सुशील मानव
प्रयागराज (इलाहाबाद) में चल रहे महाकुंभ में बीते 29 जनवरी को मौनी अमावस्या के दिन भगदड़ मची। इसके कारण कितने लोगों की मौत हुई, इस बारे में राज्य सरकार द्वारा कोई सटीक आंकड़ा अभी तक नहीं बताया गया है। लेकिन मेला क्षेत्र में स्थित दस खोया-पाया केंद्रों के समेकित आंकड़ों के मुताबिक केवल मौनी अमावस्या के दिन 7500 से अधिक लोग लापता हुए थे। मेला प्रशासन का दावा है कि इसमें से 65 प्रतिशत महिलाएं हैं। इनमें दलित-बहुजन समाज की महिलाएं भी शामिल हैं। वे महिलाएं जो किसी तरह अपने घर वापस पहुंचीं, बताती हैं कि उन्हें किस तरह की तकलीफ और मुश्किलों का सामना करना पड़ा
मसलन, मध्य प्रदेश के सागर जिले की शाहगढ़ निवासी ललिता देवी अपने गांव-जवार की महिलाओं के समूह के साथ मौनी अमावस्या पर गंगा नहाने प्रयागराज आई थीं। लेकिन भगदड़ में वह अपने समूह से बिछड़ गईं। फिर किसी तरह बस में बैठकर वह इलाहाबाद से 120 किलोमीटर दूर जौनपुर जिले के शाहगंज पहुंच गईं। ज़ाहिर है शाहगढ़ और शाहगंज दोनों के मिलते जुलते नामों के चलते उन्हें भ्रम हो गया होगा। शाहगंज पहुंचकर वह रोने लगीं। स्थानीय लोगों ने उन्हें पुलिस कोतवाली पहुंचाया। इसके बाद मध्य प्रदेश पुलिस की मदद से ललिता देवी को उनके घर तक पहुंचाया गया।
ऐसे ही 55 वर्षीय राजकुमारी भगदड़ के बाद परिजनों से बिछड़ गईं। किसी के साथ वह भदोही जिले के ज्ञानपुर स्टेशन पहुंच गईं। वहां बैठकर वह रोने लगीं। उन्हें न तो अपने जिले का नाम पता था और न ही अपने गांव का नाम ठीक से पता था। वह मध्यप्रदेश के मंडला जिले के नैनपुर गांव की निवासी हैं। नैनपुर से मिलते-जुलते नाम के कारण वह ज्ञानपुर पहुंच गईं और स्टेशन पर रोने लगीं। रेलवे पुलिस की उन पर नज़र पड़ी तो ट्रेन से उतार लिया गया। हालांकि घंटों की पूछताछ के बाद पुलिस को उनके गांव के बारे में कुछ जानकारी मिली। तब रेलवे पुलिस ने मध्य प्रदेश पुलिस की मदद से गांव के सरपंच के माध्यम से परिजनों से संपर्क साधा।
महिलाओं को हुई तकलीफ का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 31 जनवरी की रात करीब 7-8 बजे इफको कारखाने से ड्युटी से छूटने के बाद भरौटी निवासी लालजी पटेल अपने दो अन्य साथियों संग घर लौट रहे थे। तभी उनकी नज़र बबूल के झुरमुटों से ढंके इफको के सूनसान अंधेरे राख के तालाब (ऐश पॉन्ड) की ओर तेज़ी से मुड़े ऑटो की ओर गया। उन्हें देखकर एक स्त्री ने चलती ऑटो से छलांग लगा दी। महिला को काफी चोटें आईं। बाइक खड़ी करके उन लोगों ने महिला की मदद की। उन्हें पास आता देख ऑटो वाला फरार हो गया।
