खेतड़ी का संरक्षण भारत को एक अमूल्य खजाने की तरह करना चाहिए था, चाहे विशुद्ध विरासत के रूप में उसे बचाकर रखा जाता या एक ऐतिहासिक मुलाकात के स्थान के रूप में. पर 37 साल की अदालती लड़ाई में राजस्थान की एक बेशकीमती धरोहर धूल फांकने को मजबूर
रोहित परिहार
आज शेखावाटी में शुष्क हवाएं इन खंभों वाली मेहराबों और आलों से होकर गुजरती हैं, तो मानो मुंह चिढ़ाती-सी सीटी बजाती हैं. 1770 में खेतड़ी के ‘विंड पैलेस’ की कल्पना प्रकृति और संस्कृति की एक भव्य जुगलबंदी के रूप में की गई थी. वह इतना सुंदर और मनमोहक था कि जल्द ही हवा महल का प्रोटोटाइप बन गया, जो दक्षिण में करीब सौ मील दूर जयपुर और दरअसल समूचे राजस्थान की संपूर्ण स्थापत्य की गौरवशाली विरासत है. वह राज्य के पर्यटन ब्रोशर का मुख्य आकर्षण बन गया है. लेकिन जहां इस वास्तु कला की उत्पत्ति हुई, वह स्थान अब मानो खुदकुशी पर उतारू है.
आप खेतड़ी के चारों ओर सफेद चाक से घेरा बना सकते हैं और कह सकते हैं, “यह वह जगह है जहां विरासत ने खुद को खत्म कर लेने की कोशिश की.” अरावली का सूखा और कंटीला जंगल धीरे-धीरे महल के बगीचों में घुसता-फैलता गया है. हवा आंगन और दालान में रेत के ढेर जमा करती है, और यह कूड़ा-करकट सुंदर भित्तिचित्रों और मीनाकारी को बर्बाद करता है. छिपकली और परिंदों की बीट शानदार लेकिन अब टूटे-बिखरे चित्रों पर लिप-पुतकर जैसे उन्हें मुंह चिढ़ा रही है. वैसे तो काल के थपेड़ों से जीर्णशीर्ण आलीशान महल राजसी अहंकार और ठाट-बाट की कहानी कहते हैं.
हालांकि, यहां पर अपराधी दरअसल राजाओं से सत्ता संभालने वाला राज्य है. अपराध भी कोई छोटा-मोटा नहीं, 37 वर्षों तक सरेआम किया गया. 1987 में इसके आखिरी और महज नाम के राजा बहादुर सरदार सिंह की मृत्यु के बाद राजस्थान सरकार ने खेतड़ी एस्टेट की आधा दर्जन जायदाद अपने कब्जे में ले ली. शिकायत आई कि एस्टेट के मैनेजर और कर्मचारी कलाकृतियां और दूसरा पुराना सामान ट्रकों में भरकर ले जा रहे हैं. इस पर 1956 के एस्कीट कानून के तहत ऐसा किया गया, जिसमें कोई वारिस न होने पर किसी संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान है.
इस मामले में एक रजिस्टर्ड वसीयत मौजूद थी, जिसमें धर्मार्थ खेतड़ी ट्रस्ट को एकमात्र वारिस के रूप में नामित किया गया था. उसमें कुछ नामवर लोग ट्रस्टी थे. फिर सात अन्य स्वयंभू दावेदार थे. सरकार भी देखभाल के प्रति उतनी उत्साही न थी, जैसी फुर्ती उसने कब्जे में लेते वक्त दिखाई थी. बेदखल किए गए लोग अदालत चले गए तो सरकार ने खेतड़ी की विरासत की रक्षा के लिए एक धेला तक खर्च न करने का फैसला कर लिया.
अजी यूं कहिए कि एक छोटे-से ताले-चाबी तक का इंतजाम नहीं किया गया. धरोहर को खुले मौसम के हवाले कर दिया गया. यह कीड़े-मकोड़ों, परिंदों, कुत्ते-बिल्लियों की रिहाइश और आवारा पशुओं की पसंदीदा चारागाह बन गई. अब यह हॉरर फिल्मों के सेट जैसी दिखती है: चींटियों की बांबी, दीमक लगी लकडिय़ां, सड़े हुए कालीन जिन पर मरे कुत्ते और कबूतर बिछे हैं. और इनसान? हां, क्यों हीं!
