत 1943 में इतालवी कारख़ानों के हज़ारों मज़दूरों की आम हड़तालों से हुई जिसके बाद आम बग़ावतों और छापामार संघर्षों का सिलसिला तेज़ हो गया।

      25 अप्रैल 1945 को जो हुआ वह इसी की परिणति थी। ‘द कमिटी ऑफ़ नेशनल लिबरेशन’ ने अपने फ़ैसले में कहा था : “फ़ासिस्ट सरकार और फ़ासिस्ट पार्टी के पदाधिकारी लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करके उनकी स्वतंत्रता का दमन करने के दोषी थे, एक अत्याचारी शासन खड़ा करने के दोषी थे, और इटली को ख़तरे में डालने, उसके साथ विश्वासघात करने और उसे एक विनाशकारी युद्ध में झोंकने के दोषी थे।”

     दुनिया पर राज करने का ख़्वाब देखने वाले ‘इल दूचे’ (द लीडर) की फ़जीहत मरने के बाद भी जारी रही। शुरू में उसे एक अचिह्नित क़ब्र में दफ़नाया गया था, लेकिन 1946 में, इतालवी अंडभक्त उसकी क़ब्र को खोदकर उसके शव को चुरा ले गये।

      ‘जाने भी दो यारो’ के डिमैलो की तरह मुसोलिनी की बॉडी को कभी यहाँ-कभी वहाँ लेकर भागते रहे लेकिन चार महीने बाद अधिकारियों ने उसे बरामद कर लिया। अगले ग्यारह वर्षों तक उसे छिपाकर रखा गया।

       फिर 1957 में, उसके अवशेषों को उसके गृह नगर प्रेदापियो में मुसोलिनी परिवार की क़ब्रगाह में दफ़नाने की इजाज़त दी गयी।*

हिटलर और मुसोलिनी का उभार उस दौर में पूँजीवाद के संकट के गहराने का नतीजा था। आज फिर पूरी दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था गहरे संकट में है जिससे उबरने की कोई राह उसे दिखाई नहीं दे रही है। 

     इसी की प्रतिक्रिया में आज फिर से दुनियाभर में नव-फ़ासिस्ट या घोर दक्षिणपंथी ताक़तें सिर उठा रही हैं। इटली की बहुसंख्यक जनता आज भी इल दूचे के नाम पर थूकती है, लेकिन इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी, जो फ़ासिस्ट समर्थक पार्टी एमएसआई की सदस्य रही है, मुसोलिनी की तारीफ़ करती है।

      ज़्यादा दिन नहीं हुए जब आरएसएस की शाखाओं में हिटलर और मुसोलिनी के गुण गाये जाते थे और उसकी दुकानों पर ‘हिटलर महान’ जैसी किताबें बिका करती थीं। संघ के संस्थापकों में से एक, मुंजे तो इटली जाकर मुसोलिनी और दूसरे फ़ासिस्ट नेताओं से फ़ासिस्टों की तर्ज़ पर भारत में संगठन खड़ा करने के गुर सीखकर आये थे।

     (जिस वक़्त मुंजे इटली का दौरा कर रहे थे, वह मार्च 1931 का वही दौर था जब पूरा देश भगतसिंह और उनके साथियों को होने वाली फाँसी को लेकर आन्दोलित था!)

      हर तानाशाह इतिहास से सीखने के मामले में अड़ियल और मूर्ख होता है। उसे लगता है कि उसी से एक नया इतिहास शुरू होने वाला है। लेकिन जनता सबको एक दिन इतिहास के कूड़ेदान के हवाले कर देती है। 

     चाहे वह विश्वविजय के सपने देखने वाला इल दूचे हो या विश्वगुरु बनने के जुमले उछालने वाला मसखरा हो…

29 अप्रैल के एक अख़बार में छपी तस्वीर का कैप्शन – एक गैस स्टेशन के गर्डर से लटके शव। (बाएँ से) क्लारा पेताची, मुसोलिनी, एकिले स्तारात्से (फ़ासिस्ट पार्टी का पूर्व महासचिव)। 

     एक दर्शक ने नफ़रत से कहा : “आख़िरकार मुसोलिनी सुअर बन गया है!” (जैसे मांस की दुकानों में सुअरों को लटकाया जाता है).

   अख़बार का शीर्षक है :  मुसोलिनी मर गया. हिक़ारत भरी एक हँसी और एक लात : यही है उसका समाधि-लेख.

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