दरअसल झारखंड के चतरा जिले की बरनी गांव की शारदा देवी अपने गांव के लोगों के एक जत्थे के साथ रिजर्व बस में मौनी अमावस्या पर गंगा नहाने प्रयागराज आई थीं। लेकिन भगदड़ के बाद वह अपने गांव के जत्थे से बिछड़ गईं। इलाहाबाद-फूलपुर मार्ग पर चलने वाले एक ऑटो चालक ने शाम 7 बजे उन्हें अपने वाहन पर बिठा लिया। ऑटो में महिला के सिवाय और कोई नहीं था। रात के आठ बजे के क़रीब ऑटो चालक ने ऑटो को इफको के पास बबूल के झुरमुटों से घिरे अंधेरे और सूनसान राख के तालाब की ओर मोड़ लिया। महिला अनहोनी की आशंका से घिर गई। तभी ड्युटी से लौटते लोगों को देखकर उसे हिम्मत मिली और बिना समय गंवाये वह ऑटो से बाहर छलांग लगा दी। इफको के मज़दूरों ने महिला को थाने पहुंचाया। पुलिस ने महिला के गृह थाने की मदद से परिजनों से बात करके उन बस यात्रियों से संपर्क किया। अगले दिन महिला के गांव के ही जूठन लाल प्रजापति और विकास प्रजापति के साथ उसे वापस उसके घर भेजा गया।
मध्य प्रदेश के रीवा जिले की निवासी कंचन उपाध्याय (उम्र करीब 20 वर्ष) मौनी अमावस्या को मची भगदड़ के बाद उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के महडौरा गांव पहुंच गई। वहां युवती की आंख और शरीर पर चोट के निशान देखकर लोगों ने पुलिस को सूचित किया। उसने गांव के लोगों और पुलिस को बताया कि उसके साथ कुछ लोगों ने ग़लत काम किया है। उसने अपने घरवालों का मोबाइल नंबर बताया। उस नंबर पर कॉल करके उसके घरवालों को बुलाया गया। पुलिस की सूचना पर बहू को लेने पहुंचे ससुर कमला प्रसाद उपाध्याय ने बताया कि उनकी बहू 27 जनवरी को अपने ससुराल खतकरियां गांव से अपने मायके मनिगवा के लिए निकली थी। लेकिन वह मायके न पहुंचकर महाकुंभ कैसे पहुंच गई, इसकी जानकारी नहीं है। ससुर ने कहा कि उनकी बहू मानसिक रूप से कमज़ोर है। हालांकि क्षेत्राधिकारी सदर अमर बहादुर सिंह ने दावा किया कि महिला के साथ कोई गैंगरेप नहीं हुआ। सवाल यह उठता है कि यदि वह मानसिक रूप से कमजोर थी तो उसे अकेले ससुराल से मायके क्यों जाने दिया गया? और मानसिक रूप से कमजोर एक महिला अपने घरवालों का मोबाइल नंबर ठीक-ठीक कैसे बता सकती है?