कालिख पुती छतें नशेड़ियों और शराबियों की जलाई गई आग की गवाही दे रही हैं. दीवारों पर फफूंद से जैसे भित्तिचित्र उग आए हैं. चोरों-उपद्रवियों ने इन महलों को नंगा कर दिया है. मकड़ी के जालों के बीच लुटी हुई चीजों के अवशेष पड़े हैं. दराज और अलमारियां खाली हैं, नुचे-लुटे छोटे फ्रेम, ट्रॉफियों, तलवारों और दूसरी प्राचीन वस्तुओं से खाली दीवारें. इन सारी चीजों को खुले बाजार में बेच दिए जाने का अंदेशा है. 1987 में खेतड़ी की चल संपत्तियों को दर्ज करने वाले तीन रजिस्टर भी गायब हैं.
इस पूरी अवधि में राज्य का तंत्र जमीन पर पूरी तरह से गायब दिखा लेकिन वह पीछे हटने को भी तैयार न था. आखिरकार मामला एक नए मोड़ पर आया. 2016 में अजमेर की राजस्व अदालत ने राज्य के पक्ष में एस्कीट कानून के तहत अधिग्रहण के कलेक्टर का आदेश पर रोक लगा दी. जल्द ही राजस्थान हाई कोर्ट ने 2012 के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें राज्य के एस्कीट कानून पर अमल को सही ठहराया गया था.
राज्य ने इसके खिलाफ फौरन अपील की लेकिन सुप्रीम कोर्ट की भी राय बहुत अनुकूल नहीं रही. 18 जनवरी, 2023 को तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा, “हम इस बात से हैरान और चकित हैं कि कैसे राजस्थान प्रदेश ने अपनी विरासत को नष्ट होने दिया!”
सर्वोच्च अदालत अब जीर्णोद्धार की निगरानी कर रही है. दिल्ली हाई कोर्ट में पहले से ही स्वामित्व के मुख्य मामले की तेजी से सुनवाई हो रही थी. उसने भी सर्वोच्च अदालत जैसा रुख अपनाया. हाई कोर्ट ने जुलाई 2023 में फिर से 2012 के आदेश को खारिज करके खेतड़ी ट्रस्ट को कानूनी उत्तराधिकारी माना.
इसके खिलाफ राज्य की अपील पर नवंबर में सुनवाई होने की उम्मीद है. इससे स्वामित्व का निबटारा हो जाएगा. ऐसा हुआ तो एस्कीट मामला निरर्थक हो जाएगा, खासकर ऐसी स्थिति में जब राज्य राजस्व बोर्ड 2023 में उसे बंद कर चुका है. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने उस सुनवाई को तेजी से आगे बढ़ाने का विकल्प चुना है. अदालत ने किसी भी आदेश पर रोक नहीं लगाई है और इशारा किया है कि मामले का अंतिम निबटारा नजदीक है. पर राज्य अब भी पीछे नहीं हट रहा.
ब्रिटेन में हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य लॉर्ड नॉर्थब्रुक वसीयत के एकमात्र जीवित निष्पादक और ट्रस्टी हैं. वे इस बात से हैरान हैं कि “भारत में राज्य अपने ही नागरिकों के उत्तराधिकार को चुनौती देने के लिए 37 साल तक मुकदमा चला सकता है. दुनिया में ऐसी और कोई मिसाल नहीं मिलती जिसमें अदालतें इसकी अनुमति दें.”
लेकिन भारत में यह इतनी हैरानी की बात नहीं, जहां स्वतंत्रता के बाद का माहौल राजाओं की पिछली ज्यादतियों के खिलाफ था और निजी मुनाफाखोरों के प्रति खासा अविश्वास था. अंग्रेजी राज की लूट से तबाह हुए देश में प्राचीन वस्तुओं के तस्कर राष्ट्रीय खलनायक थे और केवल राज्य पर ही भरोसा किया जाता था. ऐसी संपत्तियों का ‘राष्ट्रीयकरण’ लोकतंत्र के हक में और शाही अहंकार को तोड़ने का तरीका माना गया. यहां तो 2,500 करोड़ रु. की संपत्ति दांव पर थी.
राजस्थान के उत्तर-पूर्वी छोर पर तांबे के खनिज भंडार वाले पठार पर स्थित शेखावाटी इलाके का खेतड़ी जयपुर के आसपास के अर्ध-स्वायत्त ठिकानों में शायद सबसे समृद्ध था. लेकिन इसके महलों में ऐसी घटनाएं घटीं जो सामान्य राजपूताना लोककथाओं से परे हैं. नेहरू परिवार का भी खेतड़ी से जुड़ा छोटा-सा इतिहास है. यहीं पर दिल्ली के आखिरी कोतवाल गंगाधर नेहरू के परिवार ने 1857 के विद्रोह के बाद हुए नरसंहार के दौरान आगरा में नया ठिकाना बनाते समय शरण ली थी.
उनके बेटे नंदलाल नेहरू शिक्षक थे और बाद में एक दशक तक राजा फतेह सिंह के दीवान रहे. छोटे भाई मोतीलाल ने बचपन के कुछ सुखद साल यहीं बिताए. मौजूदा उत्तराधिकार की लड़ाई की कुछ कड़ियां 1870 में फतेह सिंह की मृत्यु के बाद शुरू हुईं. नंदलाल ने यह खबर तब तक छिपाए रखी जब तक कि उन्होंने ब्रिटिश कब्जे को रोकने के लिए पास के अलसीसर से नौ वर्षीय अजित सिंह को बतौर उत्तराधिकारी गोद नहीं ले लिया.
यह अद्भुत विकल्प साबित हुआ. कला, विज्ञान और दर्शन में रुचि रखने वाले ‘सरल और बुद्धिमान राजा’ अजित की 1891 में एक विद्वान युवा भिक्षु से मुलाकात इतिहास का अध्याय बन गई. उस समय तक विवेकानंद बिबिदिशानंद ही थे. शिकागो में विश्व धर्म संसद के लिए जाते समय खेतड़ी की दूसरी यात्रा के दौरान उन्होंने राजा अजित सिंह की सलाह पर वह नाम अपनाया, जिससे वे प्रसिद्ध हुए. राजा ने विवेकानंद की शिकागो यात्रा का खर्च उठाया और उनके परिवार को मासिक सहायता भेजी.
राजा कोई आम शिष्य या संरक्षक नहीं थे. सिर्फ एक साल में ही दोनों के रिश्ते इतने गहरे हो गए थे कि विवेकानंद ने 1898 में लिखा: “मैं आपको इस जीवन में अपना एकमात्र मित्र मानता हूं.” स्वामी ने खेतड़ी में तीन बार प्रवास किया था. उस दौरान उन्होंने पतंजलि के महाभाष्य और राजस्थान के दरबारी जीवन का अध्ययन किया. स्वामी से एक साल पहले राजा की मृत्यु एक मीनार से गिरकर हो गई थी—विवेकानंद के ही शब्दों में, जब वे “अपने खर्च पर आगरा में किसी पुराने वास्तुशिल्प स्मारक का जीर्णोद्धार कर रहे थे.” विडंबना यह है कि उनका अपना खेतड़ी अब खंडहर में तब्दील हो चुका है.
इस बीच कई दशक गुजरे. तीन पीढ़ियों के बाद परिवार के सरदार सिंह का जीवन शिक्षित अभिजात वर्ग के क्लासिक दौर से गुजरा—कैम्ब्रिज, मिडिल टेंपल, संविधान सभा, राज्यसभा, लाओस में राजदूत. वे निस्संतान और तलाकशुदा थे. आम तौर पर दिल्ली के खेतड़ी हाउस में रहते थे. मरने से दो साल पहले उन्होंने 1985 में तीस हजारी अदालत में अपनी वसीयत लिखवाई.
उसके मुताबिक, उनकी सारी चल और अचल संपत्ति—खेतड़ी का सब कुछ, दिल्ली का उनका आवास और जयपुर के चांदपोल में खेतड़ी हाउस—एक नई संस्था खेतड़ी ट्रस्ट को सौंप दी गईं. अलग-अलग समय में ट्रस्टियों की सूची में दिल्ली के नामी लोग शामिल हुए—रोमेश थापर, रोमिला थापर, तेजबीर सिंह, विक्रम लाल, वगैरह. सो, कानूनी लड़ाई में शामिल होने की जिम्मेदारी उन पर आ गई.
राजस्थान सरकार ने वसीयत की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए. इसी तरह स्वयंभू ‘सगोत्रीय’—समकालीन और अगली पीढ़ी के रिश्तेदार अचानक सामने आ गए. इस झुंड ने भी वसीयत पर सवाल उठाए. साथ ही दिल्ली के कानून के अनुसार शहर में पंजीकृत वसीयत को प्रोबेट दिए जाने की लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है—यानी अदालत से मान्य किया जाता है. इस तरह एक भारी-भरकम कानूनी लड़ाई शुरू हुई जो अब चौथे दशक में है—खेतड़ीमहल के मकड़ी के जालों की तरह फैली और उलझी हुई. इसी पर जयपुर के खेतड़ी हाउस की दुखद कहानी बुनी गई है.