तमाम घटनाओं पर बातचीत में एक आम बात पता चली कि अधिकांश महिलाओं के पास मोबाइल फोन नहीं था। मेला क्षेत्र में लापता हुए तमाम लोगों के मोबाइल नंबर और डिटेल्स खोया-पाया केंद्र, महाकुंभ पुलिस के सोशल मीडिया एकाउंट से हासिल करके हमने उन नंबरों पर कॉल किया। अधिकांश लोगों से बातचीत में पता चला कि उन लापता हुई स्त्रियों के पास मोबाइल नहीं थे। कुछ परिजनों ने बताया कि नहाते समय वे मोबाइल अपने बैग में या अपने साथ गए साथी को पकड़ा दी थीं। कुछ परिवार के साथ गई थीं, इसलिए वे मोबाइल नहीं लेकर गईं, क्योंकि मेले में मोबाइल खोने का डर था। फिर परिवार के एक सदस्य के पास तो मोबाइल था ही, तो ज़रूरत नहीं समझी गई।
मेले में लापता हुई कुछ स्त्रियों के पास पैसे भी नहीं थे, जिसके चलते उन्हें भूख-प्यास के कारण खाने और किराये के लिए शर्मिंदा होने तथा भीख मांगने की हद तक गिड़गिड़ाने के लिए मज़बूर होना पड़ा। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर की निवासी इशरावती देवी (उम्र 68 वर्ष) अपने परिवार के सात लोगों के साथ मेला घूमने आई थीं। उनके बेटे विनोद कुमार बताते हैं कि वे लोग 29 जनवरी को गंगा नहाकर लौट रहे थे। मेला क्षेत्र के सेक्टर-21 के कैंप में झूंसी की तरफ स्थित दास धर्म शिविर के पास भंडारा चल रहा था। वहीं पास में हल्दीराम का स्टोर भी था। इसी दौरान 8-10 साधु पार करने लगे। भीड़ के चलते जब कुछ लोग साधुओं के अखाड़े में घुसने लगे तो उनको भगाया जाने लगा। उसी में धक्का-मुक्की होने के चलते भगदड़ मच गया, जिसमें उनकी मां लापता हो गई। दो दिन तलाशने के बाद खोया-पाया केंद्र में रिपोर्ट लिखवाकर घर के लोग लौट गए। एक पुलिसकर्मी ने इशरावती देवी को झूंसी बस स्टैंड पर एक बस में बैठा दिया था। वह बस 24 घंटे वहीं स्टैंड में ही खड़ी रही। वृद्धा इशरावती देवी भूखी-प्यासी वहीं बैठी रहीं। जब बस चली तो जाम के चलते तीन दिनों के बाद में पहुंचीं। इशरावती देवी बताती हैं कि उनके पास पैसा नहीं था तो बस वाले उन्हें बीच रास्ते में ही उतार रहे थे। लेकिन उन्होंने सीट को कसकर पकड़ लिया और कहा कि नहीं उतरूंगी। फिर बस में ही एक महिला ने उनका किराया चुकाया, जिसके बाद वह 31 जनवरी की रात वापस अपने घर पहुंच पाईं।
इसी तरह 66 वर्षीया मिर्दुला देवी डुमरी, डोरीगंज, छपरा (बिहार) से गंगा नहाने आई थीं। बीते 29 जनवरी को भगदड़ के बाद से वह लापता हो गईं। उनके बेटे रौशन सिंह फोन पर बताते हैं कि 1 फरवरी को उनकी मां घर वापस पहुंच गईं। उन्हें झूंसी स्टेशन से किसी पुलिस वाले ने बस पर बिठा दिया था। हालांकि उसने उनसे कोई डिटेल नहीं लिया था। न ही प्रशासन का कोई फोन उनके पास आया कि वो सकुशल घर पहुंची या नहीं।
ग्राम चेरो, पोस्ट चेरो, देवरिया की निवासी सवारी देवी प्रजापति (उम्र 70 वर्ष) 29 जनवरी को मेले में ग़ुम हो गई थीं। उनकी नातिन मीरी बताती हैं कि वह दो दिनों के बाद 31 जनवरी को वापस पहुंच गई थीं। क्या खोया-पाया केंद्र से या इलाहाबाद पुलिस का कोई फोन आया था? पूछने पर मीरी बताती हैं कि कोई कॉल नहीं आया था।
जौनपुर की कृष्णा देवी विश्वकर्मा और हरिशंकर विश्वकर्मा अपने गांव के 10-11 लोगों के साथ मेला आए थे। कृष्णा देवी झूंसी में 11 बजे दिन में बिछड़ गई थीं। किसी ने उन्हें बस में बिठा दिया। लेकिन बस 24 घंटे नहीं चली। उनके पास भी खाने-पीने का सामान और पैसा नहीं था। हालांकि उनके पास मोबाइल था। 31 तारीख को रात एक बजे वह अपने घर पहुंची।