वह कभी तीन सितारा होटल (और आंशिक आवास) हुआ करता था, अब नरक में तब्दील हो गया: शटर गिराए गए, अतिक्रमण, भयंकर आग, इसके कुछ हिस्सों की फर्जी बिक्री, बड़ी चोरियां हुईं. एक चोरी शायद कई दिनों तक चली—दो कमरों में लोहे की दो तिजोरियों की 12 इंच मोटी दीवारों को गैस-कटर से काटा गया. राजस्थान के पूर्व डीजीपी और ट्रस्टी अजित सिंह शेखावत दुख जताते हुए कहते हैं, “यह सब उस वक्त हुआ जब यह राज्य के कब्जे में था!” मैनेजिंग ट्रस्टी पृथ्वीराज सिंह ने निरीक्षण की अनुमति के लिए सरकार को भेजे गए कई पत्र दिखाए, जो नामंजूर कर दिए गए.
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. 17 अगस्त को स्थानीय अदालत के कहने पर जयपुर पुलिस ने कथित अवैध बिक्री और अतिक्रमण के लिए सात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की. दो दिन पहले जोधपुर के पूर्व महाराजा और ट्रस्ट के अध्यक्ष गज सिंह ने मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा से मुलाकात की. उन्हें उम्मीद है कि सरकार में बदलाव से शायद कुछ फर्क दिखे. पर वे इसे हल्के में भी नहीं ले रहे. 22 अगस्त को ट्रस्ट ने मुख्य सचिव को अवमानना का नोटिस भेजा. खेतड़ी को नया जीवन देने की दिशा में काम शुरू हो गया है.
अदालत में फटकार खाने के बाद राज्य ने पहली किस्त के तौर पर 5 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं; जीर्णोद्धार शुरू हो गया है. पर्यटन, पुरातत्व और संस्कृति को संभालने वाली उप-मुख्यमंत्री दीया कुमारी कहती हैं, “हम अपनी विरासत की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
एक और सकारात्मक बात यह है कि विश्वसनीय व्यक्तियों में से एक गज सिंह अलसीसर ने ट्रस्ट के पक्ष में अपना दावा वापस ले लिया है. वे 60 एकड़ के भोपालगढ़ किले की तलहटी में 103 कमरों वाला होटल बना रहे हैं. सरकार पास में ही तेंदुआ संरक्षण वन तैयार कर रही है. विवेकानंद सर्किट के साथ खेतड़ी का पूरा पैकेज भी प्रस्तावित है.
इतिहासकार रोमिला थापर को पिछले साल एक ट्रस्टी ने अदालत के फैसले की खबर दी तो उनके मुंह से निकल पड़ा, ”थैंक गॉड. आखिरकार कुछ अच्छा हुआ है.” 2008 में दिल्ली में चाय पर एक बैठकी के दौरान एक कथित रिश्तेदार ने संपत्ति को तीन हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव रखा था.
उस बैठक में शामिल एक व्यक्ति के शब्दों में, “रोमिला की आंखों में आंसू आ गए. उन्होंने कहा कि परलोक में राजा सरदार सिंह मिले तो क्या मुंह दिखाएंगी? वे ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं, जिससे उनके मान-सम्मान को ठेस पहुंचे.” वर्षों की मुकदमेबाजी से थककर उन्होंने ट्रस्ट ही छोड़ दिया. सभी पक्षों का रचनात्मक रूप से साथ आना इस कहानी का उम्दा उपसंहार हो सकता है, भले यह कुछ आदर्शवादी लगे.
अदालती मकड़जाल
– खेतड़ी के भव्य परिसर समेत करीब आधा दर्जन धरोहर रूपी इमारतें पिछले 37 साल से कानूनी पचड़े में फंसी हुई हैं
1985 खेतड़ी की रियासती संपत्ति के अंतिम मुखिया राजा बहादुर सरदार सिंह थे. वे निस्संतान और तलाकशुदा थे. दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में वसीयतनामा लिखवाकर उन्होंने अपनी सभी चल/अचल संपत्ति खेतड़ी ट्रस्ट बनाकर उसे सौंप दी थीं.
– 1987 सरदार सिंह की मृत्यु हो गई. भीतर ही भीतर कीमती वस्तुओं की चोरी की शिकायत पर कार्रवाई करते हुए राजस्थान ने 1956 के एस्कीट अधिनियम के तहत पूरी संपत्ति को अपने अधिकार में ले लिया. यह कानून सरकार को बिना उत्तराधिकारी और दावेदार रहित संपत्ति को अधीन लेने का अधिकार देता है.