कुशहरी, जलपुरवा देवरिया की विमला देवी अपने परिवार के 10-12 लोगों के साथ मौनी अमावस्या के मौके पर प्रयागराज नहाने गई थीं और 29 जनवरी को झूंसी में उमड़ी भीड़ में गुम हो गईं। उनके पास मोबाइल वगैरह नहीं था। इलाहाबाद से बसें और ट्रेनें रद्द थीं। झूंसी से एक लड़का उनको अपनी बाइक पर बिठाकर बनारस ले गया। वहां से उनको देवरिया जाने वाली ट्रेन पर बिठा दिया।
इसी तरह हरौना तिवारी, जिला महराजगंज (उत्तर प्रदेश) से कालिंदी देवी दो स्त्रियों संग गंगा नहाने निकली थीं। भगदड़ की घटना के बाद दोनों ग़ुम हो गईं। फिर 3 फरवरी को वह वापस अपने घर लौट आईं। उनके पास मोबाइल नहीं था। उनके बेटे बृजेश चौहान पेंटिंग का काम करते हैं। वे बताते हैं कि वापसी में उनकी मां ने बहुत यातनाएं झेलीं।
दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, बिहार के बक्सर जिले की सुनीता मिश्रा (उम्र 50 वर्ष) 29 जनवरी को भगदड़ के बाद अपने परिवार से बिछड़ गईं। अंदावा में वो बैठकर रोने लगीं, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि क्या करना है, कहां जाना है। महिला को किसी परिजन का मोबाइल नंबर भी नहीं याद था। मेले में काम करने वाले सैदाबाज के उपेंद्र वर्मा, अंदावा निवासी अमित कुमार, दीपक कुमार और हिमाशु वर्मा ने उन्हें अपने घर पर पनाह दिया और खाना-पीना दिया। जब यातायात सुचारू हुआ तो उस महिला को बिहार उनके घर ले जाकर छोड़ा।
ग्रामीण महिलाओं के अधिकारों और आंदोलन को लेकर लगातार ग्राउंड रिपोर्टिंग करने वाली पत्रकार रूपम मिश्रा कहती हैं कि महाकुंभ मेला प्रशासन की यह रिपोर्ट है कि 29 जनवरी को 7500 लोग लापता हुए। इनमें से 65 प्रतिशत स्त्रियां हैं। सवाल उठता है कि ऐसे तो स्त्रियों की भागीदारी हर जगह कम है, लेकिन धार्मिक आयोजनों में जब भी दुर्घटनाएं होती हैं तो सबसे ज्यादा स्त्रियां ही प्रभावित होती हैं। आखिर क्यों धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक होती है? इस विडंबना का कारण देखा जाए तो भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना इसके लिए जिम्मेदार हैं, जिसके कारण महिलाएं आज भी घर से लेकर बाहर तक सबसे अधिक असुरक्षित महसूस करती हैं। दूसरी बात यह कि महिलाओं को बाहर निकलकर घूमने-फिरने की आज़ादी नहीं मिलती। समाज में धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की बड़ी भागीदारी की बात उनकी आज़ादी से भी जुड़ी है। इसी बहाने वे घर से निकलती हैं, एक सामूहिक जीवन में शामिल होती हैं। दरअसल समाज में महिलाओं को पहचान का संकट इतना अधिक है कि धार्मिक अनुष्ठान आयोजन उन्हें आकर्षित करती है। वहां वे अपनी एक पहचान ढूंढ़ती हैं। एक कारण यह भी कि घर में बचपन से धार्मिक कर्म-कांड करने का जितना दबाव स्त्रियों पर होता है, उतना पुरुषों पर नहीं। इस तरह धर्म उनके जीवन में एक आदत की तरह भी शामिल हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो अनेकानेक स्त्रियां हैं, जो दो-तीन साल के बाद घर से निकलती हैं। उनके जीवन में धर्म एक ओठगन की तरह होता है। जीवन जिसके आसरे चलता रहता है। आज तो सत्ताधारी ताक़तों के लिए धर्म एक हथियार की तरह हो गया है।