– खेतड़ी ट्रस्ट ने वसीयत वैध बनाने को मामला दायर किया, ताकि मिल्कियत हासिल हो सके. कम से कम सात स्वघोषित ‘सगोत्रीय’ उत्तराधिकारियों ने दावा ठोक दिया.
2016 – अजमेर के रेवेन्यू कोर्ट ने एस्कीट्स पर कलेक्टर के आदेश के रूप में आए राज्य के फैसले पर रोक लगाई. फिर राजस्थान हाई कोर्ट ने 2012 का फैसला पलटा और इसमें एस्केट्स का सिद्धांत लागू करने के राज्य आदेश को अवैध करार दिया.
2023 – दिल्ली हाई कोर्ट ने एक बार फिर पिछले आदेश को पलटते हुए ट्रस्ट को अधिकार प्रदान किया, जिससे उसके स्वामित्व की बात स्पष्ट हो गई; राज्य के रेवेन्यू बोर्ड ने एस्केट्स की अपनी कार्यवाही खुद रद्द कर दी.
– सुप्रीम कोर्ट ने उसकी संवार-सुधार की निगरानी अपने हाथ में ली. संपत्ति पर अधिकार के खिलाफ राजस्थान की अपील पर वही सुनवाई कर रहा है. उसने ट्रस्ट के पक्ष में दिए गए हाई कोर्ट के फैसले पर रोक नहीं लगाई है. इससे संकेत मिलता है कि फैसला निकट है.
सिलसिलेवार तबाही
भोपालगढ़ किला: 1765 में भोपाल सिंह का बनवाया और राजस्थान के शीर्ष किलों में से एक. इसके 60 एकड़ के पहाड़ी परिसर में लोग आकर बस गए हैं. यहां दो महल हैं: नयामहल और मोतीमहल. दोनों खंडहर हो चुके हैं.
नयामहल: 1895 में अजीत सिंह का बनवाया. नीचे के शहर का शानदार दृश्य दिखता है. खंभों वाले हॉल में शेखावाटी के उत्कृष्ट भित्तिचित्र, मूर्तिशिल्प और महीन मीनाकारी है. इसका अधिकांश भाग अब बुरी तरह क्षतिग्रस्त.
मोतीमहल: 18वीं सदी का किला. 1861 में इसकी मरम्मत करवाई गई. शेखावाटी वास्तुकला की एक और मिसाल. अब खंडहर में तब्दील हो चुका है. इसकी छतें जटिल गोलाकार ईंट के पैटर्न वाली हैं जिन्हें खड़ंजा कहा जाता है, जो अब टूटी हुई और खराब हो चुकी हैं.
खेतड़ीमहल: 1770 में बना मूल ‘विंड पैलेस’. कई स्तरों पर खुले, स्तंभों वाले हॉल और आंगन की जटिल, परस्पर जुड़ी शृंखला है. इसी के नमूने पर बाद में जयपुर का हवा महल बना. उसके अंदरूनी हिस्सों में प्राकृतिक मिट्टी के रंगों से की गई पेंटिंग दशकों की उपेक्षा की कहानी बयान करती है.
अमर हॉल/सुखमहल/जय निवास कोठी/पुरोहितजी की हवेली: यानी बीचोबीच दरबार हॉल, सरदार सिंह का निवास, उनके दादा जय सिंह का निवास और अनुष्ठानों और धार्मिक कार्यों का स्थल. उपेक्षा और अतिक्रमण के कारण सब कुछ टूट चुका है: दीमक खाए हुए फर्नीचर, गायब झूमर, कभी शानदार कालीनों पर पड़े सड़ते जानवरों के शव, नष्ट कलाकृतियां, मोटी दीवारों से खींची गई स्टील की तिजोरियां, वगैरह.
खेतड़ी हाउस, जयपुर: 1980 के दशक में एक तीन सितारा होटल, 1998 में व्यापार के लिए बंद, 2004 में स्ट्रांग रूम में लूट, 2015 में आंशिक रूप से जला दिया गया, फर्जी बिक्री में ‘बेचा गया’, अतिक्रमण हो गया.
“आप ये तस्वीरें देख लेंगे तो दोपहर का खाना नहीं खा पाएंगे.” —सुप्रीम कोर्ट, 18 जनवरी, 2023
“ब्रिटिश नागरिक होने के नाते मेरे लिए यह समझ से परे है कि राज्य अपने लोगों की बहुमूल्य विरासत को क्योंकर बर्बाद कर सकता है?” —लॉर्ड फ्रांसिस बैरिंग नॉर्थब्रूक, सदस्य, खेतड़ी ट्रस्ट
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